स्तब्ध ज्योत्सना में जब संसार – सुमित्रानंदन पंत
स्तब्ध ज्योत्सना में जब संसार
चकित रहता शिशु सा नादान,
विश्व के पलकों पर सुकुमार
विचरते हैं जब स्वप्न अजान;
न जाने नक्षत्रों से कौन
निमंत्रण देता मुझको मौन!
सघन मेघों का भीमाकाश
गरजता है जब तमसाकार,
दीर्घ भरता समीर निःश्वास
प्रखर झरती जब पावस-धार;
न जाने, तपक तड़ित में कौन
मुझे इंगित करता तब मौन!
देख वसुधा का यौवन भार
गूंज उठता है जब मधुमास,
विधुर उर के-से मृदु उद्गार
कुसुम जब खुल पड़ते सोच्छ्वास;
न जाने, सौरभ के मिस कौन
संदेशा मुझे भेजता मौन!
क्षुब्ध जल शिखरों को जब बात
सिंधु में मथकर फेनाकार,
बुलबुलों का व्याकुल संसार
बना, बिथुरा देती अज्ञात;
उठा तब लहरों से कर कौन
न जाने, मुझे बुलाता कौन!
स्वर्ण, सुख, श्री सौरभ में भोर
विश्व को देती है जब बोर,
विहग कुल की कल-कंठ हिलोर
मिला देती भू नभ के छोर;
न जाने, अलस पलक-दल कौन
खोल देता तब मेरे मौन!
तुमुल तम में जब एकाकार
ऊँघता एक साथ संसार,
भीरु झींगुर-कुल की झंकार
कँपा देती निद्रा के तार;
न जाने, खद्योतों से कौन
मुझे पथ दिखलाता तब मौन!
कनक छाया में जबकि सकल
खोलती कलिका उर के द्वार,
सुरभि पीड़ित मधुपों के बाल
तड़प, बन जाते हैं गुंजार;
न जाने, ढुलक ओस में कौन
खींच लेता मेरे दृग मौन!
बिछा कार्यों का गुरुतर भार
दिवस को दे सुवर्ण अवसान,
शून्य शय्या में श्रमित अपार
जुड़ाता जब मैं आकुल प्राण;
न जाने, मुझे स्वप्न में कौन
फिराता छाया-जग में मौन!
न जाने कौन अये द्युतिमान
जान मुझको अबोध, अज्ञान,
सुझाते हों तुम पथ अजान
फूँक देते छिद्रों में गान;
अहे सुख-दुःख के सहचर मौन
नहीं कह सकता तुम हो कौन!