श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, पाँचवाँ विश्राम || Shri Ram Charit Manas Balakand Panchavan Vishram

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श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, पाँचवाँ विश्राम

श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, पाँचवाँ विश्राम

श्री रामचरित मानस

प्रथम सोपान (बालकाण्ड)

सो० – सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।

कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड़॥ 120(ख)॥

हे पार्वती! निर्मल रामचरितमानस की वह मंगलमयी कथा सुनो जिसे काकभुशुंडि ने विस्तार से कहा और पक्षियों के राजा गरुड़ ने सुना था॥ 120(ख)॥

सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।

सुनहु राम अवतार चरति परम सुंदर अनघ॥ 120(ग)॥

वह श्रेष्ठ संवाद जिस प्रकार हुआ, वह मैं आगे कहूँगा। अभी तुम राम के अवतार का परम सुंदर और पवित्र (पापनाशक) चरित्र सुनो॥ 120(ग)॥

हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।

मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥ 120(घ)॥

हरि के गुण, मान, कथा और रूप सभी अपार, अगणित और असीम हैं। फिर भी हे पार्वती! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहता हूँ, तुम आदरपूर्वक सुनो॥ 120(घ)॥

सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥

हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥

हे पार्वती! सुनो, वेद-शास्त्रों ने हरि के सुंदर, विस्तृत और निर्मल चरित्रों का गान किया है। हरि का अवतार जिस कारण से होता है, वह कारण ‘बस यही है’ ऐसा नहीं कहा जा सकता (अनेकों कारण हो सकते हैं और ऐसे भी हो सकते हैं, जिन्हें कोई जान ही नहीं सकता)।

राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥

तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥

हे सयानी! सुनो, हमारा मत तो यह है कि बुद्धि, मन और वाणी से राम की तर्कना नहीं की जा सकती। तथापि संत, मुनि, वेद और पुराण अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार जैसा कुछ कहते हैं।

तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥

जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥

और जैसा कुछ मेरी समझ में आता है, हे सुमुखि! वही कारण मैं तुमको सुनाता हूँ। जब-जब धर्म का ह्रास होता है और नीच अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं।

करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥

तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥

और वे ऐसा अन्याय करते हैं कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता तथा ब्राह्मण, गो, देवता और पृथ्वी कष्ट पाते हैं, तब-तब वे कृपानिधान प्रभु भाँति-भाँति के (दिव्य) शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा हरते हैं।

दो० – असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।

जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥ 121॥

वे असुरों को मारकर देवताओं को स्थापित करते हैं, अपने (श्वास रूप) वेदों की मर्यादा की रक्षा करते हैं और जगत में अपना निर्मल यश फैलाते हैं। राम के अवतार का यह कारण है॥ 121॥

सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥

राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥

उसी यश को गा-गाकर भक्तजन भवसागर से तर जाते हैं। कृपासागर भगवान भक्तों के हित के लिए शरीर धारण करते हैं। राम के जन्म लेने के अनेक कारण हैं, जो एक-से-एक बढ़कर विचित्र हैं।

जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥

द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥

हे सुंदर बुद्धिवाली भवानी! मैं उनके दो-एक जन्मों का विस्तार से वर्णन करता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो। हरि के जय और विजय दो प्यारे द्वारपाल हैं, जिनको सब कोई जानते हैं।

बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥

कनककसिपु अरु हाटकलोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥

उन दोनों भाइयों ने ब्राह्मण (सनकादि) के शाप से असुरों का तामसी शरीर पाया। एक का नाम था हिरण्यकशिपु और दूसरे का हिरण्याक्ष। ये देवराज इंद्र के गर्व को छुड़ानेवाले सारे जगत में प्रसिद्ध हुए।

बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥

होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥

वे युद्ध में विजय पानेवाले विख्यात वीर थे। इनमें से एक (हिरण्याक्ष) को भगवान ने वराह (सूअर) का शरीर धारण करके मारा, फिर दूसरे (हिरण्यकशिपु) का नरसिंह रूप धारण करके वध किया और अपने भक्त प्रह्लाद का सुंदर यश फैलाया।

दो० – भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।

कुंभकरन रावन सुभट सुर बिजई जग जान॥ 122॥

वे ही (दोनों) जाकर देवताओं को जीतनेवाले तथा बड़े योद्धा, रावण और कुंभकर्ण नामक बड़े बलवान और महावीर राक्षस हुए, जिन्हें सारा जगत जानता है॥ 122॥

मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥

एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥

भगवान के द्वारा मारे जाने पर भी वे (हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु) इसीलिए मुक्त नहीं हुए कि ब्राह्मण के वचन (शाप) का प्रमाण तीन जन्म के लिए था। अतः एक बार उनके कल्याण के लिए भक्तप्रेमी भगवान ने फिर अवतार लिया।

कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥

एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित पवित्र किए संसारा॥

वहाँ (उस अवतार में) कश्यप और अदिति उनके माता-पिता हुए, जो दशरथ और कौसल्या के नाम से प्रसिद्ध थे। एक कल्प में इस प्रकार अवतार लेकर उन्होंने संसार में पवित्र लीलाएँ कीं।

एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥

संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥

एक कल्प में सब देवताओं को जलंधर दैत्य से युद्ध में हार जाने के कारण दुःखी देखकर शिव ने उसके साथ बड़ा घोर युद्ध किया, पर वह महाबली दैत्य मारे नहीं मरता था।

परम सती असुराधिप नारी। तेहिं बल ताहि न जितहिं पुरारी॥

उस दैत्यराज की स्त्री परम सती (बड़ी ही पतिव्रता) थी। उसी के प्रताप से त्रिपुरासुर (जैसे अजेय शत्रु) का विनाश करनेवाले शिव भी उस दैत्य को नहीं जीत सके।

दो० – छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह।

जब तेहिं जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥ 123॥

प्रभु ने छल से उस स्त्री का व्रत भंग कर देवताओं का काम किया। जब उस स्त्री ने यह भेद जाना, तब उसने क्रोध करके भगवान को शाप दिया॥ 123॥

तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥

तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥

लीलाओं के भंडार कृपालु हरि ने उस स्त्री के शाप को प्रामाण्य दिया (स्वीकार किया)। वही जलंधर उस कल्प में रावण हुआ, जिसे राम ने युद्ध में मारकर परमपद दिया।

एक जनम कर कारन एहा। जेहि लगि राम धरी नरदेहा॥

प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥

एक जन्म का कारण यह था, जिससे राम ने मनुष्य देह धारण किया। हे भरद्वाज मुनि! सुनो, प्रभु के प्रत्येक अवतार की कथा का कवियों ने नाना प्रकार से वर्णन किया है।

नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥

गिरिजा चकित भईं सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानी॥

एक बार नारद ने शाप दिया, अतः एक कल्प में उसके लिए अवतार हुआ। यह बात सुनकर पार्वती बड़ी चकित हुईं (और बोलीं कि) नारद तो विष्णु भक्त और ज्ञानी हैं।

कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥

यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥

मुनि ने भगवान को शाप किस कारण से दिया। लक्ष्मीपति भगवान ने उनका क्या अपराध किया था? हे पुरारि (शंकर)! यह कथा मुझसे कहिए। मुनि नारद के मन में मोह होना बड़े आश्चर्य की बात है।

दो० – बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।

जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥ 124(क)॥

तब महादेव ने हँसकर कहा – न कोई ज्ञानी है न मूर्ख। रघुनाथ जब जिसको जैसा करते हैं, वह उसी क्षण वैसा ही हो जाता है॥ 124(क)॥

सो० – कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।

भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥ 124(ख)॥

(याज्ञवल्क्य कहते हैं -) हे भरद्वाज! मैं राम के गुणों की कथा कहता हूँ, तुम आदर से सुनो। तुलसीदास कहते हैं – मान और मद को छोड़कर आवागमन का नाश करनेवाले रघुनाथ को भजो॥ 124(ख)॥

हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥

आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥

हिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उसके समीप ही सुंदर गंगा बहती थीं। वह परम पवित्र सुंदर आश्रम देखने पर नारद के मन को बहुत ही सुहावना लगा।

निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥

सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥

पर्वत, नदी और वन के (सुंदर) विभागों को देखकर नादर का लक्ष्मीकांत भगवान के चरणों में प्रेम हो गया। भगवान का स्मरण करते ही उन (नारद मुनि) के शाप की (जो शाप उन्हें दक्ष प्रजापति ने दिया था और जिसके कारण वे एक स्थान पर नहीं ठहर सकते थे) गति रुक गई और मन के स्वाभाविक ही निर्मल होने से उनकी समाधि लग गई।

मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह सनमाना॥

सहित सहाय जाहु मम हेतू। चलेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥

नारद मुनि की (यह तपोमयी) स्थिति देखकर देवराज इंद्र डर गया। उसने कामदेव को बुलाकर उसका आदर-सत्कार किया (और कहा कि) मेरे (हित के) लिए तुम अपने सहायकों सहित (नारद की समाधि भंग करने को) जाओ। (यह सुनकर) मीनध्वज कामदेव मन में प्रसन्न होकर चला।

सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥

जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥

इंद्र के मन में यह डर हुआ कि देवर्षि नारद मेरी पुरी (अमरावती) का निवास (राज्य) चाहते हैं। जगत में जो कामी और लोभी होते हैं, वे कुटिल कौए की तरह सबसे डरते हैं।

दो० – सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।

छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥ 125॥

जैसे मूर्ख कुत्ता सिंह को देखकर सूखी हड्डी लेकर भागे और वह मूर्ख यह समझे कि कहीं उस हड्डी को सिंह छीन न ले, वैसे ही इंद्र को (नारद मेरा राज्य छीन लेंगे, ऐसा सोचते) लाज नहीं आई॥ 125॥

तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥

कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहिं भृंगा॥

जब कामदेव उस आश्रम में गया, तब उसने अपनी माया से वहाँ वसंत ऋतु को उत्पन्न किया। तरह-तरह के वृक्षों पर रंग-बिरंगे फूल खिल गए, उन पर कोयलें कूकने लगीं और भौंरे गुंजार करने लगे।

चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥

रंभादिक सुर नारि नबीना। सकल असमसर कला प्रबीना॥

कामाग्नि को भड़कानेवाली तीन प्रकार की (शीतल, मंद और सुगंध) सुहावनी हवा चलने लगी। रंभा आदि नवयुवती देवांगनाएँ, जो सब की सब कामकला में निपुण थीं,

करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हिं पानि पतंगा॥

देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥

बहुत प्रकार की तानों की तरंग के साथ गाने लगीं और हाथ में गेंद लेकर नाना प्रकार के खेल खेलने लगीं। कामदेव अपने इन सहायकों को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और फिर उसने नाना प्रकार के मायाजाल किए।

काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥

सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासू। बड़ रखवार रमापति जासू॥

परंतु कामदेव की कोई भी कला मुनि पर असर न कर सकी। तब तो पापी कामदेव अपने ही (नाश के) भय से डर गया। लक्ष्मीपति भगवान जिसके बड़े रक्षक हों, भला, उसकी सीमा (मर्यादा) को कोई दबा सकता है?

दो० – सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।

गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥ 126॥

तब अपने सहायकों समेत कामदेव ने बहुत डरकर और अपने मन में हार मानकर बहुत ही आर्त (दीन) वचन कहते हुए मुनि के चरणों को जा पकड़ा॥ 126॥

भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥

नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥

नारद के मन में कुछ भी क्रोध न आया। उन्होंने प्रिय वचन कहकर कामदेव का समाधान किया। तब मुनि के चरणों में सिर नवाकर और उनकी आज्ञा पाकर कामदेव अपने सहायकों सहित लौट गया।

मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥

सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥

देवराज इंद्र की सभा में जाकर उसने मुनि की सुशीलता और अपनी करतूत सब कही, जिसे सुनकर सबके मन में आश्चर्य हुआ और उन्होंने मुनि की बड़ाई करके हरि को सिर नवाया।

तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥

मार चरति संकरहि सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥

तब नारद शिव के पास गए। उनके मन में इस बात का अहंकार हो गया कि हमने कामदेव को जीत लिया। उन्होंने कामदेव के चरित्र शिव को सुनाए और महादेव ने उन (नारद) को अत्यंत प्रिय जानकर (इस प्रकार) शिक्षा दी –

बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥

तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूँ॥

हे मुनि! मैं तुमसे बार-बार विनती करता हूँ कि जिस तरह यह कथा तुमने मुझे सुनाई है, उस तरह भगवान हरि को कभी मत सुनाना। चर्चा चले तब भी इसको छिपा जाना।

दो० – संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।

भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥ 127॥

यद्यपि शिव ने यह हित की शिक्षा दी, पर नारद को वह अच्छी न लगी। हे भरद्वाज! अब कौतुक (तमाशा) सुनो। हरि की इच्छा बड़ी बलवान है॥ 127॥

राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥

संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥

राम जो करना चाहते हैं, वही होता है, ऐसा कोई नहीं जो उसके विरुद्ध कर सके। शिव के वचन नारद के मन को अच्छे नहीं लगे, तब वे वहाँ से ब्रह्मलोक को चल दिए।

एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥

छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बसनिवास श्रुतिमाथा॥

एक बार गानविद्या में निपुण मुनिनाथ नारद हाथ में सुंदर वीणा लिए, हरिगुण गाते हुए क्षीरसागर को गए, जहाँ वेदों के मस्तकस्वरूप (मूर्तिमान वेदांतत्त्व) लक्ष्मी निवास भगवान नारायण रहते हैं।

हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥

बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥

रमानिवास भगवान उठकर बड़े आनंद से उनसे मिले और ऋषि (नारद) के साथ आसन पर बैठ गए। चराचर के स्वामी भगवान हँसकर बोले – हे मुनि! आज आपने बहुत दिनों पर दया की।

काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥

अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥

यद्यपि शिव ने उन्हें पहले से ही बरज रखा था, तो भी नारद ने कामदेव का सारा चरित्र भगवान को कह सुनाया। रघुनाथ की माया बड़ी ही प्रबल है। जगत में ऐसा कौन जन्मा है, जिसे वे मोहित न कर दें।

दो० – रूख बदन करि बचन मृदु बोलेभगवान।

तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥ 128॥

भगवान रूखा मुँह करके कोमल वचन बोले – हे मुनिराज! आपका स्मरण करने से दूसरों के मोह, काम, मद और अभिमान मिट जाते हैं (फिर आपके लिए तो कहना ही क्या है?)॥ 128॥

सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें॥

ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥

हे मुनि! सुनिए, मोह तो उसके मन में होता है, जिसके हृदय में ज्ञान-वैराग्य नहीं है। आप तो ब्रह्मचर्य व्रत में तत्पर और बड़े धीर बुद्धि हैं। भला, कहीं आपको भी कामदेव सता सकता है?

नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥

करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥

नारद ने अभिमान के साथ कहा – भगवन! यह सब आपकी कृपा है। करुणानिधान भगवान ने मन में विचारकर देखा कि इनके मन में गर्व के भारी वृक्ष का अंकुर पैदा हो गया है।

बेगि सो मैं डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥

मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मैं सोई॥

मैं उसे तुरंत ही उखाड़ फेंकूँगा, क्योंकि सेवकों का हित करना हमारा प्रण है। मैं अवश्य ही वह उपाय करूँगा, जिससे मुनि का कल्याण और मेरा खेल हो।

तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥

श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥

तब नारद भगवान के चरणों में सिर नवाकर चले। उनके हृदय में अभिमान और भी बढ़ गया। तब लक्ष्मीपति भगवान ने अपनी माया को प्रेरित किया। अब उसकी कठिन करनी सुनो।

दो० – बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।

श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥ 129॥

उस (हरिमाया) ने रास्ते में सौ योजन (चार सौ कोस) का एक नगर रचा। उस नगर की भाँति-भाँति की रचनाएँ लक्ष्मीनिवास भगवान विष्णु के नगर (बैकुंठ) से भी अधिक सुंदर थीं॥ 129॥

बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥

तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥

उस नगर में ऐसे सुंदर नर-नारी बसते थे, मानो बहुत-से कामदेव और (उसकी स्त्री) रति ही मनुष्य शरीर धारण किए हुए हों। उस नगर में शीलनिधि नाम का राजा रहता था, जिसके यहाँ असंख्य घोड़े, हाथी और सेना के समूह (टुकड़ियाँ) थे।

सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥

बिस्वमोहनी तासु कुमारी। बिमोह जिसु रूपु निहारी॥

उसका वैभव और विलास सौ इंद्रों के समान था। वह रूप, तेज, बल और नीति का घर था। उसके विश्वमोहिनी नाम की एक (ऐसी रूपवती) कन्या थी, जिसके रूप को देखकर लक्ष्मी भी मोहित हो जाएँ।

सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥

करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥

वह सब गुणों की खान भगवान की माया ही थी। उसकी शोभा का वर्णन कैसे किया जा सकता है। वह राजकुमारी स्वयंवर करना चाहती थी, इससे वहाँ अगणित राजा आए हुए थे।

मुनि कौतुकी नगर तेहि गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥

सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥

खिलवाड़ी मुनि नारद उस नगर में गए और नगरवासियों से उन्होंने सब हाल पूछा। सब समाचार सुनकर वे राजा के महल में आए। राजा ने पूजा करके मुनि को (आसन पर) बैठाया।

दो० – आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।

कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥ 130॥

(फिर) राजा ने राजकुमारी को लाकर नारद को दिखलाया (और पूछा कि -) हे नाथ! आप अपने हृदय में विचार कर इसके सब गुण-दोष कहिए॥ 130॥

देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥

लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥

उसके रूप को देखकर मुनि वैराग्य भूल गए और बड़ी देर तक उसकी ओर देखते ही रह गए। उसके लक्षण देखकर मुनि अपने आपको भी भूल गए और हृदय में हर्षित हुए, पर प्रकट रूप में उन लक्षणों को नहीं कहा।

जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥

सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥

(लक्षणों को सोचकर वे मन में कहने लगे कि) जो इसे ब्याहेगा, वह अमर हो जाएगा और रणभूमि में कोई उसे जीत न सकेगा। यह शीलनिधि की कन्या जिसको वरेगी, सब चर-अचर जीव उसकी सेवा करेंगे।

लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥

सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥

सब लक्षणों को विचारकर मुनि ने अपने हृदय में रख लिया और राजा से कुछ अपनी ओर से बनाकर कह दिए। राजा से लड़की के सुलक्षण कहकर नारद चल दिए। पर उनके मन में यह चिंता थी कि –

करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥

जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥

मैं जाकर सोच-विचारकर अब वही उपाय करूँ, जिससे यह कन्या मुझे ही वरे। इस समय जप-तप से तो कुछ हो नहीं सकता। हे विधाता! मुझे यह कन्या किस तरह मिलेगी?

दो० – एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।

जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥ 131॥

इस समय तो बड़ी भारी शोभा और विशाल (सुंदर) रूप चाहिए, जिसे देखकर राजकुमारी मुझ पर रीझ जाए और तब जयमाल (मेरे गले में) डाल दे॥ 131॥

हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥

मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥

(एक काम करूँ कि) भगवान से सुंदरता माँगूँ; पर भाई! उनके पास जाने में तो बहुत देर हो जाएगी। किंतु हरि के समान मेरा हितू भी कोई नहीं है, इसलिए इस समय वे ही मेरे सहायक हों।

बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥

प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥

उस समय नारद ने भगवान की बहुत प्रकार से विनती की। तब लीलामय कृपालु प्रभु (वहीं) प्रकट हो गए। स्वामी को देखकर नारद के नेत्र शीतल हो गए और वे मन में बड़े ही हर्षित हुए कि अब तो काम बन ही जाएगा।

अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥

आपन रूप देहु प्रभु मोहीं। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥

नारद ने बहुत आर्त (दीन) होकर सब कथा कह सुनाई (और प्रार्थना की कि) कृपा कीजिए और कृपा करके मेरे सहायक बनिए। हे प्रभो! आप अपना रूप मुझको दीजिए, अन्य किसी प्रकार से मैं उस (राजकन्या) को नहीं पा सकता।

जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥

निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥

हे नाथ! जिस तरह मेरा हित हो, आप वही शीघ्र कीजिए। मैं आपका दास हूँ। अपनी माया का विशाल बल देख दीनदयालु भगवान मन-ही-मन हँसकर बोले –

दो० – जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।

सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥ 132॥

हे नारद! सुनो, जिस प्रकार आपका परम हित होगा, हम वही करेंगे, दूसरा कुछ नहीं। हमारा वचन असत्य नहीं होता॥ 132॥

कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥

एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥

हे योगी मुनि! सुनिए, रोग से व्याकुल रोगी कुपथ्य माँगे तो वैद्य उसे नहीं देता। इसी प्रकार मैंने भी तुम्हारा हित करने की ठान ली है। ऐसा कहकर भगवान अंतर्धान हो गए।

माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥

गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥

(भगवान की) माया के वशीभूत हुए मुनि ऐसे मूढ़ हो गए कि वे भगवान की अगूढ़ (स्पष्ट) वाणी को भी न समझ सके। ऋषिराज नारद तुरंत वहाँ गए जहाँ स्वयंवर की भूमि बनाई गई थी।

निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥

मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बरिहि न भोरें॥

राजा लोग खूब सज-धजकर समाज सहित अपने-अपने आसन पर बैठे थे। मुनि (नारद) मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे थे कि मेरा रूप बड़ा सुंदर है, मुझे छोड़ कन्या भूलकर भी दूसरे को न वरेगी।

मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥

सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥

कृपानिधान भगवान ने मुनि के कल्याण के लिए उन्हें ऐसा कुरूप बना दिया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता, पर यह चरित कोई भी न जान सका। सबने उन्हें नारद ही जानकर प्रणाम किया।

दो० – रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।

बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥ 133॥

वहाँ शिव के दो गण भी थे। वे सब भेद जानते थे और ब्राह्मण का वेष बनाकर सारी लीला देखते-फिरते थे। वे भी बड़े मौजी थे॥ 133॥

जेहिं समाज बैठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥

तहँ बैठे महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥

नारद अपने हृदय में रूप का बड़ा अभिमान लेकर जिस समाज (पंक्ति) में जाकर बैठे थे, ये शिव के दोनों गण भी वहीं बैठ गए। ब्राह्मण के वेष में होने के कारण उनकी इस चाल को कोई न जान सका।

करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥

रीझिहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥

वे नारद को सुना-सुनाकर, व्यंग्य वचन कहते थे – भगवान ने इनको अच्छी ‘सुंदरता’ दी है। इनकी शोभा देखकर राजकुमारी रीझ ही जाएगी और ‘हरि’ (वानर) जानकर इन्हीं को खास तौर से वरेगी।

मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥

जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥

नारद मुनि को मोह हो रहा था, क्योंकि उनका मन दूसरे के हाथ (माया के वश) में था। शिव के गण बहुत प्रसन्न होकर हँस रहे थे। यद्यपि मुनि उनकी अटपटी बातें सुन रहे थे, पर बुद्धि भ्रम में सनी हुई होने के कारण वे बातें उनकी समझ में नहीं आती थीं (उनकी बातों को वे अपनी प्रशंसा समझ रहे थे)।

काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥

मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥

इस विशेष चरित को और किसी ने नहीं जाना, केवल राजकन्या ने (नारद का) वह रूप देखा। उनका बंदर का-सा मुँह और भयंकर शरीर देखते ही कन्या के हृदय में क्रोध उत्पन्न हो गया।

दो० – सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।

देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥ 134॥

तब राजकुमारी सखियों को साथ लेकर इस तरह चली मानो राजहंसिनी चल रही है। वह अपने कमल जैसे हाथों में जयमाला लिए सब राजाओं को देखती हुई घूमने लगी॥ 134॥

जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि तेहिं न बिलोकी भूली॥

पुनि-पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसुकाहीं॥

जिस ओर नारद (रूप के गर्व में) फूले बैठे थे, उस ओर उसने भूलकर भी नहीं ताका। नारद मुनि बार-बार उचकते और छटपटाते हैं। उनकी दशा देखकर शिव के गण मुसकराते हैं।

धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥

दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥

कृपालु भगवान भी राजा का शरीर धारण कर वहाँ जा पहुँचे। राजकुमारी ने हर्षित होकर उनके गले में जयमाला डाल दी। लक्ष्मीनिवास भगवान दुलहिन को ले गए। सारी राजमंडली निराश हो गई।

मुनि अति बिकल मोहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥

तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥

मोह के कारण मुनि की बुद्धि नष्ट हो गई थी, इससे वे (राजकुमारी को गई देख) बहुत ही विकल हो गए। मानो गाँठ से छूटकर मणि गिर गई हो। तब शिव के गणों ने मुसकराकर कहा – जाकर दर्पण में अपना मुँह तो देखिए!

अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥

बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥

ऐसा कहकर वे दोनों बहुत भयभीत होकर भागे। मुनि ने जल में झाँककर अपना मुँह देखा। अपना रूप देखकर उनका क्रोध बहुत बढ़ गया। उन्होंने शिव के उन गणों को अत्यंत कठोर शाप दिया –

दो० – होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।

हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥ 135॥

तुम दोनों कपटी और पापी जाकर राक्षस हो जाओ। तुमने हमारी हँसी की, उसका फल चखो। अब फिर किसी मुनि की हँसी करना॥ 135॥

पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥

फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदि चले कमलापति पाहीं॥

मुनि ने फिर जल में देखा, तो उन्हें अपना (असली) रूप प्राप्त हो गया, तब भी उन्हें संतोष नहीं हुआ। उनके होठ फड़क रहे थे और मन में क्रोध (भरा) था। तुरंत ही वे भगवान कमलापति के पास चले।

देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोरि उपहास कराई॥

बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥

(मन में सोचते जाते थे -) जाकर या तो शाप दूँगा या प्राण दे दूँगा। उन्होंने जगत में मेरी हँसी कराई। दैत्यों के शत्रु भगवान हरि उन्हें बीच रास्ते में ही मिल गए। साथ में लक्ष्मी और वही राजकुमारी थीं।

बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥

सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥

देवताओं के स्वामी भगवान ने मीठी वाणी में कहा – हे मुनि! व्याकुल की तरह कहाँ चले? ये शब्द सुनते ही नारद को बड़ा क्रोध आया, माया के वशीभूत होने के कारण मन में चेत नहीं रहा।

पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥

मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरि बिष पान करायहु॥

(मुनि ने कहा -) तुम दूसरों की संपदा नहीं देख सकते, तुममें ईर्ष्या और कपट बहुत है। समुद्र मथते समय तुमने शिव को बावला बना दिया और देवताओं को प्रेरित करके उन्हें विषपान कराया।

दो० – असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।

स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥ 136॥

असुरों को मदिरा और शिव को विष देकर तुमने स्वयं लक्ष्मी और सुंदर (कौस्तुभ) मणि ले ली। तुम बड़े धोखेबाज और मतलबी हो। सदा कपट का व्यवहार करते हो॥ 136॥

परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥

भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥

तुम परम स्वतंत्र हो, सिर पर तो कोई है नहीं, इससे जब जो मन को भाता है, (स्वच्छंदता से) वही करते हो। भले को बुरा और बुरे को भला कर देते हो। हृदय में हर्ष-विषाद कुछ भी नहीं लाते।

डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥

करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥

सबको ठग-ठगकर परक गए हो और अत्यंत निडर हो गए हो, इसी से (ठगने के काम में) मन में सदा उत्साह रहता है। शुभ-अशुभ कर्म तुम्हें बाधा नहीं देते। अब तक तुम्हें किसी ने ठीक नहीं किया था।

भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥

बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥

अबकी तुमने अच्छे घर बैना दिया है (मेरे जैसे जबरदस्त आदमी से छेड़खानी की है)। अतः अपने किए का फल अवश्य पाओगे। जिस शरीर को धारण करके तुमने मुझे ठगा है, तुम भी वही शरीर धारण करो, यह मेरा शाप है।

कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥

मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी। नारि बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥

तुमने हमारा रूप बंदर का-सा बना दिया था, इससे बंदर ही तुम्हारी सहायता करेंगे। (मैं जिस स्त्री को चाहता था, उससे मेरा वियोग कराकर) तुमने मेरा बड़ा अहित किया है, इससे तुम भी स्त्री के वियोग में दुःखी होगे।

दो० – श्राप सीस धरि हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि॥

निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥ 137॥

शाप को सिर पर चढ़ाकर, हृदय में हर्षित होते हुए प्रभु ने नारद से बहुत विनती की और कृपानिधान भगवान ने अपनी माया की प्रबलता खींच ली॥ 137॥

जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥

तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥

जब भगवान ने अपनी माया को हटा लिया, तब वहाँ न लक्ष्मी ही रह गईं, न राजकुमारी ही। तब मुनि ने अत्यंत भयभीत होकर हरि के चरण पकड़ लिए और कहा – हे शरणागत के दुःखों को हरनेवाले! मेरी रक्षा कीजिए।

मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥

मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥

हे कृपालु! मेरा शाप मिथ्या हो जाए। तब दीनों पर दया करनेवाले भगवान ने कहा कि यह सब मेरी ही इच्छा (से हुआ) है। मुनि ने कहा – मैंने आप को अनेक खोटे वचन कहे हैं। मेरे पाप कैसे मिटेंगे?

जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरत बिश्रामा॥

कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥

(भगवान ने कहा -) जाकर शंकर के शतनाम का जप करो, इससे हृदय में तुरंत शांति होगी। शिव के समान मुझे कोई प्रिय नहीं है, इस विश्वास को भूलकर भी न छोड़ना।

जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥

अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥

हे मुनि ! पुरारि (शिव) जिस पर कृपा नहीं करते, वह मेरी भक्ति नहीं पाता। हृदय में ऐसा निश्चय करके जाकर पृथ्वी पर विचरो। अब मेरी माया तुम्हारे निकट नहीं आएगी।

दो० – बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान।

सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥ 138॥

बहुत प्रकार से मुनि को समझा-बुझाकर (ढाढ़स देकर) तब प्रभु अंतर्धान हो गए और नारद राम के गुणों का गान करते हुए सत्य लोक (ब्रह्मलोक) को चले॥ 138॥

हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगत मोह मन हरष बिसेषी॥

अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए॥

शिव के गणों ने जब मुनि को मोहरहित और मन में बहुत प्रसन्न होकर मार्ग में जाते हुए देखा तब वे अत्यंत भयभीत होकर नारद के पास आए और उनके चरण पकड़कर दीन वचन बोले –

हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया॥

श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥

हे मुनिराज! हम ब्राह्मण नहीं हैं, शिव के गण हैं। हमने बड़ा अपराध किया, जिसका फल हमने पा लिया। हे कृपालु! अब शाप दूर करने की कृपा कीजिए। दीनों पर दया करनेवाले नारद ने कहा –

निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥

भुज बल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ॥

तुम दोनों जाकर राक्षस होओ; तुम्हें महान ऐश्वर्य, तेज और बल की प्राप्ति हो। तुम अपनी भुजाओं के बल से जब सारे विश्व को जीत लोगे, तब भगवान विष्णु मनुष्य का शरीर धारण करेंगे।

समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥

चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥

युद्ध में हरि के हाथ से तुम्हारी मृत्यु होगी, जिससे तुम मुक्त हो जाओगे और फिर संसार में जन्म नहीं लोगे। वे दोनों मुनि के चरणों में सिर नवाकर चले और समय पाकर राक्षस हुए।

दो० – एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।

सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार॥ 139॥

देवताओं को प्रसन्न करनेवाले, सज्जनों को सुख देनेवाले और पृथ्वी का भार हरण करनेवाले भगवान ने एक कल्प में इसी कारण मनुष्य का अवतार लिया था॥ 139॥

एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥

कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥

इस प्रकार भगवान के अनेक सुंदर, सुखदायक और अलौकिक जन्म और कर्म हैं। प्रत्येक कल्प में जब-जब भगवान अवतार लेते हैं और नाना प्रकार की सुंदर लीलाएँ करते हैं,

तब-तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥

बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥

तब-तब मुनीश्वरों ने परम पवित्र काव्य रचना करके उनकी कथाओं का गान किया है और भाँति-भाँति के अनुपम प्रसंगों का वर्णन किया है, जिनको सुनकर समझदार (विवेकी) लोग आश्चर्य नहीं करते।

हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥

रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥

हरि अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। रामचंद्र के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते।

यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी॥

प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी। सेवत सुलभ सकल दुखहारी॥

(शिव कहते हैं कि) हे पार्वती! मैंने यह बताने के लिए इस प्रसंग को कहा कि ज्ञानी मुनि भी भगवान की माया से मोहित हो जाते हैं। प्रभु कौतुकी (लीलामय) हैं और शरणागत का हित करनेवाले हैं। वे सेवा करने में बहुत सुलभ और सब दुःखों के हरनेवाले हैं।

सो० – सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल।

अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥ 140॥

देवता, मनुष्य और मुनियों में ऐसा कोई नहीं है, जिसे भगवान की महान बलवती माया मोहित न कर दे। मन में ऐसा विचारकर उस महामाया के स्वामी (प्रेरक) भगवान का भजन करना चाहिए॥ 140॥

अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥

जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥

हे गिरिराजकुमारी! अब भगवान के अवतार का वह दूसरा कारण सुनो – मैं उसकी विचित्र कथा विस्तार करके कहता हूँ – जिस कारण से जन्मरहित, निर्गुण और रूपरहित ब्रह्म अयोध्यापुरी के राजा हुए।

जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥

जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥

जिन प्रभु राम को तुमने भाई लक्ष्मण के साथ मुनियों का-सा वेष धारण किए वन में फिरते देखा था और हे भवानी! जिनके चरित्र देखकर सती के शरीर में तुम ऐसी बावली हो गई थीं कि –

अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥

लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥

अब भी तुम्हारे उस बावलेपन की छाया नहीं मिटती, उन्हीं के भ्रमरूपी रोग के हरण करनेवाले चरित्र सुनो। उस अवतार में भगवान ने जो-जो लीला की, वह सब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार तुम्हं कहूँगा।

भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसुकानी॥

लगे बहुरि बरनै बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥

(याज्ञवल्क्य ने कहा -) हे भरद्वाज! शंकर के वचन सुनकर पार्वती सकुचाकर प्रेमसहित मुसकराईं। फिर वृषकेतु शिव जिस कारण से भगवान का वह अवतार हुआ था, उसका वर्णन करने लगे।

दो० – सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाइ।

रामकथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ॥ 141॥

हे मुनीश्वर भरद्वाज! मैं वह सब तुमसे कहता हूँ, मन लगाकर सुनो। राम की कथा कलियुग के पापों को हरनेवाली, कल्याण करनेवाली और बड़ी सुंदर है॥ 141॥

स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥

दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥

स्वायंभुव मनु और (उनकी पत्नी) शतरूपा, जिनसे मनुष्यों की यह अनुपम सृष्टि हुई, इन दोनों पति-पत्नी के धर्म और आचरण बहुत अच्छे थे। आज भी वेद जिनकी मर्यादा का गान करते हैं।

नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरिभगत भयउ सुत जासू॥

लघु सुत नाम प्रियब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहिं जाही॥

राजा उत्तानपाद उनके पुत्र थे, जिनके पुत्र (प्रसिद्ध) हरिभक्त ध्रुव हुए। उन (मनु) के छोटे लड़के का नाम प्रियव्रत था, जिनकी प्रशंसा वेद और पुराण करते हैं।

देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥

आदि देव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥

पुनः देवहूति उनकी कन्या थी, जो कर्दम मुनि की प्यारी पत्नी हुई और जिन्होंने आदि देव, दीनों पर दया करनेवाले समर्थ एवं कृपालु भगवान कपिल को गर्भ में धारण किया।

सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्त्व बिचार निपुन भगवाना॥

तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥

तत्त्वों का विचार करने में अत्यंत निपुण जिन (कपिल) भगवान ने सांख्य शास्त्र का प्रकट रूप में वर्णन किया, उन (स्वायंभुव) मनु ने बहुत समय तक राज्य किया और सब प्रकार से भगवान की आज्ञा का पालन किया।

सो० – होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन॥

हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥ 142॥

घर में रहते बुढ़ापा आ गया, परंतु विषयों से वैराग्य नहीं होता (इस बात को सोचकर) उनके मन में बड़ा दुःख हुआ कि हरि की भक्ति बिना जन्म यों ही चला गया॥ 142॥

बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥

तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥

तब मनु ने अपने पुत्र को जबरदस्ती राज्य देकर स्वयं स्त्री सहित वन को गमन किया। अत्यंत पवित्र और साधकों को सिद्धि देनेवाला तीर्थों में श्रेष्ठ नैमिषारण्य प्रसिद्ध है।

बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥

पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥

वहाँ मुनियों और सिद्धों के समूह बसते हैं। राजा मनु हृदय में हर्षित होकर वहीं चले। वे धीर बुद्धिवाले राजा-रानी मार्ग में जाते हुए ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों ज्ञान और भक्ति ही शरीर धारण किए जा रहे हों।

पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥

आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥

(चलते-चलते) वे गोमती के किनारे जा पहुँचे। हर्षित होकर उन्होंने निर्मल जल में स्नान किया। उनको धर्मधुरंधर राजर्षि जानकर सिद्ध और ज्ञानी मुनि उनसे मिलने आए।

जहँ जहँ तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥

कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना॥

जहाँ-जहाँ सुंदर तीर्थ थे, मुनियों ने आदरपूर्वक सभी तीर्थ उनको करा दिए। उनका शरीर दुर्बल हो गया था। वे मुनियों के-से (वल्कल) वस्त्र धारण करते थे और संतों के समाज में नित्य पुराण सुनते थे।

दो० – द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।

बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥ 143॥

और द्वादशाक्षर मंत्र (ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) का प्रेम सहित जप करते थे। भगवान वासुदेव के चरणकमलों में उन राजा-रानी का मन बहुत ही लग गया॥ 143॥

करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा॥

पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥

वे साग, फल और कंद का आहार करते थे और सच्चिदानंद ब्रह्म का स्मरण करते थे। फिर वे हरि के लिए तप करने लगे और मूल-फल को त्यागकर केवल जल के आधार पर रहने लगे।

उर अभिलाष निरंतर होई। देखिअ नयन परम प्रभु सोई॥

अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥

हृदय में निरंतर यही अभिलाषा हुआ करती कि हम (कैसे) उन परम प्रभु को आँखों से देखें, जो निर्गुण, अखंड, अनंत और अनादि हैं और परमार्थवादी (ब्रह्मज्ञानी, तत्त्ववेत्ता) लोग जिनका चिंतन किया करते हैं।

नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥

संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥

जिन्हें वेद ‘नेति-नेति’ (यह भी नहीं, यह भी नहीं) कहकर निरूपण करते हैं। जो आनंदस्वरूप, उपाधिरहित और अनुपम हैं एवं जिनके अंश से अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु भगवान प्रकट होते हैं।

ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥

जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजिहि अभिलाषा॥

ऐसे (महान) प्रभु भी सेवक के वश में हैं और भक्तों के लिए (दिव्य) लीला विग्रह धारण करते हैं। यदि वेदों में यह वचन सत्य कहा है, तो हमारी अभिलाषा भी अवश्य पूरी होगी।

दो० – एहि बिधि बीते बरष षट सहस बारि आहार।

संबत सप्त सहस्र पुनि रहे समीर अधार॥ 144॥

इस प्रकार जल का आहार (करके तप) करते छह हजार वर्ष बीत गए। फिर सात हजार वर्ष वे वायु के आधार पर रहे॥ 144॥

बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ ॥

बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥

दस हजार वर्ष तक उन्होंने वायु का आधार भी छोड़ दिया। दोनों एक पैर से खड़े रहे। उनका अपार तप देखकर ब्रह्मा, विष्णु और शिव कई बार मनु के पास आए।

मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥

अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥

उन्होंने इन्हें अनेक प्रकार से ललचाया और कहा कि कुछ वर माँगो। पर ये परम धैर्यवान (राजा-रानी अपने तप से किसी के) डिगाए नहीं डिगे। यद्यपि उनका शरीर हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया था, फिर भी उनके मन में जरा भी पीड़ा नहीं थी।

प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥

मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥

सर्वज्ञ प्रभु ने अनन्य गति (आश्रय)वाले तपस्वी राजा-रानी को ‘निज दास’ जाना। तब परम गंभीर और कृपारूपी अमृत से सनी हुई यह आकाशवाणी हुई कि ‘वर माँगो’।

मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रवन रंध्र होइ उर जब आई॥

हृष्ट पुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥

मुर्दे को भी जिला देनेवाली यह सुंदर वाणी कानों के छेदों से होकर जब हृदय में आई, तब राजा-रानी के शरीर ऐसे सुंदर और हृष्ट-पुष्ट हो गए, मानो अभी घर से आए हैं।

दो० – श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।

बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥ 145॥

कानों में अमृत के समान लगनेवाले वचन सुनते ही उनका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया। तब मनु दंडवत करके बोले, प्रेम हृदय में समाता न था – ॥ 145॥

सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥

सेवत सुलभ सकल सुखदायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥

हे प्रभो! सुनिए, आप सेवकों के लिए कल्पवृक्ष और कामधेनु हैं। आपके चरण रज की ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी वंदना करते हैं। आप सेवा करने में सुलभ हैं तथा सब सुखों के देनेवाले हैं। आप शरणागत के रक्षक और जड़-चेतन के स्वामी हैं।

जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होई यह बर देहू॥

जोसरूप बस सिव मन माहीं। जेहिं कारन मुनि जतन कराहीं॥

हे अनाथों का कल्याण करनेवाले! यदि हम लोगों पर आपका स्नेह है, तो प्रसन्न होकर यह वर दीजिए कि आपका जो स्वरूप शिव के मन में बसता है और जिस (की प्राप्ति) के लिए मुनि लोग यत्न करते हैं।

जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥

देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥

जो काकभुशुंडि के मनरूपी मान सरोवर में विहार करनेवाला हंस है, सगुण और निर्गुण कहकर वेद जिसकी प्रशंसा करते हैं, हे शरणागत के दुःख मिटानेवाले प्रभो! ऐसी कृपा कीजिए कि हम उसी रूप को नेत्र भरकर देखें।

दंपति बचन परम प्रिय लागे। मृदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥

भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥

राजा-रानी के कोमल, विनययुक्त और प्रेमरस में पगे हुए वचन भगवान को बहुत ही प्रिय लगे। भक्तवत्सल, कृपानिधान, संपूर्ण विश्व के निवास स्थान (या समस्त विश्व में व्यापक), सर्वसमर्थ भगवान प्रकट हो गए।

दो० – नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।

लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥ 146॥

भगवान के नीले कमल, नीलमणि और नीले (जलयुक्त) मेघ के समान (कोमल, प्रकाशमय और सरस) श्यामवर्ण शरीर की शोभा देखकर करोड़ों कामदेव भी लजा जाते हैं॥ 146॥

सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥

अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥

उनका मुख शरद (पूर्णिमा) के चंद्रमा के समान छवि की सीमास्वरूप था। गाल और ठोड़ी बहुत सुंदर थे, गला शंख के समान (त्रिरेखायुक्त, चढ़ाव-उतारवाला) था। लाल होठ, दाँत और नाक अत्यंत सुंदर थे। हँसी चंद्रमा की किरणावली को नीचा दिखानेवाली थी।

नव अंबुज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँतीजी की॥

भृकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥

नेत्रों की छवि नए (खिले हुए) कमल के समान बड़ी सुंदर थी। मनोहर चितवन जी को बहुत प्यारी लगती थी। टेढ़ी भौंहें कामदेव के धनुष की शोभा को हरनेवाली थीं। ललाट पटल पर प्रकाशमय तिलक था।

कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥

उरबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥

कानों में मकराकृत (मछली के आकार के) कुंडल और सिर पर मुकुट सुशोभित था। टेढ़े (घुँघराले) काले बाल ऐसे सघन थे, मानो भौंरों के झुंड हों। हृदय परवत्स, सुंदर वनमाला, रत्नजड़ित हार और मणियों के आभूषण सुशोभित थे।

केहरि कंधर चारु जनेऊ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥

मकरि कर सरिस सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥

सिंह की-सी गर्दन थी, सुंदर जनेऊ था। भुजाओं में जो गहने थे, वे भी सुंदर थे। हाथी की सूँड़ के समान (उतार-चढ़ाववाले) सुंदर भुजदंड थे। कमर में तरकस और हाथ में बाण और धनुष (शोभा पा रहे) थे।

दो० – तड़ित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि।

नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भँवर छबि छीनि॥ 147॥

(स्वर्ण-वर्ण का प्रकाशमय) पीतांबर बिजली को लजानेवाला था। पेट पर सुंदर तीन रेखाएँ (त्रिवली) थीं। नाभि ऐसी मनोहर थी, मानो यमुना के भँवरों की छवि को छीने लेती हो॥ 147॥

पद राजीव बरनि नहिं जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥

बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥

जिनमें मुनियों के मनरूपी भौंरे बसते हैं, भगवान के उन चरणकमलों का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। भगवान के बाएँ भाग में सदा अनुकूल रहनेवाली, शोभा की राशि जगत की मूलकारणरूपा आदि शक्ति जानकी सुशोभित हैं।

जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥

भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥

जिनके अंश से गुणों की खान अगणित लक्ष्मी, पार्वती और ब्रह्माणी (त्रिदेवों की शक्तियाँ) उत्पन्न होती हैं तथा जिनकी भौंह के इशारे से ही जगत की रचना हो जाती है, वही (भगवान की स्वरूपा-शक्ति) सीता राम की बाईं ओर स्थित हैं।

छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥

चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥

शोभा के समुद्र हरि के रूप को देखकर मनु-शतरूपा नेत्रों के पट (पलकें) रोके हुए एकटक (स्तब्ध) रह गए। उस अनुपम रूप को वे आदर सहित देख रहे थे और देखते-देखते अघाते ही न थे।

हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥

सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥

आनंद के अधिक वश में हो जाने के कारण उन्हें अपने देह की सुधि भूल गई। वे हाथों से भगवान के चरण पकड़कर दंड की तरह (सीधे) भूमि पर गिर पड़े। कृपा की राशि प्रभु ने अपने करकमलों से उनके मस्तकों का स्पर्श किया और उन्हें तुरंत ही उठा लिया।

दो० – बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।

मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥ 148॥

फिर कृपानिधान भगवान बोले – मुझे अत्यंत प्रसन्न जानकर और बड़ा भारी दानी मानकर, जो मन को भाए वही वर माँग लो॥ 148॥

सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥

नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥

प्रभु के वचन सुनकर, दोनों हाथ जोड़कर और धीरज धरकर राजा ने कोमल वाणी कही – हे नाथ! आपके चरणकमलों को देखकर अब हमारी सारी मनःकामनाएँ पूरी हो गईं।

एक लालसा बड़ि उर माहीं। सुगम अगम कहि जाति सो नाहीं॥

तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥

फिर भी मन में एक बड़ी लालसा है। उसका पूरा होना सहज भी है और अत्यंत कठिन भी, इसी से उसे कहते नहीं बनता। हे स्वामी! आपके लिए तो उसका पूरा करना बहुत सहज है, पर मुझे अपनी कृपणता (दीनता) के कारण वह अत्यंत कठिन मालूम होता है।

जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥

तासु प्रभाउ जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥

जैसे कोई दरिद्र कल्पवृक्ष को पाकर भी अधिक द्रव्य माँगने में संकोच करता है, क्योंकि वह उसके प्रभाव को नहीं जानता, वैसे ही मेरे हृदय में संशय हो रहा है।

सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥

सकुच बिहाइ मागु नृप मोही। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥

हे स्वामी! आप अंतर्यामी हैं, इसलिए उसे जानते ही हैं। मेरा वह मनोरथ पूरा कीजिए। (भगवान ने कहा -) हे राजन! संकोच छोड़कर मुझसे माँगो। तुम्हें न दे सकूँ ऐसा मेरे पास कुछ भी नहीं है।

दो० – दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ।

चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥ 149॥

(राजा ने कहा -) हे दानियों के शिरोमणि! हे कृपानिधान! हे नाथ! मैं अपने मन का सच्चा भाव कहता हूँ कि मैं आपके समान पुत्र चाहता हूँ। प्रभु से भला क्या छिपाना!॥ 149॥

देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥

आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥

राजा की प्रीति देखकर और उनके अमूल्य वचन सुनकर करुणानिधान भगवान बोले – ऐसा ही हो। हे राजन! मैं अपने समान (दूसरा) कहाँ जाकर खोजूँ! अतः स्वयं ही आकर तुम्हारा पुत्र बनूँगा।

सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरें॥

जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥

शतरूपा को हाथ जोड़े देखकर भगवान ने कहा – हे देवी! तुम्हारी जो इच्छा हो, सो वर माँग लो। (शतरूपा ने कहा -) हे नाथ! चतुर राजा ने जो वर माँगा, हे कृपालु! वह मुझे बहुत ही प्रिय लगा।

प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥

तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥

परंतु हे प्रभु! बहुत ढिठाई हो रही है, यद्यपि हे भक्तों का हित करनेवाले! वह ढिठाई भी आपको अच्छी ही लगती है। आप ब्रह्मा आदि के भी पिता (उत्पन्न करनेवाले), जगत के स्वामी और सबके हृदय के भीतर की जाननेवाले ब्रह्म हैं।

अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥

जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥

ऐसा समझने पर मन में संदेह होता है, फिर भी प्रभु ने जो कहा वही प्रमाण (सत्य) है। (मैं तो यह माँगती हूँ कि) हे नाथ! आपके जो निज जन हैं, वे जो (अलौकिक, अखंड) सुख पाते हैं और जिस परम गति को प्राप्त होते हैं।

दो० – सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु।

सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥ 150॥

हे प्रभो! वही सुख, वही गति, वही भक्ति, वही अपने चरणों में प्रेम, वही ज्ञान और वही रहन-सहन कृपा करके हमें दीजिए॥ 150॥

सुनि मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना॥

जो कछु रुचि तुम्हरे मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं॥

(रानी की) कोमल, गूढ़ और मनोहर श्रेष्ठ वाक्य रचना सुनकर कृपा के समुद्र भगवान कोमल वचन बोले – तुम्हारे मन में जो कुछ इच्छा है, वह सब मैंने तुमको दिया, इसमें कोई संदेह न समझना।

मातु बिबेक अलौकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें॥

बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनती प्रभु मोरी॥

हे माता! मेरी कृपा से तुम्हारा अलौकिक ज्ञान कभी नष्ट न होगा। तब मनु ने भगवान के चरणों की वंदना करके फिर कहा – हे प्रभु! मेरी एक विनती और है –

सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ॥

मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना॥

आपके चरणों में मेरी वैसी ही प्रीति हो जैसी पुत्र के लिए पिता की होती है, चाहे मुझे कोई बड़ा भारी मूर्ख ही क्यों न कहे। जैसे मणि के बिना साँप और जल के बिना मछली (नहीं रह सकती), वैसे ही मेरा जीवन आपके अधीन रहे (आपके बिना न रह सके)।

अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ॥

अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी॥

ऐसा वर माँगकर राजा भगवान के चरण पकड़े रह गए। तब दया के निधान भगवान ने कहा – ऐसा ही हो। अब तुम मेरी आज्ञा मानकर देवराज इंद्र की राजधानी (अमरावती) में जाकर वास करो।

दो० – तहँ करि भोग बिसाल तात गएँ कछु काल पुनि।

होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत॥ 151॥

हे तात! वहाँ (स्वर्ग के) बहुत-से भोग भोगकर, कुछ काल बीत जाने पर, तुम अवध के राजा होगे। तब मैं तुम्हारा पुत्र होऊँगा॥ 151॥

इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारें॥

अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता॥

इच्छानिर्मित मनुष्य रूप सजकर मैं तुम्हारे घर प्रकट होऊँगा। हे तात! मैं अपने अंशों सहित देह धारण करके भक्तों को सुख देनेवाले चरित्र करूँगा।

जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी॥

आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया॥

जिन (चरित्रों) को बड़े भाग्यशाली मनुष्य आदरसहित सुनकर, ममता और मद त्यागकर, भवसागर से तर जाएँगे। आदिशक्ति यह मेरी (स्वरूपभूता) माया भी, जिसने जगत को उत्पन्न किया है, अवतार लेगी।

पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा॥

पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतरधान भए भगवाना॥

इस प्रकार मैं तुम्हारी अभिलाषा पूरी करूँगा। मेरा प्रण सत्य है, सत्य है, सत्य है। कृपानिधान भगवान बार-बार ऐसा कहकर अंतर्धान हो गए।

दंपति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला॥

समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा॥

वे स्त्री-पुरुष (राजा-रानी) भक्तों पर कृपा करनेवाले भगवान को हृदय में धारण करके कुछ काल तक उस आश्रम में रहे। फिर उन्होंने समय पाकर, सहज ही (बिना किसी कष्ट के) शरीर छोड़कर, अमरावती (इंद्र की पुरी) में जाकर वास किया।

दो० – यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु।

भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु॥ 152॥

(याज्ञवल्क्य कहते हैं -) हे भरद्वाज! इस अत्यंत पवित्र इतिहास को शिव ने पार्वती से कहा था। अब राम के अवतार लेने का दूसरा कारण सुनो॥ 152॥

श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, पाँचवाँ विश्राम समाप्त॥

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