तुलसी-शालिग्राम पौराणिक कथा, श्री तुलसी चालीसा व आरती || Tulasi Shaligram Katha Tulasi Chalisa Aarati
तुलसी-शालिग्राम की पौराणिक कथा, श्री तुलसी चालीसा व तुलसी माता की आरती का पाठ बहुत ही मंगलमयी और चमत्कारी है। तुलसी पूजन के समय तुलसीजी की स्तोत्र,नाम स्तोत्र तुलसी-शालिग्राम की पौराणिक कथा श्री तुलसी चालीसा व तुलसी माता की आरती का पाठ अवश्य ही करें ।
|| तुलसी-शालिग्राम पौराणिक कथा, श्री तुलसी चालीसा व आरती ||
तुलसी-शालिग्राम की पौराणिक कथा
तुलसी (पौधा) की उत्पत्ति कैसे व क्यों हुई इसका एक दृष्टांत पौराणिक कथा में आता है।
पौराणिक कथानुसार एक बार दैत्यराज जालंधर के साथ भगवान विष्णु को युद्ध करना पड़ा। काफी दिन तक चले संघर्ष में भगवान के सभी प्रयासों के बाद भी जालंधर परास्त नहीं हुआ। अपनी इस विफलता पर श्री हरि ने विचार किया कि यह दैत्य आखिर मारा क्यों नहीं जा रहा है। तब पता चला की दैत्यराज की रूपवती पत्नी वृंदा का तप-बल ही उसकी मृत्यु में अवरोधक बना हुआ है। जब तक उसके तप-बल का क्षय नहीं होगा तब तक राक्षस को परास्त नहीं किया जा सकता। इस कारण भगवान ने जालंधर का रूप धारण किया व तपस्विनी वृंदा की तपस्या के साथ ही उसके सतीत्व को भी भंग कर दिया। इस कार्य में प्रभु ने छल व कपट दोनों का प्रयोग किया। इसके बाद हुए युद्ध में उन्होंने जालंधर का वध कर युद्ध में विजय पाई। पर जब वृंदा को भगवान के छलपूर्वक अपने तप व सतीत्व को समाप्त करने का पता चला तो वह अत्यंत क्रोधित हुई व श्रीहरि को श्राप दिया कि तुम पत्थर के हो जाओ। इस श्राप को प्रभु ने स्वीकार किया पर साथ ही उनके मन में वृंदा के प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया। तब उन्होंने उससे कहा कि वृंदा तुम वृक्ष बन कर मुझे छाया प्रदान करना। वही वृंदा तुलसी रूप में पृथ्वी पर उत्पन्न हुई व भगवान शालिग्राम बने। इस प्रकार कार्तिक शुक्ल एकादशी को तुलसी-शालिग्राम का प्रादुर्भाव हुआ। देवउठनी से छह महीने तक देवताओं का दिन प्रारंभ हो जाता है। अतः तुलसी का भगवान श्री हरि विष्णु शालीग्राम स्वरूप के साथ प्रतीकात्मक विवाह कर श्रद्धालु उन्हें वैकुंठ को विदा करते हैं।
तुलसी-शालिग्राम पौराणिक कथा, श्री तुलसी चालीसा व आरती
।। श्री तुलसी चालीसा ।।
।। दोहा ।।
जय जय तुलसी भगवती सत्यवती सुखदानी।
नमो नमो हरी प्रेयसी श्री वृंदा गुन खानी।।
श्री हरी शीश बिरजिनी , देहु अमर वर अम्ब।
जनहित हे वृन्दावनी अब न करहु विलम्ब ।।
।। चौपाई ।।
धन्य धन्य श्री तलसी माता । महिमा अगम सदा श्रुति गाता ।।
हरी के प्राणहु से तुम प्यारी । हरीहीं हेतु कीन्हो ताप भारी।।
जब प्रसन्न है दर्शन दीन्ह्यो । तब कर जोरी विनय उस कीन्ह्यो ।।
हे भगवंत कंत मम होहू । दीन जानी जनि छाडाहू छोहु ।।
सुनी लख्मी तुलसी की बानी । दीन्हो श्राप कध पर आनी ।।
उस अयोग्य वर मांगन हारी । होहू विटप तुम जड़ तनु धारी ।।
सुनी तुलसी हीं श्रप्यो तेहिं ठामा । करहु वास तुहू नीचन धामा ।।
दियो वचन हरी तब तत्काला । सुनहु सुमुखी जनि होहू बिहाला।।
समय पाई व्हौ रौ पाती तोरा । पुजिहौ आस वचन सत मोरा ।।
तब गोकुल मह गोप सुदामा । तासु भई तुलसी तू बामा ।।
कृष्ण रास लीला के माही । राधे शक्यो प्रेम लखी नाही ।।
दियो श्राप तुलसिह तत्काला । नर लोकही तुम जन्महु बाला ।।
यो गोप वह दानव राजा । शंख चुड नामक शिर ताजा ।।
तुलसी भई तासु की नारी । परम सती गुण रूप अगारी ।।
अस द्वै कल्प बीत जब गयऊ । कल्प तृतीय जन्म तब भयऊ।।
वृंदा नाम भयो तुलसी को । असुर जलंधर नाम पति को ।।
करि अति द्वन्द अतुल बलधामा । लीन्हा शंकर से संग्राम ।।
जब निज सैन्य सहित शिव हारे । मरही न तब हर हरिही पुकारे ।।
पतिव्रता वृंदा थी नारी । कोऊ न सके पतिहि संहारी ।।
तब जलंधर ही भेष बनाई । वृंदा ढिग हरी पहुच्यो जाई ।।
शिव हित लही करि कपट प्रसंगा । कियो सतीत्व धर्म तोही भंगा ।।
भयो जलंधर कर संहारा। सुनी उर शोक उपारा ।।
तिही क्षण दियो कपट हरी टारी । लखी वृंदा दुःख गिरा उचारी ।।
जलंधर जस हत्यो अभीता । सोई रावन तस हरिही सीता ।।
अस प्रस्तर सम ह्रदय तुम्हारा । धर्म खंडी मम पतिहि संहारा ।।
यही कारण लही श्राप हमारा । होवे तनु पाषाण तुम्हारा।।
सुनी हरी तुरतहि वचन उचारे । दियो श्राप बिना विचारे ।।
लख्यो न निज करतूती पति को । छलन चह्यो जब पारवती को ।।
जड़मति तुहु अस हो जड़रूपा । जग मह तुलसी विटप अनूपा ।।
धग्व रूप हम शालिगरामा । नदी गण्डकी बीच ललामा ।।
जो तुलसी दल हमही चढ़ इहैं । सब सुख भोगी परम पद पईहै ।।
बिनु तुलसी हरी जलत शरीरा । अतिशय उठत शीश उर पीरा ।।
जो तुलसी दल हरी शिर धारत । सो सहस्त्र घट अमृत डारत ।।
तुलसी हरी मन रंजनी हारी। रोग दोष दुःख भंजनी हारी ।।
प्रेम सहित हरी भजन निरंतर । तुलसी राधा में नाही अंतर ।।
व्यंजन हो छप्पनहु प्रकारा । बिनु तुलसी दल न हरीहि प्यारा ।।
सकल तीर्थ तुलसी तरु छाही । लहत मुक्ति जन संशय नाही ।।
कवि सुन्दर इक हरी गुण गावत । तुलसिहि निकट सहसगुण पावत ।।
बसत निकट दुर्बासा धामा । जो प्रयास ते पूर्व ललामा ।।
पाठ करहि जो नित नर नारी । होही सुख भाषहि त्रिपुरारी ।।
।। दोहा ।।
तुलसी चालीसा पढ़ही तुलसी तरु ग्रह धारी ।
दीपदान करि पुत्र फल पावही बंध्यहु नारी ।।
सकल दुःख दरिद्र हरी हार ह्वै परम प्रसन्न ।
आशिय धन जन लड़हि ग्रह बसही पूर्णा अत्र ।।
लाही अभिमत फल जगत मह लाही पूर्ण सब काम।
जेई दल अर्पही तुलसी तंह सहस बसही हरीराम ।।
तुलसी महिमा नाम लख तुलसी सूत सुखराम।
मानस चालीस रच्यो जग महं तुलसीदास ।।
तुलसी-शालिग्राम पौराणिक कथा, श्री तुलसी चालीसा व आरती
||तुलसी माता की आरती ||
जय जय तुलसी माता
सब जग की सुख दाता, वर दाता
जय जय तुलसी माता ।।
सब योगों के ऊपर, सब रोगों के ऊपर
रुज से रक्षा करके भव त्राता
जय जय तुलसी माता।।
बटु पुत्री हे श्यामा, सुर बल्ली हे ग्राम्या
विष्णु प्रिये जो तुमको सेवे, सो नर तर जाता
जय जय तुलसी माता ।।
हरि के शीश विराजत, त्रिभुवन से हो वन्दित
पतित जनो की तारिणी विख्याता
जय जय तुलसी माता ।।
लेकर जन्म विजन में, आई दिव्य भवन में
मानवलोक तुम्ही से सुख संपति पाता
जय जय तुलसी माता ।।
हरि को तुम अति प्यारी, श्यामवरण तुम्हारी
प्रेम अजब हैं उनका तुमसे कैसा नाता
जय जय तुलसी माता ।।
तुलसी-शालिग्राम पौराणिक कथा, श्री तुलसी चालीसा व आरती समाप्त।