Ratnakar Pachisi || रत्नाकर पचीसी || मंदिर छो, मुक्ति तणा, मांगल्य क्रीडाना प्रभु

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मंदिर छो, मुक्ति तणा, मांगल्य क्रीडाना प्रभु!
ने ईद्र नर ने देवता, सेवा करे तारी विभु!
सर्वज्ञ छो स्वामी वळी, शिरदार अतिशय सर्वना,
घणुं जीव तुं, घणुं जीव तुं, भंडार ज्ञान कळा तणा (१)

त्रण जगतना आधार ने, अवतार हे करुणातणा,
वळी वैद्य हे ! दुर्वार आ संसारना दुःखो तणा.
वितराग वल्लभ विश्वना तुज पास अरजी उच्चरुं;
जाणो छतां पण कहीं अने, आ ह्रदय हुं खाली करुं (२)

शुं बाळको मां बाप पासे बाळक्रीडा नव करे?
ने मुखमांथी जेम आवे, तेम शुं नव उच्चरे?
तेमज तमारी पास तारक, आज भोळा भावथी,
जेवुं बन्युं तेवुं कहुं, तेमां कशुं खोटुं नथी. (३)

में दान तो दिधुं नहीं ने, शीयळ पण पाळ्युं नहिं
तपथी दमी काया नहि, शुभभाव पण भाव्यो नहि
ए चार भेदे धर्ममांथी कांई पण प्रभु ! नव कर्युं
मारुं भ्रमण भवसागरे निष्फळ गयुं, निष्फळ गयुं (४)

हुं क्रोध अग्निथी बळ्यो, वळी लोभ सर्प डस्यो मने
गळ्यो मानरुपी अजगरे, हुं केम करी ध्यावु तने?
मन मारुं मायाजाळमां मोहन ! महा मुंझाय छे;
चडी चार चोरो हाथमां, चेतन घणो चगदाय छे (५)

में परभावे के आ भवे पण हित कांई कर्युं नहि
तेथी करी संसारमां सुख, अल्प पण पाम्यो नहि
जन्मो अमारा जिनजी ! भव पूर्ण करवाने थया
आवेल बाजी हाथमां अज्ञानथी हारी गया (६)

अमृत झरे तुज मुखरुपी, चंद्रथी तो पण प्रभु
भींजाय नहि मुज मन अरेरे ! शुं करुं हुं तो विभु
पथ्थर थकी पण कठण मारुं मन खरे क्यांथी द्रवे
मरकट समा आ मन थकी, हुं तो प्रभु हार्यो हवे (७)

भमता महा भवसागरे पाम्यो पसाये आपना
जे ज्ञान दर्शन चरणरूपी रत्नत्रय दुष्कर घणां
ते पण गया प्रमादना वशथी प्रभु कहुं छुं खरुं
कोनी कने किरतार आ पोकार हुं जईने करुं (८)

ठगवा विभु आ विश्वने वैराग्यनां रंगो धर्यां
ने धर्मना उपदेश रंजन लोकने करवा कर्या
विद्या भण्यो हुं वाद माटे केटली कथनी कहुं
साधु थयो हुं बहारथी दांभिक अंदरथी रहुं (९)

में मुखने मेलुं कर्युं दोषो पराया गाईने
ने नेत्रने निंदित कर्या परनारीमां लपेटाईने
वळी चित्तने दोषित कर्युं चिंती नठारुं परतणुं
हे नाथ ! मारुं शुं थशे चालाक थइ चूक्यो घणुं (१०)

करे काळजाने कतल पीडा कामनी बिहामणी
ए विषयमां बनी अंध हुं विडंबना पाम्यो घणी
ते पण प्रकाश्युं आज लावी लाज आप तणी कने
जाणो सहुं तेथी कहुं कर माफ मारा वांकने (११)

नवकार मंत्र विनाश कीधो, अन्य मंत्रो जाणीने
कुशास्त्रनां वाक्यो वडे, हणी आगमोनी वाणीने
कुदेवनी संगत थकी कर्मो नकामा आचर्या
मति भ्रमथकी रत्नो गुमावी काच कटका में ग्रह्या (१२)

आवेल दृष्टि मार्गमां मूकी महावीर आपने
में मुढधीए ह्रदयमां ध्याया मदनना चापने
नेत्रबाणो ने पयोधर नाभि ने सुंदर कटी
शणगार सुंदरीओ तणा छटकेल थई जोया अति (१३)

मृगनयन सम नारीतणा मुखचंद्र नीरखवावती
मुजमन विशे जे रंग लाग्यो अल्प पण गूढो अति
ते श्रुतरुप समुद्रमां धोया छतां जातो नथी
तेनुं कहो कारण तमे बचुं केम हुं आ पापथी (१४)

सुंदर नथी आ शरीर के समुदाय गुणतणो नथी
उत्तम विलास कलातणी देदीप्यमान प्रभा नथी
प्रभुता नथी तो पण प्रभु अभिमानथी अक्कड फरुं
चोपाट चार गतितणी संसारमां खेल्या करुं (१५)

आयुष्य घटतुं जाय तो पण पापबुद्धि नव घटे
आशा जीवननी जाय पण विषयाभिलाषा नव मटे
औषध विषे करुं यत्न पण हुं धर्मने तो नव गणुं
बनी मोहमां मस्तान हुं पाया विनानां घर चणुं (१६)

आत्मा नथी परभव नथी वळी पुण्य पाप कशुं नथी
मिथ्यात्वीनी कटु वाणी में धरी कान पीधी स्वादथी
सर्वज्ञ सम ज्ञाने करी प्रभु आपश्री तो पण अरे !
दीवो लई कूवे पड्यो धिक्कार छे मुजने खरे (१७)

में चित्तथी नहि देवनी के पात्रनी पूजा चही
ने श्रावको के साधुओनो धर्म पण पाळ्यो नहि
पाम्यो प्रभु नरभव छतां रणमां रड्या जेवुं थयुं
धोबी तणा कुत्ता समुं मम जीवन सहु एळे गयुं (१८)

हुं कामधेनुं कल्पतरुं चिंतामणीना प्यारमां
खोटा छतां ञंख्यो घणुं बनी लुब्ध आ संसारमां
जे प्रगट सुख देनार तारो धर्म में सेव्यो नहि
मुज मूर्ख भावोने निहाळी नाथ ! कर करुणा कंई (१९)

में भोग सार चिंतव्या ते रोग सम चिंत्या नहि
आगमन ईच्छ्युं में धनतणुं पण मृत्युने प्रीछ्युं नहि
में चिंतव्युं नहीं नरक कारागृह समी छे नारीओ
मधुबिंदुनी आशा महीं भयमात्र हुं भूली गयो (२०)

हुं शुद्ध आचारो वडे साधु ह्रदयमां नव रह्यो
करी काम पर उपकारनां यश पण उपार्जन नव कर्यो
वळी तीर्थना उद्धार आदि कोइ कार्यो नव कर्या
फोगट अरे आ लक्ष चोराशी तणा फेरा फर्या (२१)

गुरुवाणीमां वैराग्य केरो रंग लाग्यो नहि अने
दुर्जनतणा वाक्यो महीं शांति मळे क्यांथी मने
तरुं केम हुं संसार आ अध्यात्म तो छे नहि जरी
तूटेल तळियानो घडो जळथी भराय केम करी (२२)

में परभवे नथी पुण्य कीधुं ने नथी करतो हजी
तो आवता भवमां कहो क्यांथी थसे हे नाथजी !
भूत भाविने सांप्रत त्रणे भव नाथ हुं हारी गयो
स्वामी ! त्रिशंकु जेम हुं आकाशमां लटकी रह्यो (२३)

अथवा नकामुं आप पासे नाथ शुं बकवु घणुं
हे देवताना पूज्य ! आ चारित्र मुज पोता तणुं
जाणो स्वरुप त्रण लोकनुं तो महारुं शुं मात्र आ
ज्यां क्रोडनो हिसाब नहीं त्यां पाईनी तो वात क्यां (२४)

ताराथी न समर्थ अन्य दीननो उद्धारनारो प्रभु
माराथी नहि अन्य पात्र जगमां जोता जडे हे विभु
मुक्ति मंगळ स्थान तो य मुजने ईच्छा न लक्ष्मी तणी
आपो सम्यगरत्न श्याम जीवने तो तृप्ति थाये घणी (२५)

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