कबीर के दोहे
चलती चक्की देख कर‚ दिया कबीरा रोए
दुई पाटन के बीच में‚ साबुत बचा न कोए
बुरा जो देखण मैं चला‚ बुरा न मिलया कोए
जो मन खोजा आपणा‚ तो मुझसे बुरा न कोए
काल करे सो आज कर‚ आज करे सो अब
पल में परलय होएगी‚ बहूरी करोगे कब
धीरे धीरे रे मना‚ धीरे सब कुछ होए
माली सींचे सौ घड़ा‚ ऋतु आए फल होए
सांई इितना दीजीए‚ जामें कुटुम्ब समाए
मैं भी भुखा न रहूं‚ साधू न भूखा जाए
कबीरा खड़ा बाज़ार में‚ मांगे सबकी खैर
ना काहू से दोस्ती‚ ना काहू से बैर
पोथी पड़ पड़ जग मुआ‚ पंडित भयो न कोए
ढाइ आखर प्रेम के‚ जो पड़े सो पंडित होए
कबीरा गर्व न कीजीये‚ऊंचा देख आवास
काल परौ भुंइ लेटना‚ ऊपर जमसी घास
जब तूं आया जगत में‚ लोग हंसे तू रोए
एैसी करनी न करी. पाछे हंसे सब कोए
ज्यों नैनों में पुतली‚ त्यों मालिक घट माहिं
मूरख लोग न जानहिं‚ बाहिर ढूंढन जाहिं
माला फेरत जुग भया‚ मिटा न मन का फेर
कर का मनका छोड़ दे‚ मन का मनका फेर
जब मैं था तब हरि नहीं‚ अब हरि है मैं नाहिं
सब अंधियारा मिटि गया‚ जब दीपक देख्या मांहि
गुरु गोविंद दोऊ खड़े‚ काको लागूं पाय
बलिहारी गुरु आपकी‚ जिन गोविंद दियो बताय
जाति न पूछो साधु की‚ पूछ लीजिये ज्ञान
मोल करो तलवार का‚ पड़ा रहने दो म्यान
पाहन पूछे हरि मिले‚ तो मैं पूजूं पहार
ताते यह चाकी भली‚ पीस खाय संसार
कंकर पत्थर जोरि के‚ मस्जिद लयी बनाय
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे‚ क्या बहरा हुआ खुदाय
माटी कहे कुम्हार से‚ तू क्या रौंदे मोय
इक दिन ऐसा आयगा‚ मैं रौंदूंगी तोय
जिन ढूंढा तिन पाइयां‚ गहरे पानी पैठ
मैं बौरी ढूंढन गई‚ रही किनारे बैठ