प्राण तुम्हारी पदरज फूली – सच्‍चिदानन्‍द हीरानन्‍द वात्‍स्‍यायन ‘अज्ञेय’

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प्राण तुम्हारी पदरज फूली
मुझको कंचन हुई तुम्हारे चंचल चरणों की यह
धूली!

आईं थीं तो जाना भी था–
फिर भी आओगी‚ दुख किसका?
एक बार जब दृष्टिकरों से पदचिन्हों की रेखा
छू ली!

वाक्य अर्थ का हो प्रत्याशी‚
गीत शब्द का कब अभिलाषी?
अंतर में पराग सी छाई है स्मृतियों की आशा
धूली!
प्राण तुम्हारी पदरज फूली!

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