धूप की चादर – दुष्यंत कुमार
कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए, कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए। जले जो रेत...
कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए, कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए। जले जो रेत...
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये, कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये। यहाँ दरख़्तों के...
मत कहो आकाश में कोहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है। सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,...
जा तेरे स्वप्न बड़े हों। भावना की गोद से उतर कर जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें। चाँद तारों सी अप्राप्य...
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चहिए‚ इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये। आज यह दीवार‚ परदों की...