फूल और कांटे – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
हैं जनम लेते जगत में एक ही‚ एक ही पौधा उन्हें है पालता। रात में उन पर चमकता चांद भी‚...
हैं जनम लेते जगत में एक ही‚ एक ही पौधा उन्हें है पालता। रात में उन पर चमकता चांद भी‚...
पीहर का बिरवा छतनार क्या हुआ सोच रहीं लौटी ससुराल से बुआ। भाई भाई फरीक पैरवी भतीजों की मिलते हैं...
आधा जीवन जब बीत गया बनवासी सा गाते रोते तब पता चला इस दुनियां में सोने के हिरन नहीं होते।...
आज नहीं धन आशातीत कहीं से पाया‚ ना हीं बिछड़े साजन ने आ गले लगाया। शत्रु विजय कर नहीं प्रतिष्ठा...
ये शामें, ये सब की सब शामें… जिनमें मैंने घबरा कर तुमको याद किया जिनमें प्यासी सीपी का भटका विकल...
है मन का तीर्थ बहुत गहरा। हंसना‚ गाना‚ होना उदास‚ ये मापक हैं न कभी मन की गहराई के। इनके...
मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला‚ प्रियतम‚ अपने ही हाथों से आज पिलाऊंगा प्याला‚ पहले भोग लगा...
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार पथ ही मुड़ गया था। गति मिली मैं चल पड़ा पथ पर कहीं रुकना मना...
रुक रुक चले बयार, कि झुक झुक जाए बादल छाँह कोई मन सावन घेरा रे, कोई मन सावन घेरा रे...
इसमे क्या आश्चर्य? प्रीति जब प्रथम–प्रथम जगती है‚ दुर्लभ स्वप्न–समान रम्य नारी नर को लगती है। कितनी गौरवमयी घड़ी वह...
हाय, मानवी रही न नारी लज्जा से अवगुंठित, वह नर की लालस प्रतिमा, शोभा सज्जा से निर्मित! युग युग की...
हो गया पूर्ण अज्ञातवास, पांडव लौटे वन से सहास, पावक में कनक सदृश तप कर, वीरत्व लिये कुछ और प्रखर।...