त्रैलोक्यविजय श्रीकृष्ण कवच || Trailokya Vijay Shri Krishna Kavach

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भगवान शंकर ने रत्नपर्वत के निकट स्वयंप्रभा नदी के तट पर पारिजात वन के मध्य स्थित आश्रम में लोकों के देवता माधव के समक्ष परशुराम को ‘त्रैलोक्यविजय’ नामक परम अद्भुत श्रीकृष्ण कवच प्रदान किया था।

त्रैलोक्यविजय श्रीकृष्ण कवच

महादेव जी ने कहा– भृगुवंशी महाभाग वत्स! तुम प्रेम के कारण मुझे पुत्र से भी अधिक प्रिय हो; अतः आओ कवच ग्रहण करो। राम! जो ब्रह्माण्ड में परम अद्भुत तथा विजयप्रद है, श्रीकृष्ण के उस ‘त्रैलोक्यविजय’ नामक कवच का वर्णन करता हूँ, सुनो।

पूर्वकाल में श्रीकृष्ण ने गोलोक में स्थित वृन्दावन नामक वन में राधिकाश्रम में रासमण्डल के मध्य यह कवच मुझे दिया था। यह अत्यन्त गोपनीय तत्त्व, सम्पूर्ण मन्त्रसमुदाय का विग्रहस्वरूप, पुण्य से भी बढ़कर पुण्यतर परमोत्कृष्ट है और इसे स्नेहवश मैं तुम्हें बता रहा हूँ। जिसे पढ़कर एवं धारण करके मूलप्रकृति भगवती आद्याशक्ति ने शुम्भ, निशुम्भ, महिषासुर और रक्तबीज का वध किया था। जिसे धारण करके मैं लोकों का संहारक और सम्पूर्ण तत्त्वों का जानकार हुआ हूँ तथा पूर्वकाल में जो दुरन्त और अवध्य थे, उन त्रिपुरों को खेल-ही-खेल में दग्ध कर सका हूँ।

जिसे पढ़कर और धारण करके ब्रह्मा ने इस उत्तम सृष्टि की रचना की है। जिसे धारण करके भगवान शेष सारे विश्व को धारण करते हैं। जिसे धारण करके कूर्मराज शेष को लीलापूर्वक धारण किये रहते हैं। जिसे धारण करके स्वयं सर्वव्यापक भगवान वायु विश्व के आधार हैं। जिसे धारण करके वरुण सिद्ध और कुबेर धन के स्वामी हुए हैं। जिसे पढ़कर एवं धारण करके स्वयं इन्द्र देवताओं के राजा बने हैं।

जिसे धारण करके तेजोराशि स्वयं सूर्य भुवन में प्रकाशित होते हैं। जिसे पढ़कर एवं धारण करके चन्द्रमा महान बल और पराक्रम से सम्पन्न हुए हैं। जिसे पढ़कर एवं धारण करके महर्षि अगस्त्य सातों समुद्रों को पी गये और उसके तेज से वातापि नामक दैत्य को पचा गये। जिसे पढ़कर एवं धारण करके पृथ्वी देवी सबको धारण करने में समर्थ हुई हैं। जिसे पढ़कर एवं धारण करके गंगा स्वयं पवित्र होकर भुवनों को पावन करने वाली बनी हैं।

जिसे धारण करके धर्मात्माओं में श्रेष्ठ धर्म लोकों के साक्षी बने हैं। जिसे धारण करके सरस्वती देवी सम्पूर्ण विद्याओं की अधिष्ठात्री देवी हुई हैं। जिसे धारण करके परात्परा लक्ष्मी लोकों को अन्न प्रदान करने वाली हुई हैं। जिसे पढ़कर एवं धारण करके सावित्री ने वेदों को जन्म दिया है।

भृगुनन्दन! जिसे पढ़ एवं धारणकर वेद धर्म के वक्ता हुए हैं। जिसे पढ़कर एवं धारण करके अग्नि शुद्ध एवं तेजस्वी हुए हैं और जिसे धारण करके भगवान सनत्कुमार को ज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ स्थान मिला है। जो महात्मा, साधु एवं श्रीकृष्ण भक्त हो, उसी को यह कवच देना चाहिये; क्योंकि शठ एवं दूसरे के शिष्य को देने से दाता मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।

त्रैलोक्यविजय श्रीकृष्ण कवच

त्रैलोक्य विजय श्रीकृष्ण कवच

त्रैलोक्यविजयस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः।

ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवो रासेश्वरः स्वयम् ।

त्रैलोक्यविजयप्राप्तौ विनियोगः प्रकीर्तितः।।

इस त्रैलोक्यविजय कवच के प्रजापति ऋषि हैं। गायत्री छन्द है। स्वयं रासेश्वर देवता हैं और त्रैलोक्य की विजय प्राप्ति में इसका विनियोग कहा गया है।

परात्परं च कवचं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ।

प्रणवो मे शिरः पातु श्रीकृष्णाय नमः सदा।।

यह परात्पर कवच तीनों लोकों में दुर्लभ है। ‘ऊँ श्रीकृष्णाय नमः’ सदा मेरे सिर की रक्षा करे।

सदा पायात् कपालं कृष्णाय स्वाहेति पञ्चाक्षरः।

कृष्णेति पातु नेत्रे च कृष्णस्वाहेति तारकम्।।

‘कृष्णाय स्वाहा’ यह पञ्चाक्षर सदा कपाल को सुरक्षित रखे। ‘कृष्ण’ नेत्रों की तथा ‘कृष्णाय स्वाहा’ पुतलियों की रक्षा करे।

हरये नम इत्येवं भ्रूलतां पातु मे सदा ।

ऊँ गोविन्दाय स्वाहेति नासिकां पातु संततम् ।।

‘हरये नमः’ सदा मेरी भृकुटियों को बचावे। ‘ऊँ गोविन्दाय स्वाहा’ मेरी नासिका की सदा रक्षा करे।

गोपालाय नमो गण्डौ पातु मे सर्वतः सदा ।

ऊँ नमो गोपाङ्गनेशाय कर्णौ पातु सदा मम ।।

‘गोपालाय नमः’ मेरे गण्डस्थलों की सदा सब ओर से रक्षा करे। ‘ऊँ गोपाङ्गनेशाय नमः’ सदा मेरे कानों की रक्षा करे।

ऊँ कृष्णाय नमः शश्वत् पातु मेऽधरयुग्मकम् ।

ऊँ गोविन्दाय स्वाहेति दन्तावलिं मे सदावतु ।।

‘ऊँ कृष्णाय नमः’ निरन्तर मेरे दोनों ओठों की रक्षा करे। ‘ऊँ गोविन्दाय स्वाहा’ सदा मेरी दंतपंक्तियों की रक्षा करे।

ऊँ कृष्णाय दन्तरन्ध्रं दन्तोर्ध्वं क्लीं सदावतु ।

ऊँ श्रीकृष्णाय स्वाहेति जिह्विकां पातु सदा मम ।।

‘ऊँ कृष्णाय नमः’ दाँतों के छिद्रों की तथा ‘क्लीं’ दाँतों के ऊर्ध्वभाग की रक्षा करे। ‘ऊँ श्रीकृष्णाय स्वाहा’ सदा मेरी जिह्वा की रक्षा करे।

रासेश्वराय स्वाहेति तालुकं पातु मे सदा ।

राधिकेशाय स्वाहेति कण्ठं पातु सदा मम।।

‘रासेश्वराय स्वाहा’ सदा मेरे तालु की रक्षा करे। ‘राधिकेशाय स्वाहा’ सदा मेरे कण्ठ की रक्षा करे।

नमो गोपाङ्गनेशाय वक्षः पातु सदा मम ।

ऊँ गोपेशाय स्वाहेति स्कन्धं पातु सदा मम ।।

‘गोपाङ्गनेशाय नमः’ सदा मेरे वक्षःस्थल की रक्षा करे।‘ऊँ गोपेशाय स्वाहा’ सदा मेरे कंधों की रक्षा करे।

नमः किशोरवेशाय स्वाहा पृष्ठं सदावतु ।

उदरं पातु मे नित्यं मुकुन्दाय नमः सदा ।।

ऊँ ह्रीं क्लीं कृष्णाय स्वाहेति करौ पादौ सदा मम।

ऊँ विष्णवे नमो बाहुयुग्मं पातु सदा मम।।

‘नमः किशोरवेशाय स्वाहा’ सदा पृष्ठभाग की रक्षा करे। ‘मुकुन्दाय नमः’ सदा मेरे उदर की तथा ‘ऊँ ह्रीं क्लीं कृष्णाय स्वाहा’ सदा मेरे हाथ-पैरों की रक्षा करे। ‘ऊँ विष्णवे नमः’ सदा मेरी दोनों भुजाओं की रक्षा करे।

ऊँ ह्रीं भगवते स्वाहा नखरं पातु मे सदा ।

ऊँ नमो नारायणायेति नखरन्ध्रं सदावतु ।।

‘ऊँ ह्रीं भगवते स्वाहा’ सदा मेरे नखों की रक्षा करे। ‘ऊँ नमो नारायणाय’ सदा नख-छिद्रों की रक्षा करे।

ऊँ ह्रीं ह्रीं पद्मनाभाय नाभिं पातु सदा मम।

ऊँ सर्वेशाय स्वाहेति कङ्कालं पातु मे सदा।।

‘ऊँ ह्रीं ह्रीं पद्मनाभाय नमः’ सदा मेरी नाभि की रक्षा करे। ‘ऊँ सर्वेशाय स्वाहा’ सदा मेरे कंकाल की रक्षा करे।

ऊँ गोपीरमणाय स्वाहा नितम्बं पातु मे सदा ।

ऊँ गोपीरमनाथाय पादौ पातु सदा मम ।।

‘ऊँ गोपीरमणाय स्वाहा’ सदा मेरे नितम्ब की रक्षा करे। ‘ऊँ गोपीरमणनाथाय स्वाहा’ सदा मेरे पैरों की रक्षा करे।

ऊँ ह्रीं श्रीं रसिकेशाय स्वाहा सर्वं सदावतु ।

ऊँ केशवाय स्वाहेति मम केशान् सदावतु ।।

‘ऊँ ह्रीं श्रीं रसिकेशाय स्वाहा’ सदा मेरे सर्वांगों की रक्षा करे। ‘ऊँ केशवाय स्वाहा’ सदा मेरे केशों की रक्षा करे।

नमः कृष्णाय स्वाहेति ब्रह्मरन्ध्रं सदावतु ।

ऊँ माधवाय स्वाहेति लोमानि मे सदावतु ।।

ऊँ ह्रीं श्रीं रसिकेशाय स्वाहा सर्वं सदावतु।।

‘नमः कृष्णाय स्वाहा’ सदा मेरे ब्रह्मरन्ध्र की रक्षा करे। ‘ऊँ माधवाय स्वाहा’ सदा मेरे रोमों की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं रसिकेशाय स्वाहा’ मेरे सर्वस्व की सदा रक्षा करे।

परिपूर्णतमः कृष्णः प्राच्यां मां सर्वदावतु ।

स्वयं गोलोकनाथो मामाग्नेय्यां दिशि रक्षतु ।।

परिपूर्णतम श्रीकृष्ण पूर्व दिशा में सर्वदा मेरी रक्षा करें। स्वयं गोलोकनाथ अग्निकोण में मेरी रक्षा करें।

पूर्णब्रह्मस्वरूपश्च दक्षिणे मां सदावतु ।

नैर्ऋत्यां पातु मां कृष्णः पश्चिमे पातु मां हरिः।।

पूर्ण ब्रह्मस्वरूप दक्षिण दिशा में सदा मेरी रक्षा करें। श्रीकृष्ण नैर्ऋत्यकोण में मेरी रक्षा करें। श्रीहरि पश्चिम दिशा में मेरी रक्षा करें।

गोविन्दः पातु मां शश्वद् वायव्यां दिशि नित्यशः।

उत्तरे मां सदा पातु रसिकानां शिरोमणिः।।

गोविन्द वायव्यकोण में नित्य-निरन्तर मेरी रक्षा करें। रसिक शिरोमणि उत्तर दिशा में सदा मेरी रक्षा करें।

ऐशान्यां मां सदा पातु वृन्दावनविहारकृत् ।

वृन्दावनीप्राणनाथः पातु मामूर्ध्वदेशतः।।

वृन्दावन विहारकृत सदा ईशानकोण में मेरी रक्षा करें। वृन्दावनी के प्राणनाथ ऊर्ध्वभाग में मेरी रक्षा करें।

सदैव माधवः पातु बलिहारी महाबलः।

जले स्थले चान्तरिक्षे नृसिंहः पातु मां सदा ।।

महाबली बलिहारी माधव सदैव मेरी रक्षा करें। नृसिंह जल, स्थल तथा अन्तरिक्ष में सदा मुझे सुरक्षित रखें।

स्वप्ने जागरणे शश्वत् पातु मां माधवः सदा ।

सर्वान्तरात्मा निर्लिप्तो रक्ष मां सर्वतो विभुः।।

माधव सोते समय तथा जाग्रत-काल में सदा मेरा पालन करें तथा जो सबके आन्तरात्मा, निर्लेप और सर्वव्यापक हैं, वे भगवान सब ओर से मेरी रक्षा करें।
त्रैलोक्यविजय श्रीकृष्ण कवच फलश्रुति

इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।

त्रैलोक्यविजयं नाम कवचं परमाद्भुतम् ।।

वत्स! इस प्रकार मैंने ‘त्रैलोक्यविजय’ नामक कवच, जो परम अनोखा तथा समस्त मन्त्रसमुदाय का मूर्तमान् स्वरूप है, तुम्हें बतला दिया।

मया श्रुतं कृष्णवक्त्रात् प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ।

गुरुमभ्यर्च्य विधिवत् कवचं धारयेत् तु यः।।

कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ सोऽपि विष्णुर्न संशयः।

स च भक्तो वसेद् यत्र लक्ष्मीर्वाणी वसेत्ततः।।

मैंने इसे श्रीकृष्ण के मुख से श्रवण किया था। इसे जिस-किसी को नहीं बतलाना चाहिये। जो विधिपूर्वक गुरु का पूजन करके इस कवच को गले में अथवा दाहिनी भुजा पर धारण करता है, वह भी विष्णुतुल्य हो जाता है; इसमें संशय नहीं है। वह भक्त जहाँ रहता है, वहाँ लक्ष्मी और सरस्वती निवास करती हैं।

यदि स्यात् सिद्धकवचो जीवन्मुक्तो भवेत्तु सः।

निश्चितं कोटिवर्षाणां पूजायाः फलमाप्नुयात् ।।

यदि उसे कवच सिद्ध हो जाता है तो वह जीवन्मुक्त हो जाता है और उसे करोड़ों वर्षों की पूजा का फल प्राप्त हो जाता है।

राजसूयसहस्राणि वाजपेयशतानि च ।

अश्वमेधायुतान्येव नरमेधायुतानि च ।।

महादानानि यान्येव प्रादक्षिण्यं भुवस्तथा ।

त्रैलोक्यविजयस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।

हजारों राजसूय, सैकड़ो वाजपेय, दस हजार अश्वमेध, सम्पूर्ण महादान तथा पृथ्वी की प्रदक्षिणा– ये सभी इस त्रैलोक्यविजय की सोलहवीं कला की भी समानता नहीं कर सकते।

व्रतोपवासनियमं स्वाध्यायाध्ययनं तपः।

स्नानं च सर्वतीर्थेषु नास्यार्हन्ति कलामपि।।

व्रत-उपवास का नियम, स्वाध्याय, अध्ययन, तपस्या और समस्त तीर्थों में स्नान– ये सभी इसकी एक कला को भी नहीं पा सकते।

सिद्धित्वममरत्वं च दास्यत्वं श्रीहरेरपि ।

यदि स्यात् सिद्धकवचः सर्वं प्राप्नोति निश्चितम् ।।

यदि मनुष्य इस कवच को सिद्ध कर ले तो निश्चय ही उसे सिद्धि, अमरता और श्रीहरि की दासता आदि सब कुछ मिल जाता है।

स भवेत् सिद्धकवचो दशलक्षं जपेत्तु यः।

यो भवेत् सिद्धकवचः सर्वज्ञः स भवेद् ध्रुवम् ।।

जो इसका दस लाख जप करता है, उसे यह कवच सिद्ध हो जाता है और जो सिद्ध कवच होता है, वह निश्चय ही सर्वज्ञ हो जाता है।

इदं कवचमज्ञात्वा भजेत् कृष्णं सुमन्दधीः।

कोटिकल्पप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः।।

परंतु जो इस कवच को जाने बिना श्रीकृष्ण का भजन करता है, उसकी बुद्धि अत्यन्त मन्द है; उसे करोड़ों कल्पों तक जप करने पर भी मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता।

गृहीत्वा कवचं वत्स महीं निःक्षत्रियां कुरु ।

त्रिःसप्तकृत्वो निःशङ्कः सदानन्दोऽवलीलया ।।

वत्स! इस कवच को धारण करके तुम आनन्दपूर्वक निःशंक होकर अनायास ही इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से शून्य कर डालो।

राज्यं देयं शिरो देयं प्राणा देयाश्च पुत्रक ।

एवंभूतं च कवचं न देयं प्राणसंकटे ।।

बेटा! प्राणसंकट के समय राज्य दिया जा सकता है, सिर कटाया जा सकता है और प्राणों का परित्याग भी किया जा सकता है; परंतु ऐसे कवच का दान नहीं करना चाहिये।

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे परशुरामाय श्रीकृष्णकवचप्रदानं नामैकत्रिंशत्तमोऽध्यायः।।३१।।

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