कोई और छाँव देखेंगे। – ताराप्रकाश जोशी

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कोई और छाँव देखेंगे।
लाभ घाटों की नगरी तज
चल दे और गाँव देखेंगे।

सुबह सुबह के सपने लेकर
हाटों हाटों खाए फेरे।
ज्यों कोई भोला बनजारा
पहुचे कहीं ठगों के डेरे।
इस मंडी में ओछे सौदे
कोई और भाव देखेंगे।

भरी दुपहरी गाँठ गँवाई
जिससे पूछा बात बनाई।
जैसी किसी ग्रामवासी की
महा नगर ने हँसी उड़ाई।
ठौर ठिकाने विष के दागे
कोई और ठाँव देखेंगे।

दिन ढल गया उठ गया मेला
खाली रहा उम्र का ठेला।
ज्यों पुतलीघर के पर्दे पर
खेला रह जाए अनखेला।
हार गए यह जनम जुए में
कोई और दाँव देखेंगे।

किसे बतयें इतनी पीड़ा
किसने मन आँगन में बोई।
मोती के व्यापारी को क्या
सीप उम्रभर कितना रोई।
मन के गोताखोर मिलेंगे
कोई और नाव देखेंगे।

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