वे तो पागल थे– सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
वे तो पागल थे
जो सत्य, शिव, सुंदर की खोज में
अपने–अपने सपने लिये
नदियों, पहाड़ों, बियाबानों, सुनसानों मे
फटे–हाल भूखे प्यासे,
टकराते फिरते थे,
अपने से जूझते थे,
आत्मा की आज्ञा पर
मानवता के लिये,
शिलाएँ, चट्टानें, पर्वत काट–काट कर
मूर्तियाँ, मन्दिर, और गुफाएँ बनाते थे।
किंतु ऐ दोस्त!
इनको मैं क्या कहूँ,
जो मौत की खोज में
अपनी–अपनी बन्दूकें, मशीनगनें लिये हुए
नदियों, पहाड़ों, बियाबानों, सुनसानों मे
फटे–हाल भूखे प्यासे,
टकराते फिरते हैं,
दूसरों की आज्ञा पर,
चंद पैसों के वास्ते,
शिलाएँ, चट्टानें, पर्वत काट–काट कर
रसद, हथियार, एंबूलेंस, मुर्दागाड़ियों के लिये
सड़कें बनाते हैं!
वे तो पागल थे
पर इनको मैं क्या कहूँ!