डर लगता है! – कुमार विश्वास
हर पल के गुंजन की स्वर–लय–ताल तुम्हीं थे,
इतना अधिक मौन धारे हो, डर लगता है!
तुम, कि नवल–गति अंतर के उल्लास–नृत्य थे,
इतना अधिक हृदय मारे हो, डर लगता है!
तुमको छू कर दसों दिशाएं सूरज को लेने जाती थीं,
और तुम्हारी प्रतिश्रुतियों पर बांसुरियाँ विहाग गाती थीं
तुम, कि हिमालय जैसे, अचल रहे जीवन भर,
अब इतने पारे–पारे हो, डर लगता है!
तुम तक आकर दृष्टि–दृष्टि की प्रश्नमयी जड़ता घटती थी,
तुम्हें पूछ कर महासृष्टि की हर बैकुंठ कृपा बँटती थी
तुम, कि विजय के एक मात्र पर्याय–पुरुष थे,
आज स्वयँ से ही हारे हो, डर लगता है!