निष्क्रियता – राजीव कृष्ण सक्सेना

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कहां तो सत्य की जय का ध्वजारोहण किया था‚
कहां अन्याय से नित जूझने का प्रण लिया था‚
बुराई को मिटाने के अदम उत्साह को ले‚
तिमिर को दूर करने का तुमुल घोषण किया था।

बंधी इन मुठ्ठियों में क्यों शिथिलता आ रही है?
ये क्यों अब हाथ से तलवार फिसली जा रही है?
निकल तरकश से रिपुदल पर बरसने को तो शर थे‚
भुजा जो धनुषधारी थी‚ मगर पथरा रही है।

जो बज उत्साह से रण–भेरियां नभ को गुंजातीं‚
नया संकल्प रण का नित्य थीं हमको सुनातीं‚
सिमट कर गर्भ में तम के अचानक खो गई हैं‚
समय की धुंध में जा कर कहीं पर सो गई हैं।

ये कैसी गहन कोहरे सी उदासी छा गई है?
उमंगों की तरंगों पर कहर सा ढा रहा है;
ये पहले से कदम क्योंकर नहीं उठते हमारे?
ये कैसा बाजुओं में जंग लगता जा रहा है?

जो जागृत पल थे आशा के‚ वे ओझल हो गए हैं‚
कहां सब इंद्रधनुषी रंग जा कर खो गए हैं?
लिये संकल्प निष्ठा से कभी करबद्ध हो जो‚
वे निष्क्रियता की चादर ओढ़ कर क्यों सो गए हैं?

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