सूर्य स्तुती || Surya Stuti

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सूर्यस्तुती- सूर्य से पृथ्वी की औसत दूरी लगभग १४,९६,००,००० किलोमीटर या ९,२९,६०,००० मील है तथा सूर्य से पृथ्वी पर प्रकाश को आने में ८.३ मिनट का समय लगता है। इसी प्रकाशीय ऊर्जा से प्रकाश-संश्लेषण नामक एक महत्वपूर्ण जैव-रासायनिक अभिक्रिया होती है जो पृथ्वी पर जीवन का आधार है। यह पृथ्वी के जलवायु और मौसम को प्रभावित करता है। सूर्य की सतह का निर्माण हाइड्रोजन, हिलियम, लोहा, निकेल, ऑक्सीजन, सिलिकन, सल्फर, मैग्निसियम, कार्बन, नियोन, कैल्सियम, क्रोमियम तत्वों से हुआ है। इनमें से हाइड्रोजन सूर्य के सतह की मात्रा का ७४ % तथा हिलियम २४ % है। इस जलते हुए गैसीय पिंड को दूरदर्शी यंत्र से देखने पर इसकी सतह पर छोटे-बड़े धब्बे दिखलाई पड़ते हैं। इन्हें सौर कलंक कहा जाता है। ये कलंक अपने स्थान से सरकते हुए दिखाई पड़ते हैं। इससे वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि सूर्य पूरब से पश्चिम की ओर २७ दिनों में अपने अक्ष पर एक परिक्रमा करता है। जिस प्रकार पृथ्वी और अन्य ग्रह सूरज की परिक्रमा करते हैं उसी प्रकार सूरज भी आकाश गंगा के केन्द्र की परिक्रमा करता है। इसको परिक्रमा करनें में २२ से २५ करोड़ वर्ष लगते हैं, इसे एक निहारिका वर्ष भी कहते हैं। इसके परिक्रमा करने की गति २५१ किलोमीटर प्रति सेकेंड है।

ज्योतिष शास्त्र में सूर्य

भारतीय ज्योतिष में सूर्य को आत्मा का कारक माना गया है। सूर्य से सम्बन्धित नक्षत्र कृतिका उत्तराषाढा और उत्तराफ़ाल्गुनी हैं। यह भचक्र की पांचवीं राशि सिंह का स्वामी है। सूर्य पिता का प्रतिधिनित्व करता है, लकड़ी, मिर्च, घास, हिरन, शेर, ऊन, स्वर्ण आभूषण, तांबा आदि का भी कारक है। मन्दिर, सुन्दर महल, जंगल, किला एवं नदी का किनारा इसका निवास स्थान है। शरीर में पेट, आंख, हृदय, चेहरा का प्रतिधिनित्व करता है और इस ग्रह से आंख, सिर, रक्तचाप, गंजापन एवं बुखार संबन्धी बीमारी होती हैं। सूर्य की जाति क्षत्रिय है। शरीर की बनावट सूर्य के अनुसार मानी जाती है। हड्डियों का ढांचा सूर्य के क्षेत्र में आता है। सूर्य का अयन ६ माह का होता है। ६ माह यह दक्षिणायन यानी भूमध्य रेखा के दक्षिण में मकर वृत पर रहता है, और ६ माह यह भूमध्य रेखा के उत्तर में कर्क वृत पर रहता है। इसका रंग केशरिया माना जाता है। धातु तांबा और रत्न माणिक उपरत्न लाडली है। यह पुरुष ग्रह है। इससे आयु की गणना ५० साल मानी जाती है। सूर्य अष्टम मृत्यु स्थान से सम्बन्धित होने पर मौत आग से मानी जाती है। सूर्य सप्तम दृष्टि से देखता है। सूर्य की दिशा पूर्व है। सबसे अधिक बली होने पर यह राजा का कारक माना जाता है। सूर्य के मित्र चन्द्र, मंगल और गुरु हैं। शत्रु शनि और शुक्र हैं। समान देखने वाला ग्रह बुध है। सूर्य की विंशोत्तरी दशा ६ साल की होती है। सूर्य गेंहू, घी, पत्थर, दवा और माणिक्य पदार्थो पर अपना असर डालता है। पित्त रोग का कारण सूर्य ही है और वनस्पति जगत में लम्बे पेड का कारक सूर्य है। मेष के १० अंश पर उच्च और तुला के १० अंश पर नीच माना जाता है। सूर्य का भचक्र के अनुसार मूल त्रिकोण सिंह पर ० अंश से लेकर १० अंश तक शक्तिशाली फ़लदायी होता है। सूर्य के देवता भगवान शिव हैं। सूर्य का मौसम गर्मी की ऋतु है। सूर्य के नक्षत्र कृतिका का फ़ारसी नाम सुरैया है। और इस नक्षत्र से शुरु होने वाले नाम ’अ’ ई उ ए अक्षरों से चालू होते हैं। इस नक्षत्र के तारों की संख्या अनेक है। इसका एक दिन में भोगने का समय एक घंटा है। सूर्य देव का व्रत के लिए रविवार व्रत कथा देखें।

भगवान सूर्य की आराधना के लिए ताकि साधक रोगमुक्त हो व उनकी सर्वमनोकामना सिद्ध हो अतः यहाँ ३ सूर्यस्तुती दिया जा रहा है।

|| सूर्यस्तुती ||

१ सूर्यस्तुती द्वादशार्या साम्बकृत

अथ श्रीसाम्बकृतद्वादशार्यासूर्यस्तुतिः ।

उद्यन्नद्यविवस्वानारोहन्नुत्तरां दिवं देवः ।

हृद्रोगं मम सूर्यो हरिमाणं चाशु नाशयतु ॥ १॥

निमिषार्धेनैकेन द्वे च शते द्वे सहस्रे द्वे ।

क्रममाण योजनानां नमोऽस्तुते नलिननाथाय ॥ २॥

कर्मज्ञानखदशकं मनश्च जीव इति विश्वसर्गाय ।

द्वादशधा यो विचरति स द्वादशमूर्तिरस्तु मोदाय ॥ ३॥

त्वं हि यजूऋक्सामः त्वमागमस्त्वं वषट्कारः ।

त्वं विश्वं त्वं हंसः त्वं भानो परमहंसश्च ॥ ४॥

शिवरूपात् ज्ञानमहं त्वत्तो मुक्तिं जनार्दनाकारात् ।

शिखिरूपादैश्वर्यं त्वत्तश्चारोग्यमिच्छामि ॥ ५॥

त्वचि दोषा दृशि दोषाः हृदि दोषा येऽखिलेन्द्रियजदोषाः ।

तान् पूषा हतदोषः किञ्चिद् रोषाग्निना दहतु ॥ ६॥

धर्मार्थकाममोक्षप्रतिरोधानुग्रतापवेगकरान् ।

बन्दीकृतेन्द्रियगणान् गदान् विखण्डयतु चण्डांशुः ॥ ७॥

येन विनेदं तिमिरं जगदेत्य ग्रसति चरमचरमखिलम् ।

धृतबोधं तं नलिनीभर्तारं हर्तारमापदामीडे ॥ ८॥

यस्य सहस्राभीशोरभीशु लेशो हिमांशुबिम्बगतः ।

भासयति नक्तमखिलं भेदयतु विपद्गणानरुणः ॥ ९॥

तिमिरमिव नेत्रतिमिरं पटलमिवाशेषरोगपटलं नः ।

काशमिवाधिनिकायं कालपिता रोगयुक्ततां हरतात् ॥ १०॥

वाताश्मरीगदार्शस्त्वग्दोषमहोदरप्रमेहांश्च ।

ग्रहणीभगन्धराख्या महतीस्त्वं मे रुजो हंसि ॥ ११॥

त्वं माता त्वं शरणं त्वं धाता त्वं धनं त्वमाचार्यः ।

त्वं त्राता त्वं हर्ता विपदामर्क प्रसीद मम भानो ॥ १२॥

इत्यार्याद्वादशकं साम्बस्य पुरो नभःस्थलात् पतितम् ।

पठतां भाग्यसमृद्धिः समस्तरोगक्षयश्च स्यात् ॥ १३॥

इति श्रीसाम्बकृतद्वादशार्यासूर्यस्तुतिः सम्पूर्णा ।

|| सूर्यस्तुतिः २ ||

श्रीभैरवी –

भगवन्देवदेवेश भक्तानुग्रहकारक ।

देहास्वास्थ्यं परं दुःखं भवेदिति न संशयः ॥ १॥

रोगैर्जीर्णो यदा देहस्तदा कं दैवतं श्रयेत् ।

यं स्तुत्वा स्वास्थ्यमाप्नोति तदुपासनमादिश ॥ २॥

श्रीभैरवः –

श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि लोकानुग्रहकाम्यया ।

रोगाजगरग्रस्तानां जन्तूनां पापचेतसाम् ॥ ३॥

स्मरणं धारणं चैव सूर्यस्यार्चनमेव च ।

ज्वरातिसाररोगानां नाशनं स्मरणादपि ॥ ४॥

कुष्ठविचर्चिकादद्रूसन्निपातादि नाशनम् ।

सूक्ष्मातिसूक्ष्मं यत्तेजो तं देवं शरणं श्रये ॥ ५॥

वारयेद्विघ्नराशींश्च तमांसि च मुहुर्मुहुः ।

अन्तर्वातौधध्वंसी यस्तं देवं शरणं श्रये ॥ ६॥

आकाशरूपो विश्वात्मा देवःप्रमकटितः प्रभुः ।

द्योतनात्त्रिषु लोकेषु तं दैवं शरणं श्रये ॥ ७॥

ध्यायनात्सर्वलोकेषु चिन्तनादपराजितम् ।

बुद्ध्या त्सर्वसमायुक्तं तं देवं शरणं श्रये ॥ ८॥

धीप्रेरकं तु यत्तेजः सर्वव्यापकमव्ययम् ।

बुद्धेः पारङ्गतं यत्तच्छरण्यं शरणं श्रये ॥ ९॥

यत्तदादिशते बुद्धिर्भर्गः सदसदात्मकम् ।

आर्तो भक्त्या च परमं शरणं तं व्रजाम्यहम् ॥ १०॥

रक्तपुष्पसमायुक्तं गृहीत्वोद्यन्तमर्चयेत् ।

प्रतिश्लोकमर्धपुष्पं दत्त्वा प्राञ्जलिकं स्थितम् ॥ ११॥

सर्वे रोगाः प्रणश्यन्ति लूता विस्फोटकादयः ।

भगन्दरशिरोरोगमूत्ररोगाश्मरीयुताः ॥ १२॥

श्वेतकुष्ठाद्यतीसारपायुकुक्षिसमुद्भवाः ।

त्वग्रोगा ये क्षुद्ररोगा ये त्वन्ये च महेश्वरि ॥ १३॥

ते सर्वे सम्प्रणश्यन्ति स्तोत्रस्यास्यानुकीर्तनात् ।

आपन्न आपदो मुच्येद्बद्धो मुच्येत बन्धनात् ॥ १४॥

अपुत्रः पुत्रमाप्नोति कन्या विन्दति सत्पतिम् ।

भीतो भयात्प्रमुच्येत चेत्याज्ञा पारमेश्वरी ॥ १५॥

इदं रहस्यं परमं नाख्येयं यस्य कस्यचित् ।

गुह्यं गुह्यतमं लोके वेदतन्त्रसमुत्थितम् ॥ १६॥

सर्वतः सारमुद्धृत्यतवस्नेहात्प्रकाशितम् ।

नातः परतरं स्तोत्रं सूर्यस्याराधनं परम् ॥ १७॥

अत्र पूज्यो रविर्देवि स्तोत्रेणानेन भक्तितः ।

सायं प्रातर्नमस्कृत्य नान्नमद्याज्जलं पिबेत् ॥ १८॥

वर्षेणैव भवेत्सिद्धिरिति सत्यं वरानने ।

बद्धपद्मासनो देवः प्रसन्नो भक्तवत्सलः ॥ १९॥

सप्ताश्वः सप्तजिह्वश्च द्विभुजः पातु नो रविः ।

अकृतानि च पुष्पाणि सलिलारुणचन्दनैः ॥ २०॥

अर्घ्यं दत्त्वा प्रयत्नेन सूर्यनामानि कीर्तयेत् ।

नमस्ते विश्वरूपाय नमस्ते ब्रह्मरूपिणे ॥ २१॥

सहस्ररश्मये नित्यं नमस्ते सर्वतेजसे ।

नमस्ते रुद्रवपुषे नमस्ते भक्तवत्सल ॥ २२॥

पद्मनाम नमस्तेऽस्तु कुण्डलाङ्गदशोभित ।

नमस्ते सर्वलोकेश जगत्सर्वं प्रबोधसे ॥ २३॥

सुकृतं दुष्कृतं चैव सर्वं पश्यसि सर्वग ।

सत्यदेव नमस्तेऽस्तु प्रसीद मम भास्कर ॥ २४॥

दिवाकर नमस्तेऽस्तु प्रभाकर नमोऽस्तु ते ।

आश्रमस्थस्ततः पूजाप्रतिमां चापि पूजयेत् ॥ २५॥

उदयंस्तु महाभानुस्तेजसा चाभयङ्करः ।

सहस्ररश्मिदीप्तश्च ह्यादित्यः प्रीयतां मम ॥ २६॥

इति सूर्यस्तुतिः समाप्ता ।

|| सूर्यस्तुतिः ३ ||

देवा ऊचुः

नमस्ते ऋक्स्वरूपाय सामरूपाय ते नमः ।

यजुःस्वरूपरूपाय साम्नान्धामवते नमः ॥ १॥

ज्ञानैकधामभूताय निर्धूततमसे नमः ।

शुद्धज्योतिःस्वरूपाय विशुद्धायामलात्मने ॥ २॥

वरिष्ठाय वरेण्याय परस्मै परमात्मने ।

नमोऽखिलजगद्व्यापिस्वरूपायात्ममूर्तये ॥ ३॥

इदं स्तोत्रवरं रम्यं श्रोतव्यं श्रद्धया नरैः ।

शिष्यो भूत्वा समाधिस्थो दत्त्वा देयं गुरोरपि ॥ ४॥

न शून्यभूतैः श्रोतव्यमेतत्तु सफलं भवेत् ।

सर्वकारणभूताय निष्ठायै ज्ञानचेतसाम् ॥ ५॥

नमः सूर्यस्वरूपाय प्रकाशात्मस्वरूपिणे ।

भास्कराय नमस्तुभ्यं तथा दिनकृते नमः ॥ ६॥

शर्वरीहेतवे चैव सन्ध्याज्योत्स्नाकृते नमः ।

त्वं सर्वमेतद्भगवन् जगदुद्भ्रमता त्वया ॥ ७॥

भ्रमत्याविद्धमखिलं ब्रह्माण्डं सचराचरम् ।

त्वदंशुभिरिदं स्पृष्टं सर्वं सञ्जायते शुचि ॥ ८॥

क्रियते त्वत्करैः स्पर्शाज्जलादीनां पवित्रता ।

होमदानादिको धर्मो नोपकाराय जायते ॥ ९॥

तावद्यावन्न संयोगि जगदेतत् त्वदंशुभिः ।

ऋचस्ते सकला ह्येता यजूंष्येतानि चान्यतः ॥ १०॥

सकलानि च सामानि निपतन्ति त्वदड्गतः ।

ऋङ्मयस्त्वं जगन्नाथ ! त्वमेव च यजुर्मयः ॥ ११॥

यतः साममयश्चैव ततो नाथ ! त्रयीमयः ।

त्वमेव ब्रह्मणो रूपं परञ्चापरमेव च ॥ १२॥

मूर्तामूर्तस्तथा सूक्ष्मः स्थूलरूपस्तथा स्थितः ।

निमेषकाष्ठादिमयः कालरूपः क्षयात्मकः ।

प्रसीद स्वेच्छया रूपं स्वतेजः शमनं कुरु ॥ १३॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे वैवस्वतोत्पत्तिर्नामाष्टसप्ततितमोऽध्यायान्तर्गता सूर्यस्तुतिः समाप्ता ॥

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