देखो लड़को, बंदर आया – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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देखो लड़को, बंदर आया।
एक मदारी उसको लाया॥

कुछ है उसका ढंग निराला।
कानों में है उसके बाला॥

फटे पुराने रंग बिरंगे।
कपड़े उसके हैं बेढंगे॥

मुँह डरावना आँखे छोटी।
लंबी दुम थोड़ी सी मोटी॥

भौंह कभी वह है मटकाता।
आँखों को है कभी नचाता॥

ऐसा कभी किलकिलाता है।
जैसे अभी काट खाता है॥

दाँतों को है कभी दिखाता।
कूद फाँद है कभी मचाता॥

कभी घुड़कता है मुँह बा कर।
सब लोगों को बहुत डराकर॥

कभी छड़ी लेकर है चलता।
है वह यों ही कभी मचलता॥

है सलाम को हाथ उठाता।
पेट लेट कर है दिखलाता॥

ठुमक ठुमक कर कभी नाचता।
कभी कभी है टके माँगता॥

सिखलाता है उसे मदारी।
जो जो बातें बारी बारी॥

वह सब बातें वह करता है।
सदा उसी का दम भरता है॥

देखो बंदर सिखलाने से।
कहने सुनने समझाने से॥

बातें बहुत सीख जाता है।
कई काम कर दिखलाता है॥

फिर लड़को, तुम मन देने पर।
भला क्या नहीं सकते हो कर॥

बनों आदमी तुम पढ़ लिखकर।
नहीं एक तुम भी हो बंदर॥

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