टूटा पहिया – धर्मवीर भारती
मैं रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ लेकिन मुझे फेंको मत ! क्या जाने कब इस दुरूह चक्रव्यूह में अक्षौहिणी…
सकारात्मक दृष्टिकोण… भारत की उन्नति के लिए… आत्मनिर्भर बनाने की प्रेरणा…
मैं रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ लेकिन मुझे फेंको मत ! क्या जाने कब इस दुरूह चक्रव्यूह में अक्षौहिणी…
अपने हलके-फुलके उड़ते स्पर्शों से मुझको छू जाती है जार्जेट के पीले पल्ले–सी यह दोपहर नवम्बर की। आयीं गयीं ऋतुएँ…
इस डगर पर मोड़ सारे तोड़, ले चूका कितने अपरिचित मोड़। पर मुझे लगता रहा हर बार, कर रहा हूँ…
प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी बाँध देती है तुम्हारा मन, हमारा मन, फिर किसी अनजान आशीर्वाद में डूबन मिलती मुझे…
आज मैं भी नहीं अकेला हूं शाम है‚ दर्द है‚ उदासी है। एक खामोश सांझ–तारा है दूर छूटा हुआ किनारा…
ये शामें, ये सब की सब शामें… जिनमें मैंने घबरा कर तुमको याद किया जिनमें प्यासी सीपी का भटका विकल…
(जटायु का बड़ा भाई गिद्ध जो प्रथम बार सूर्य तक पहुचने के लिए उड़ा पंख झुलस जाने पर समुद्र-तट पर…