वैदिक दीक्षान्त उपदेश – Vaidik Dikshant Updesh

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वैदिक दीक्षान्त उपदेश यह तैत्तरीय उपनिषद् का हिस्सा है और इसमें आचार्य अपने शिष्य को निम्न उपदेश करते हैं-

वैदिक दीक्षान्त – उपदेश

वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति ।

वेद-विद्या पढ़ा देने के पश्चात् आचार्य शिष्य को उपदेश करता है, दीक्षान्त-भाषण देता हुआ कहता है-

सत्यं वद । धर्मं चर । स्वाध्यायान्मा प्रमदः । आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः । सत्यान्न प्रमदितव्यम् । धर्मान्न प्रमदितव्यम्। कुशलान्न प्रमदितव्यम् । भूत्यै न प्रमदितव्यम् । स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्। देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् ।

तुम सत्य बोलना। धर्माचरण करना । स्वाध्याय से प्रमाद न करना । आचार्य को जो प्रिय हो, उसे दक्षिणा रूप में देकर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना और संतति के सूत्र को न तोड़ना। सत्य बोलने से प्रमाद न करना । धर्मपालन में प्रमाद न करना। जिससे तुम्हारा कल्याण होता हो, उसमें प्रमाद न करना। अपना वैभव बढ़ाने में प्रमाद न करना। स्वाध्याय और प्रवचन द्वारा अपने ज्ञान को बढ़ाते रहना, देवों और पितरों के प्रति तुम्हारा जो कर्तव्य है, उसे सदा ध्यान में रखना ।

मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव । यान्यनवद्यानि कर्माणि । तानि सेवितव्यानि। नो इतराणि । यान्यस्माक सुचरितानि । तानि त्वयोपास्यानि । नो इतराणि ।

माता को, पिता को, आचार्य को और अतिथि को देवस्वरूप मानना, उनके प्रति पूज्य-बुद्धि रखना। हमारे जो कर्म अनिन्दित हैं, उन्हीं का स्मरण रखना, दूसरों का नहीं। जो हमारे सदाचार हैं, उन्हींकी उपासना करना, दूसरों की नहीं ।

ये के चास्मच्छ्रेया सो ब्राह्मणाः । तेषां त्वयाऽऽसनेन प्रश्वसितव्यम् ।

श्रद्धया देयम् । अश्रद्धयादेयम् । श्रिया देयम् । ह्रिया देयम् । भिया देयम् । संविदा देयम् ।

हमसे श्रेष्ठ विद्वान् जहाँ बैठे हों, उनके प्रवचन को ध्यान से सुनना, उनका यथेष्ट आदर करना। दूसरों की जो भी सहायता करना, वह श्रद्धापूर्वक करना, किसी को वस्तु अश्रद्धा से न देना । प्रसन्नता के साथ देना, नम्रतापूर्वक देना, भय से भी देना और प्रेमपूर्वक देना ।

अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सा वा स्यात्। ये तत्र ब्राह्मणाः सम्मर्शिनः । युक्ता आयुक्ताः । अलूक्षा धर्मकामाः स्युः । यथा ते तत्र वर्तेरन् । तथा तत्र वर्तेथाः ।

ऐसा करते हुए भी यदि तुम्हें कर्तव्य और अकर्तव्य में संशय पैदा हो जाय, यह समझ में न आये कि धर्माचार क्या है तो जो विचारवान् तपस्वी, कर्तव्यपरायण, शान्त और सरस स्वभाववाले विद्वान् हों, उनके पास जाकर अपना समाधान कर लेना और जैसा वे बर्ताव करते हों, वैसा बर्ताव करना ।

अथाभ्याख्यातेषु। ये तत्र ब्राह्मणाः सम्मर्शिनः । युक्ता आयुक्ताः । अलूक्षा धर्मकामाः स्युः । यथा ते तेषु वर्तेरन् । तथा तेषु वर्तेथाः ।

किसी दोष से लांछित मनुष्यों के साथ बर्ताव करने में जो वहाँ उत्तम विचारवाले, परामर्श देने में कुशल, सब प्रकार से यथायोग्य सत्कर्म और सदाचार में लगे हुए, रूखेपन से रहित धर्म के अभिलाषी विद्वान् हों, वे जिस प्रकार उनके साथ बर्ताव करें, उनके साथ तुमको भी वैसा व्यवहार करना चाहिये ।

एष आदेशः । एष उपदेशः । एषा वेदोपनिषत् । एतदनुशासनम्। एवमुपासितव्यम् । एवमु चैतदुपास्यम् ।

यही आदेश है। यही उपदेश है। यही वेद और उपनिषद् का सार है। यही हमारी शिक्षा है। इसके अनुसार ही अपने जीवन में आचरण करना ।

कृष्णयजुर्वेदीय तैत्तिरीयोपनिषद् वैदिक दीक्षान्त उपदेश ]

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