जीवन क्रम – बालस्वरूप राही

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जो काम किया‚ वह काम नहीं आएगा
इतिहास हमारा नाम न दोहराएगा
जब से सपनों को बेच खरीदी सुविधा
तब से ही मन में बनी हुई है दुविधा
हम भी कुछ अनगढ़ता तराश सकते थे
दो–चार साल समझौता अगर न करते।

पहले तो हम को लगा कि हम भी कुछ हैं
अस्तित्व नहीं है मिथ्या‚ हम सचमुच हैं
पर अक्समात ही टूट गया वह सम्भ्रम
ज्यों बस आ जाने पर भीड़ों का संयम
हम उन काग़जी गुलाबों से शाश्वत हैं
जो खिलते कभी नहीं हैं‚ कभी न झरते।

हम हो न सके वह जो कि हमें होना था
रह गए संजोते वही कि जो खोना था
यह निरुद्देश्य‚ यह निरानन्द जीवन क्रम
यह स्वादहीन दिनचर्या‚ विफल परिश्रम
पिस गए सभी मंसूबे इस जीवन के
दफ्तर की सीढ़ी चढ़ते और उतरते।

चेहरे का सारा तेज निचुड़ जाता है
फाइल के कोरे पन्ने भरते–भरते
हर शाम सोचते‚ नियम तोड़ देंगे हम
यह काम आज के बाद छोड़ देंगे हम
लेकिन जाने वह कैसी है मज़बूरी
जो कर देती है आना यहां जरूरी

खाली दिमाग में भर जाता है कूड़ा
हम नहीं भूख से‚ खालीपन से डरते।

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