Rupa Bai Furdoonji Autobiography | रूपाबाई फरदुनजी का जीवन परिचय : दुनिया की पहली एनेस्थेटिस्ट
शांत स्वभाव, पतली सी रूपा को देखकर शायद ही किसी को पता चलता होगा कि वह डॉक्टरी की मेधावी विद्यार्थी बनेगी। मौसम जैसा भी हो, हर रोज़ सबसे पहले वह मेडिकल कॉलेज में अपनी क्लास में आ जाती और क्लास ख़त्म हो जाने के बाद देर शाम तक डूबी रहती हैहज़ारों किताबों के बीच कॉलेज की लाइब्रेरी में, अकेली। पढ़ाई के सिवा कॉलेज में रूपा का न कोई दोस्त बना न ही किसी छात्र या अध्यापक को कुछ भी पता चला उसकी निजी ज़िंदगी के बारे में पर ऐसी ही थी रूपाबाई फरदुनजी दुनिया से अलग-थलग, अपनी किताबों की दुनिया में मगन।
उन्नीसवीं सदी का हैदराबाद राज्य। इस राज्य में निज़ाम यानी नबाब होते थे, वे शिक्षा और शिल्पकला के कद्रदान भी होते। इसी परंपरा को कायम रखते हुए साल 1846 में निज़ाम अफ़ज़ल उद दौला आसफ जाह (पंचम) ने राजधानी हैदराबाद शहर में एक मेडिकल स्कूल की स्थापना की जहां पुरुष छात्र चार साल आधुनिक चिकित्सा पढ़ सकते थे पर राज्य की सरकारी भाषा उर्दू होने के नाते, उन्हें प्रशिक्षण उर्दू में ही लेना होता था जिनके लिए अंग्रेज़ अध्यापकों के लेक्चर्स रोज़ाना उर्दू में अनुवाद कर छात्रों को देते थे दक्ष अनुवादक। पढ़ाई पूरी करने के बाद निज़ाम की इच्छानुसार सफल छात्रों को मिलता थी डॉक्टरी नहीं बल्कि ‘हक़ीम’ नाम की सरकारी डिग्री।
रूपाबाई दुनियाभर के चिकित्सा क्षेत्र में सबसे पहली डॉक्टर बनीं जिन्हें एनेस्थीसिया विशेषज्ञ के रूप में एक अनोखी पहचान मिली।
साल 1885 में हैदराबाद मेडिकल स्कूल के अध्यक्ष बनकर आए प्रख्यात सर्जन अध्यापक एडवर्ड लॉरी। उनकी कोशिशों से तत्कालीन निज़ाम मीर महबूब अली ने उर्दू के बदले इंग्रेज़ी को डॉक्टरी पढ़ने की भाषा के रूप में मान्यता दिया और पहली बार इच्छुक छात्राओं के लिए भी मेडिकल स्कूल का दरवाज़ा हमेशा के लिए खोल दिया। उसी साल यहां पढ़ने आई पहली 5 छात्राओं के बैच में एक थीं रूपाबाई फरदुनजी। एडवर्ड लॉरी एक प्रख्यात सर्जन और अध्यापक होने के साथ साथ एक प्रमुख चिकित्सा विज्ञानी भी थे जो ऑपरेशन के पहले बेहोश करने के लिए मरीजों पर इस्तेमाल होनेवाली क्लोरोफॉर्म और अफ़ीम जैसी चेतनानाशक और दर्दनिवारक दवाइयों के सुरक्षित इस्तेमाल और मरीज़ के स्वास्थ पर उनके प्रभावों पर लंबे समय से रिसर्च कर रहे थे। साल 1880 के दशक में भी एनेस्थेसिया के लिए कोई अलग शाखा चिकित्सा विज्ञान में नहीं बनी थी। ऑपरेशन के पहले सर्जन ही मरीजों को क्लोरोफॉर्म देते थे और ऑपरेशन के दौरान उनके ब्लडप्रेशर, हार्टबिट और बाकी शारीरिक पैरामीटर्स की देखरेख करते थे।
मेडिकल कालेज में पढ़ने के दौरान ही अपनी लगन की वजह से रूपा अध्यापक लॉरी की एक प्रिय शिष्या बन गई थीं। लॉरी द्वारा की जाती हर सर्जरी में रूपा को मरीज़ों को क्लोरोफार्म देकर बेहोश करना और उनके देखभाल की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी मिलती थी। इस अनुभव ने रूपा को धीरे-धीरे एक हुनहार एनेस्थेटिस्ट में तब्दील कर दिया और वह इस क्षेत्र की उन्नति के काम में जुट गईं। क्लोरोफॉर्म के सुरक्षित इस्तेमाल और चेतनानाशक दवाइयों पर विशाल पैमाने पर शोध और आलोचना करने के लिए साल 1888 और 1889 में निज़ाम मीर मेहबूब अली की आर्थिक मदद से डॉक्टर लॉरी ने हैदराबाद में ही पहले और दूसरे अंतरराष्ट्रीय क्लोरोफॉर्म कमिशन का आह्वान किया। इन दोनों सम्मेलनों में ही रूपाबाई ने सक्रिय रूप से भाग लेकर क्लोरोफॉर्म संबंधी अपनी पत्रों को पढ़ा। साल 1891 में डॉक्टर लॉरी ने उन कमिशनों के बारे में लिखे अपने प्रतिवेदन में एक सफल एनेस्थेटिस्ट के रूप में उभर रहीं रूपाबाई फरदुनजी की ज्ञान और दक्षता की काफी सराहना भी की थी।
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साल 1889 में रूपाबाई अपनी हक़ीम की डिग्री हासिल कर के निज़ाम के सरकारी चिकित्सा विभाग में शामिल हो गईं और 1909 तक हैदराबाद के अफ़ज़लगंज, सुल्तान बाज़ार और जनाना अस्पतालों में डॉक्टर और विशेषज्ञ एनेस्थेटिस्ट की हैसियत से काम करती रहीं। ऐसे दुनियाभर की चिकित्सा क्षेत्र में वह सबसे पहली डॉक्टर बनीं जिन्हें एनेस्थीसिया विशेषज्ञ के रूप में एक अनोखी पहचान मिली। समय के साथ अपने पसंदीदा क्षेत्र के बारे में आगे और गहराई से जानने के लिए रूपाबाई उत्सुक हो रही थीं। उनको लगा, पश्चिमी विश्व की अव्वल दर्जे के मेडिकल स्कूल स्कॉटलैंड के एडिनबर्ग कॉलेज में पढ़कर एनेस्थेसिया विषय में वह आधुनिकतम हर पहलू को जान सकतीं है और उन्होंने वहां दाखिला भी ले लिया।
रूपाबाई एक ऐसे समय में डॉक्टर और विश्व की सबसे पहली एनेस्थेटिस्ट बनीं; जब दुनियाभर में महिला चिकित्सकों की संख्या ना सिर्फ गिनी-चुनी थी पर कहीं पर एक भी एनेस्थीसिया पर विशेषज्ञ डॉक्टर का अस्तित्व नहीं था।
साल 1909 में बड़ी आशा लिए रूपाबाई एडिनबर्ग के लिए निकलीं। जाते समय जहाज़ में उनकी मुलाकात हुई प्रसिद्ध ब्रिटिश दार्शनिक और समाजसेवी एनी बेसेंट से। इस युवा महिला एनेस्थेटिस्ट डॉक्टर का जोश और विज्ञान के प्रति समर्पण को देख कर मुग्ध हुईं बेसेंट ने रूपा को एडिनबर्ग में रहने की जगह खोजने में मदद की क्योंकि रूपाबाई ने अपने बारे में एक शब्द भी कभी कहीं लिखा नहीं, तो उनके बारे में बाकी तथ्यों जैसे यह जानकारी भी हमें एनी बेसेंट की निजी चिट्ठियों से मिलती है।
एडिनबर्ग कॉलेज पहुंचकर रूपाबाई को गहरा धक्का लगा क्योंकि जहां भारत में एनेस्थीसिया विज्ञान काफी विकसित हो चुका था, वहीं एडिनबर्ग में इस नाम का कोई अलग डिपार्टमेंट होना तो दूर की बात, मेडिकल सिलेबस में अलग तरीके से इस विषय का अस्तित्व तक नहीं था। लिहाज़ा रूपाबाई को फिजिक्स और केमिस्ट्री में डिप्लोमा डिग्री लेनी पड़ी क्योंकि यह दो विषय एनेस्थेसिया शाखा के साथ गहरे रूप से जुड़े थे। इस के बाद रूपाबाई ने अमरीका जाकर वहां की प्रसिद्ध जॉन हॉपकिंस मेडिकल कॉलेज से भी चिकित्सा विज्ञान की उच्चतर डिग्रियां हासिल की थीं।
रूपाबाई एक सफल एनेस्थेटिस्ट होने के साथ एक बेहतरीन इंसान और समर्पित डॉक्टर भी थीं। इसलिए पढ़ाई पूरा होते ही उन्हें अपनी शहर की औरत और बच्चों पर विदेश से मिले ज्ञान का इस्तेमाल करने के लिए देश वापस आना था। हालांकि रूपाबाई स्कॉटलैंड और अमेरीका में अपनी पढ़ाई के दौरान भी निष्क्रिय नहीं बैठीं और शुरू से ही वहां के अस्पतालों में एनेस्थेटिस्ट की हैसियत से भरपूर काम करती रहीं। अपने काम के प्रति उनमें इतनी शिद्दत थी कि वापस आते वक्त भी, जब उनका जहाज़ एडेन बंदरगाह में कुछ दिनों के लिए रुका तो डॉक्टर रूपाबाई ने वक़्त ज़ाया न करते हुए एडेन सरकारी अस्पताल में अपना सेवाकार्य शुरू कर दिया।
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इस भारतीय एनेस्थेटिस्ट की कुशलता और अच्छाई से एडिनबर्ग के प्रशासक और बाकी डॉक्टर काफी प्रभावित हुए थे। रूपाबाई को पाने के लिए उन्होंने निज़ाम और हैदराबाद मेडिकल स्कूल से कईं दफा चिट्ठी लिखकर अर्ज़ी भी किया पर रूपाबाई को देश छोड़कर कहीं और रहना मंज़ूर नहीं था। शहर वापस आकर रूपाबाई हैदराबाद की चांदघाट सरकारी अस्पताल में बतौर अध्यक्ष साल 1920 में रिटायरमेंट तक काम करती रहीं। रूपाबाई जैसे अपनी शुरुआती जीवन के बारे में बिल्कुल निःशब्द थीं, वैसी ही आखिरी जीवन में भी रहीं। इस वजह से साल 1920 के बाद बीती उनकी ज़िंदगी का कोई तथ्य अब तक शोधकर्ताओं को उपलब्ध नहीं हो सका।
रूपाबाई एक ऐसे समय में डॉक्टर और विश्व की सबसे पहली एनेस्थेटिस्ट बनीं जब दुनियाभर में महिला चिकित्सकों की संख्या ना सिर्फ गिनी-चुनी थी पर कहीं पर एक भी एनेस्थीसिया पर विशेषज्ञ डॉक्टर का अस्तित्व नहीं था। वह जितनी शांत और प्रचार से दूर रहनेवाली शख्स थीं उतनी ही उन में भरपूर थी आत्मविश्वास और हिम्मत। जिनके दम पर उन्होंने उस कठिन वक़्त में एनेस्थीसिया जैसे विषय को अपने शोध का विषय बनाने और उसे ही अपने करियर और ज़िन्दगी में आगे बढ़ने का फैसला लिया। बहुत हद तक उनके दिखाए हुए रास्ते पर चलकर ही साल 1920 के बाद एडिनबर्ग सहित पश्चिम के मेडिकल कॉलेजों ने एनेस्थीसिया को चिकित्सा विज्ञान की एक बेहद ज़रूरी शाखा की रूप में मान्यता दिया। रूपाबाई फरदुनजी अपने जीवनकाल में एक महान डॉक्टर और रिसर्चर रहीं और पूरी दुनिया में एनेस्थीसिया शाखा और चिकित्सा विज्ञान की विकास में उनकी भूमिका हमेशा बेमिसाल और अविस्मरणीय रहेगी।
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