एक सीढ़ी और चढ़ आया – कुंवर बेचैन
एक सीढ़ी और चढ़ आया समय इस साल जाने छत कहाँ है। प्राण तो हैं प्राण जिनको देह–धनु से छूटना...
एक सीढ़ी और चढ़ आया समय इस साल जाने छत कहाँ है। प्राण तो हैं प्राण जिनको देह–धनु से छूटना...
हो चुका खेल थक गए पांव अब सोने दो। फिर नन्हीं नन्हीं बूंदें फिर नई फसल फिर वर्षा ऋतु फिर...
नींद सुख की फिर हमे सोने न देगा यह तुम्हारे नैन में तिरता हुआ जल। छू लिये भीगे कमल, भीगी...
जीवन कटना था, कट गया अच्छा कटा, बुरा कटा यह तुम जानो मैं तो यह समझता हूँ कपड़ा पुराना एक...
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है कि जिंदगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाओं में गुज़रने पाती तो शादाब...
देह से अलग होकर भी मैं दो हूँ मेरे पेट में पिट्ठू है। जब मैं दफ्तर में साहब की घंटी...
वे तो पागल थे जो सत्य, शिव, सुंदर की खोज में अपने–अपने सपने लिये नदियों, पहाड़ों, बियाबानों, सुनसानों मे फटे–हाल...
काँधे धरी यह पालकी, है किस कन्हैयालाल की? इस गाँव से उस गाँव तक नंगे बदता फैंटा कसे बारात किसकी...
परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो उसमें बहुत कुछ है जो जीवित है जीवन दायक है जैसे भी हो...
फिर क्या होगा उसके बाद? उत्सुक हो कर शिशु ने पूछा माँ, क्या होगा उसके बाद? ‘रवि से उज्ज्वल शशि...
फूल से बोली कली‚ क्यों व्यस्त मुरझाने में है फायदा क्या गंध औ’ मकरंद बिखराने में है तू स्वयं को...
सूर्य की अब किसी को जरूरत नहीं जुगनुओं को अंधेरे में पाला गया फ्यूज़ बल्बों के अदभुत समारोह में रोशनी...