जीवन के रेतीले तट पर – अजित शुकदेव
जीवन के रेतीले तट पर‚
मैं आँधी तूफा.न लिये हूँ।
अंतर में गुमनाम पीर है
गहरे तम से भी है गहरी
अपनी आह कहूँ तो किससे
कौन सुने‚ जग निष्ठुर प्रहरी
पी–पीकर भी आग अपरिमित
मैं अपनी मुस्कान लिये हूँ।
आज और कल करते करते
मेरे गीत रहे अनगाये
जब तक अपनी माला गूँथूँ
तब तक सभी फूल मुरझाये
तेरी पूजा की थाली में‚
मैं जलते अरमान लिये हूँ।
चलते–चलते सांझ हो गई।
रही वही मंजिल की दूरी
मृग–तृष्णा भी बांध न पायी
लखन–रेख‚ अपनी मजबूरी
बिछुड़न के सरगम पर झंकृत‚
अमर मिलन के गान लिये हूँ।
पग पग पर पत्थर औ’ कांटे
मेरे पग छलनी कर जाएं
भ्रांत–क्लांत करने को आतुर
क्षण–क्षण इस जग की बाधाएं
तुहिन तुषारी प्रलय काल में
संसृति का सोपान लिये हूं।