Swarnakumari Devi Autobiography | स्वर्णकुमारी देवी का जीवन परिचय : बंगाली कवयित्री, उपन्यासकार और सामाजिक कार्यकर्ता
स्वर्णकुमारी देवी एक कवयित्री, उपन्यासकार, गीतकार, और संगीतकार थीं। वह केवल कलाकार ही नहीं बल्कि एक सामाजिक कार्यकर्ता भी थीं। वह महिला अधिकारों और उन्हें शिक्षित करने के लिए जीवनभर काम करती रहीं। देवी बंगाल की शुरुआती महिला लेखिकाओं में एक थीं जिनके काम को पहचाना गया।
वह 30 वर्षों तक प्रसिद्ध साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘भारती’ से जुड़ी रहीं। बाद में वह इस पत्रिका की संपादक भी बनी थीं। स्वर्णकुमारी देवी ने बंगाली भाषा में 25 से अधिक किताबें लिखी हैं। स्वर्णकुमारी द्वारा ही लिखा ‘बसंत उत्सव’, बंगाल का पहला ओपेरा था। देवी की लिखी अनेक रचनाओं का बाद में दूसरी भाषाओं में भी अनुवाद किया गया।
शुरुआती जीवन
सवर्णकुमारी देवी का जन्म 28 अगस्त 1855 में कलकत्ता, बंगाल में हुआ था। इनके पिता का नाम देबेन्द्रनाथ टैगोर और माता का नाम शारदा देवी थी। इनके पिता दार्शनिक और एक धर्म सुधारक थे। स्वर्णकुमारी की प्राथमिक शिक्षा उनके घर पर ही हुई थी। उन्हें एक शिक्षक घर पर ही पढ़ाने आते थे। स्वर्णकुमारी के घर शिक्षा का पूरा माहौल था। स्कूल जाने से पहले उन्हें और उनके अन्य भाई-बहनों को भी घर पर शिक्षा का विशेष ध्यान दिया गया। स्वर्णकुमारी देवी, रविन्द्रनाथ टैगोर की बड़ी बहन थीं।
स्वर्णकुमारी देवी ने बंगाली भाषा में 25 से अधिक किताबें लिखी हैं। स्वर्णकुमारी द्वारा ही लिखा ‘बसंत उत्सव’, बंगाल का पहला ओपेरा था। देवी की लिखी अनेक रचनाओं का बाद में दूसरी भाषा में भी अनुवाद किया गया।
स्वर्णकुमारी का विवाह 13 साल की उम्र में जानकीनाथ घोषाल के साथ हुआ था। वह राजनीति में बहुत सक्रिय थे और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े हुए थे। उनके पति भी प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति थे। उन्होंने हमेशा देवी को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। विवाह के बाद ही उनकी सामाजिक कार्यों में भी रूचि बढ़ गई थी। स्वर्णकुमारी ने 13 साल की उम्र में ही लिखना शुरू कर दिया था। उनके तीन बच्चे थे।
पहला उपन्यास
स्वर्णकुमारी का पहला उपन्यास ‘दीपनिर्बान’ साल 1876 में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने अपने उपन्यास के माध्यम से राष्ट्रवादी जड़ों को और गहरा करने का काम किया था। उसके बाद उन्होंने बहुत से उपन्यास, कविता, नाटक और वैज्ञानिक निबंध लिखे। उन्होंने बहुत से गीतों की भी रचना की थी। साल 1879 में उन्होंने बंगाली में पहला ओपेरा ‘बसंत उत्सव’ की रचना की थी।
संपादक के तौर पर
स्वर्णकुमारी ने ‘भारती’ नामक पत्रिका का लंबे समय तक संपादन भी किया था। वह पत्रिका की पहली महिला संपादक बनी थीं। यह एक साहित्यिक पत्रिका थी। देवी के बड़े भाई ज्योतिरिंद्रनाथ टैगोर ने 1877 में इस पत्रिका को शुरू किया था। सबसे पहले उनके भाई द्विजेंद्रनाथ टैगौर ने सात साल इस पत्रिका का संपादन किया। उसके बाद स्वर्णकुमारी ने लगभग ग्यारह साल पत्रिका का संपादन कार्य किया। स्वर्णकुमारी ने संपादक के तौर पर कठिन कार्य किया और पत्रिका की विशिष्ठता को बढ़ाने की ओर ध्यान दिया। उन्होंने अपने कार्यकाल में विज्ञान से जुड़ी जानकारियों को महिलाओं तक पहुंचाने के लिए पत्रिका में उससे संबधित चीजें प्रकाशित की। देवी का ध्यान महिलाओं को पत्रिका से जोड़ने और उन्हें जागरूक करने पर अधिक था।
शादी के बाद वह अपने पति के साथ राजनीति और सामाजिक कार्यो में हिस्सा लेने लगी थी। साल 1889 से 1890 तक वह राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ी रही। यह पहली बार था जब महिलाओं ने सार्वजनिक तौर पर कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग लिया था। स्वर्णकुमारी देवी ने पंडिता रमाबाई, रमाबाई रानाडे और कादम्बिनी गांगुली भी कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुई थी। वह सत्र के लिए चुने गए पहले दो सदस्यों में से एक थीं।
स्वर्णकुमारी साल 1882 से 1886 तक ‘थियोसोफिकल सोसायटी’ की महिला अध्यक्ष के पद पर भी रही थीं। इसके साथ ही वह ‘बिधवा शिल्पा आश्रम’ की भी अध्यक्ष बनी थीं। यह संस्थान विधवा महिलाओं के हितों के संरक्षण के लिए काम करता था। देवी ने हमेशा महिलाओं की सामाजिक स्थिति को बेहतर करने की दिशा में काम किया।
स्वर्णकुमारी ने साल 1896 में उन्होंने ‘सखी समिति’ शुरू की थी। इस समिति का उद्देश्य भी बंगाल में अनाथों और विधवाओं के हितों के लिए काम करना था। रविन्द्रनाथ टैगोर ने ‘मयूर खेला’ नाम से डांस ड्रामा की रचना की थी। इसका इस्तेमाल समिति के लिए पैसा जुटाने के लिए किया गया था। यह समिति विशेष तौर पर महिलाओं को शिक्षित करने के लिए काम करती थी।
स्वर्णकुमारी देवी ने अपने लेखन कार्य में भी हमेशा महिलाओं के पक्ष को रखने का काम किया। वह पितृसत्ता को अपने लेखन कार्य से चुनौती देने में हमेशा आगे रहती थी। उन्होंने अपनी कहानियों में महिलाओं के चरित्र ब्राह्मणवादी पितृसत्ता का विद्रोह करते हुए रचे। देवी ने अपने लेखन के माध्यम से महिलाओं की एकल पहचान को जोर देने की कोशिश की। उन्होंने अपने किरदारों के माध्यम से परंपराओं से आगे निकलकर मुख्यधारा में महिलाओं की खुद की पहचान को सामने रखने का काम किया। उनकी कहानी और उपन्यास के नाम भी कई महिला किरदारों के नाम पर ही है।
स्वर्णकुमारी साल 1882 से 1886 तक ‘थियोसोफिकल सोसायटी’ की महिला अध्यक्ष के पद पर भी रही थीं। इसके साथ ही वह ‘बिधवा शिल्पा आश्रम’ की भी अध्यक्ष बनी थीं। यह संस्थान विधवा महिलाओं के हितों के संरक्षण के लिए काम करता था।
साहित्यकि कार्य
स्वर्णकुमारी देवी ने साहित्य की कई विधाओं उपन्यास, नाटक, कविता और निबंध लिखे हैं। उनके लिखे उपन्यास दीपनिर्बान (1876), मिबर राज (1877), चिन्ना मुकुल (1879), मालती (1881), कहके (1898), बिरोध (1890), फुलेरमाला (1894), बिचित्र (1920), मिलनरात्रि (1992) आदि है। उन्होंने कोनी बादल (1906), पाक चक्र (1911), राजकन्या और दिव्याकमाल नाम से नाटक लिखे हैं। उनके कविता सग्रंह के नाम गाथा, बसंत उत्सव और गीतिगुच्छा है। स्वर्णकुमारी देवी के लिखे कई उपन्यास अंग्रेजी भाषा में भी अनुवादित हो चुके हैं।
1929 में बंगाली साहित्य सम्मेलन कोलकत्ता में जनरल प्रेसीडेंट के तौर पर चुनी गई थीं। देवी, बंगाल की पहली महिला लेखक थीं जिन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय की तरफ से ‘जगततारिणी स्वर्ण पदक’ से सम्मानित किया गया था। स्वर्णकुमारी देवी का लेखन हमेशा अग्रणी रहा है। उन्होंने जिन रूपों को अपने लेखन में शामिल किया था उनपर बाद में रविन्द्रनाथ टैगौर ने भी काम किया था। स्वर्णकुमारी देवी ने अपने समकालीन अन्य लेखकों के समान साहित्यिक काम किया लेकिन उनके काम को ज्यादा प्रसार-प्रचार नहीं किया गया। यह भारत की वहीं पितृसत्ता व्यवस्था है जिसका उन्होंने जीवनभर विरोध किया था।
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