मन पाखी टेरा रे – वीरबाला भावसार
रुक रुक चले बयार, कि झुक झुक जाए बादल छाँह
कोई मन सावन घेरा रे, कोई मन सावन घेरा रे
ये बगुलों की पांत उडी मन के गोले आकाश
कोई मन पाखी टेरा रे
कोई मन पाखी टेरा रे
कौंध कौंध कर चली बिजुरिया, बदल को समझने
बीच डगर मत छेड़ लगी है, पूर्व हाय लजाने
सहमे सकुचे पांव, कि नयनों पर पलकों की छाँव
किसने मुद कर हेरा रे
कोई मन पाखी टेरा रे
झूम झूम झुक जाए चंपा, फूल फूल उतराये
गदराई केलों की कलियाँ, सावन शोर मचाये
रिम झिम बरसे प्यार की पल पल उमगे मेघ मल्हार
मधुर रास सारा तेरा रे
कोई मन पाखी टेरा रे
पात पात लहराए बगिया, उमग उमग बौराये
सौंधी सौंधी गंध धरा की, कन कन महकी जाये
बहकी बहकी सांस, कि अँखियों भर भर दिये उजास
मन कहाँ बसेरा रे
कोई मन पाखी टेरा रे
रूठ रूठ खुल जाये पयलिया, छुम छुम चली मनाने
सूने सूने पांव महावर, दुल्हिन चली रचाने
किसके मन की बात, की सकुचे किसका कोमल गात
कहाँ पर हुआ सवेरा रे
कोई मन पाखी टेरा रे
कोई मन पाखी टेरा रे