सूर्य कवच || Surya Kavach
इस सर्वविघ्नहर सूर्य कवच के कारण करने वाले के संनिकट व्याधि भय के मारे उसी प्रकार नहीं जाती है, जैसे गरुड़ को देखकर साँप दूर भाग जाते हैं। इसे अपने शिष्य को, जो गुरुभक्त और शुद्ध हो, बतलाना चाहिये परंतु जो दूसरे के दुष्ट स्वभाव वाले शिष्य को देता है, वह मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
जगद्विलक्षण सूर्यकवचम्
जगद्विलक्षणस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः ।
ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवो दिनकरः स्वयम् ।।
व्याधिप्रणाशे सौन्दर्य्ये विनियोगः प्रकीर्त्तितः ।।
इस जगद्विलक्षण कवच के प्रजापति ऋषि हैं, गायत्री छन्द है और स्वयं सूर्य देवता हैं। व्याधिनाश तथा सौन्द्रर्य के लिये इसका विनियोग किया जाता है।
सद्योरोगहरं सारं सर्वपापप्रणाशनम् ।।
ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं श्रीसूर्य्याय स्वाहा मे पातु मस्तकम् ।।
यह सारस्वरूप कवच तत्काल ही पवित्र करने वाला और सम्पूर्ण पापों का विनाशक है। ‘ह्रीं ऊँ क्लीं श्रीं श्रीसूर्याय स्वाहा’ मेरे मस्तक की रक्षा करे।
अष्टादशाक्षरो मन्त्रः कपालं मे सदाऽवतु।।
ॐ ह्रीं ह्रीं श्रीं श्रीं सूर्य्याय स्वाहा मे पातु नासिकाम् ।।
अष्टादशाक्षर* मन्त्र सदा मरे कपाल को बचावे। ‘ऊँ ह्रीं ह्रीं श्रीं श्रींसूर्याय स्वाहा’ मेरी नासिका को सुरक्षित रखे।
चक्षुर्मे पातु सूर्यश्च तारकां च विकर्तनः ।।
भास्करो मेऽधरं पातु दन्तान्दिनकरः सदा ।।
सूर्य मेरे नेत्रों की, विकर्तन पुतलियों की, भास्कर ओठों की और दिनकर दाँतों की रक्षा करें।
प्रचण्डः पातु गण्डं मे मार्तण्डः कर्णमेव च ।।
मिहिरश्च सदा स्कन्धे जंघे पूषा सदाऽवतु ।।
प्रचण्ड मेरे गण्डस्थल का, मार्तण्ड कानों का, मिहिर स्कन्धों का और पूषा जंघाओं का सदा पालन करें।
वक्षः पातु रविः शश्वन्नाभिं सूर्य्यः स्वयं सदा।।
कंकालं मे सदा पातु सर्वदेवनमस्कृतः।।
रवि मेरे वक्षःस्थल की, स्वयं सूर्य नाभि की और सर्वदेवनमस्कृत कंकाल की सदा देख-रेख करें।
करौ पातु सदा ब्रध्नः पातु पादौ प्रभाकरः।।
विभाकरो मे सर्वांगं पातु सन्ततमीश्वरः।।
ब्रध्न हाथों को, प्रभाकर पैरों को और सामर्थ्यशाली विभाकर मेरे सारे शरीर को निरन्तर सुरक्षित रखें।
इति ते कथितं वत्स कवचं सुमनोहरम्।।
जगद्विलक्षणं नाम त्रिजगत्सु सुदुर्लभम् ।।
वत्स! यह ‘जगद्विलक्षण’ नामक कवच अत्यन्त मनोहर तथा त्रिलोकी में परम दुर्लभ है।
सूर्य कवच फलश्रुति
पुरा दत्तं च मनवे पुलस्त्येन तु पुष्करे ।।
मया दत्तं च तुभ्यं तद्यस्मै कस्मै न देहि भोः ।।
पूर्वकाल में पुलस्त्य ने पुष्करक्षेत्र में प्रसन्न होकर इसे मनु को दिया था, इसे तुम जिस-किसी को मत दे देना।
व्याधितो मुच्यसे त्वं च कवचस्य प्रसादतः ।।
भवानरोगी श्रीमांश्च भविष्यति न संशयः ।।
इस कवच की कृपा से तुम्हारा रोग नष्ट हो जायेगा और तुम नीरोग तथा श्रीसम्पन्न हो जाओगे– इसमें संशय नहीं है।
लक्षवर्षहविष्येण यत्फलं लभते नरः ।।
तत्फलं लभते नूनं कवचस्यास्य धारणात् ।।
एक लाख वर्ष तक हविष्य-भोजन से मनुष्य को जो फल मिलता है, वह फल निश्चय ही इस कवच के धारण से प्राप्त हो जाता है।
इदं कवचमज्ञात्वा यो मूढो भास्करं यजेत् ।।
दशलक्षप्रजप्तोऽपि मन्त्रसिद्धिर्न जायते ।।
इस कवच को जाने बिना जो मूर्ख सूर्य की भक्ति करता है, उसे दस लाख जप करने पर भी मन्त्र सिद्धि नहीं प्राप्त होती।
सूर्य अष्टादशाक्षर* मन्त्र
सूर्य अष्टादशाक्षर* मन्त्र इस प्रकार है–
‘ऊँ ह्रीं नमो भगवते सूर्याय परमात्मने स्वाहा’
– इस मन्त्र से सावधानतया सूर्य का पूजन करके उन्हें भक्तिपूर्वक सोलह उपहार प्रदान करना चाहिये। यों ही पूरे वर्षभर तक करना होगा। इससे तुम लोग निश्चय ही रोगमुक्त हो जाओगे। पूर्वकाल में अहल्या का हरण करने के कारण गौतम के शाप से जब इन्द्र के शरीर में सहस्र भग हो गये थे, उस संकट-काल में बृहस्पति जी ने प्रेमपूर्वक पापयुक्त इन्द्र को जो कवच दिया था ।
इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे सर्वविघ्नहर सूर्य कवच नामैकोनविंशतितमोऽध्यायः ।। १९ ।।