Amrita Sher Gil Autobiography | अमृता शेरगिल उर्फ फ्रीदा कहलो का जीवन परिचय : प्रभावशाली और बेबाक़ एक नारीवादी लेखिका, प्रसिद्ध भारतीय चित्रकार
सच्चे कलाकार की खासियत होती है कि या तो वह समय से बहुत आगे चलता है या फिर समय से बहुत पीछे। शायद यही वजह है कि सच्चा कलाकार अपनी इसी खासियत से खास कलाकार बन जाता है। बीसवीं सदी में एक ऐसा दौर था, जब दुनियाभर के कलाकारों में लीक से हट कर काम करने का चलन तेजी से बढ़ने लगा था। उस दौर के इसी चलन ने दुनिया को ऐसे कलाकर दिए, जिन्होंने इतिहास में अपनी एक अमिट छाप छोड़ी। इन्हीं कलाकारों में से एक हैं – प्रसिद्ध भारतीय चित्रकार अमृता शेरगिल उर्फ फ्रीदा कहलो। अमृता बंगाल कला पुनर्जागरण की दक्ष कलाकार के रूप में कला जगत में प्रतिष्ठित है। वे भारत की सबसे महंगी चित्रकार मानी जाती थीं। अपने मात्र 28 साल के जीवनकाल में अमृता ने इतिहास में एक ऐसा रंग डाला जिनसे बने इंद्रधनुष आज भी हमें अचंभित करते हैं।
अमृता शेरगिल अपनी वास्तविक जिंदगी में और अपने आर्ट में भी समकालीन कलाकरों से बहुत आगे थीं। वह परफेक्शनिस्ट नहीं थी, शायद इसीलिए उनकी सोच का दायरा असीमित था।
शिमला में गुजरे अमृता के तीन साल
अमृता शेरगिल का जन्म 1913 में बुडापेस्ट, हंगरी में हुआ। उनके पिता उमराव सिंह शेरगिल मजीठिया संस्कृत और पारसी के विद्वान व कुलीन व्यक्ति थे। उनकी माता मेरी अन्तोनेट्टे गोट्समान हंगरी की एक यहूदी ओपेरा गायिका थीं। उनकी एक छोटी बहन भी थी जिसका नाम इंद्रा सुंदरम था। अमृता शेरगिल का बचपन बुडापेस्ट में गुजरा। 1921 में उनका परिवार शिमला के पास समरहिल में रहने आ गया। यहां उन्होंने पियानो और वायलिन सीखना शुरू किया। नौ साल की उम्र में वे अपनी बहन के साथ शिमला स्थित मॉल रोड पर गेटे थियेटर में अपना कार्यक्रम देने के साथ नाटकों में भी अभिनय करने लगी थीं।
अमृता ने मात्र पांच साल की उम्र से ही चित्रकारी करना शुरू कर दिया था। आठ साल की उम्र से वे चित्रकारी का प्रशिक्षण लेने लगी थीं। 1923 में अमृता इटली के एक मूर्तिकार के संपर्क में आर्इं जो उस समय शिमला में ही थे। 1924 में वे उनके साथ इटली लौट गर्इं।
बाईस साल से भी कम उम्र में बनीं चित्रकार
1934 में यूरोप में रहते हुए भारत आने की तीव्र इच्छा के कारण यहां लौट आर्इं। उन्होंने अनुभव किया कि भारतीय चित्रकार बनना ही उनकी नियति है। भारतीय कला परंपरा में नई खोज उन्होंने शुरू की जो उनकी मृत्यु तक जारी रही| 1936 में कर्ल खंडेवाल ने उन्हें भारतीय मूल की खोज को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया। वे मुगल व पहाड़ी चित्रकला से और अजंता-एलोरा गुफा की कलाओं से भी बेहद प्रभावित थीं। बाईस साल से भी कम उम्र में वे तकनीकी तौर पर चित्रकार बन चुकी थीं और असामान्य प्रतिभाशाली कलाकार के लिए सभी आवश्यक गुण उनमें आ चुके थे। पूरी तरह भारतीय न होने के बावजूद अमृता भारतीय संस्कृति को जानने के लिए बड़ी उत्सुक थीं। उनकी प्रारंभिक कलाकृतियों में पेरिस के कुछ कलाकारों का पाश्चात्य प्रभाव साफ झलकता है। जल्दी ही वे भारत लौटीं और अपनी मृत्यु तक भारतीय कला परंपरा की दोबारा खोज में जुटी रहीं। भले ही उनकी शिक्षा पेरिस में हुई पर अंतत: उनकी तूलिका भारतीय रंग में ही रंगी गई। उनमें छिपी भारतीयता का जीवंत रंग हैं उनके चित्र।
अमृता की चित्रकारी का दूसरा दौर
1938 में अमृता शेरगिल ने हंगरी के डॉ विक्टर इगान से विवाह कर लिया। बाद में वे अपने पति के साथ भारत आ गर्इं और उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के सरया स्थान पर अपने पति के पैतृक निवास में रहने लगीं। वहां उनकी चित्रकारी का दूसरा दौर शुरू हुआ जो मॉडर्न आर्ट पर उसी तरह प्रभावकारी था जैसा बंगाल स्कूल आफ आर्ट के रवींद्रनाथ टैगोर और जैमिनी रॉय का आर्टिस्ट मूवमेंट कलकत्ता ग्रुप व प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप पर था। कलकत्ता समूह, जो 1943 में एक बड़े रूप में रूपांतरित होकर आरंभ होना था और प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट समूह जिसके संस्थापक फ्रांसिस न्यूटन सूजा, ऊराब्रेक गेड, एम-एफ हुसैन, एसएच रजा थे। उन्होंने मुंबई में 1948 में इसे परवान चढ़ाया।
कैनवास पर उतरीं आम भारतीय महिलाएं
बीसवीं सदी की शुरुआत में महिलाओं का अस्तित्व घर की चारहदीवारी तक सीमित था। क्रांतिकारी बदलाव के उस दौर से नदारद भारत की पेशेवर औरतें या तो मजदूर होतीं या फिर घरेलू नौकर हुआ करती थीं। ऐसे में अमृता का अपने काम के लिए किसी भी यूरोपीय देश की तुलना में भारत को महत्त्व देना उनकी ऊंची और अलग सोच को दिखाता है। उस समय पश्चिमी तौर-तरीकों में पली-बढ़ी किसी भी महिला का अपने कार्यक्षेत्र के लिए यह निर्णय किसी आम औरत के लिए संभव नहीं था। अमृता ने अपने कैनवास पर अजंता की गुफाएं, दक्षिण भारत की संस्कृति, बनारस को उतारते-उतारते अनजाने में एक नए युग की शुरुआत कर दी। इसके साथ ही, उन्होंने भारतीय आम-जनजीवन को भी रंगों से जीवंत किया। वहीं पहली बार, रसोई के चूल्हे और घर की चारहदीवारी में कैद भारतीय महिलाओं को वह अपने कैनवास पर लेकर आर्इं।
कैनवास पर वो स्वतंत्र भारतीय महिलाएं
अमृता कलाकार थीं तो संवेदनशील उन्हें होना ही था, लेकिन हर जज्बे में उतनी ही प्रवीणता बहुत कम कलाकारों में देखने को मिलती है। जितनी खूबसूरत उतनी ही दृढ़, जितनी भावुक उतनी ही व्यावहारिक, जितनी प्रेमल उतनी ही उदासीन। भारतीय महिलाओं को रचते हुए अमृता कितनी मुखर हो जाती थीं इस बात को उनके बनाए चित्रों को देख कर महसूस किया जा सकता है। उन्होंने स्त्री को ऐसा भी रचा जैसे वो उस समय थीं और वैसा भी जैसा अमृता खुद उन्हें देखना चाहती थीं। स्वतंत्र क्लासिकल इंडियन आर्ट को मॉडर्न इंडियन आर्ट की दिशा देने का श्रेय अमृता शेरगिल को ही जाता है।
तुम्हारी अमृता
अमृता शेरगिल को 1976-79 में आर्कियोलोजिक्ल सर्वे आफ इंडिया ने नौ दक्ष कलाकरों में रखा और उनकी कृतियों को आर्ट ट्रेजर के रूप में घोषित किया गया। इनमें से अधिकतर कृतियां नई दिल्ली के नेशनल गैलरी आफ मॉडर्न आर्ट में रखी गई है। अमृता के एक चित्र हिल वूमन पर 1978 में डाक टिकट जारी किया गया। साथ ही लुटियंस रोड का नाम -अमृता शेरगिल मार्ग रखा गया। 1993 में अमृता, जावेद सिद्दिकी के एक उर्दू नाटक की प्रेरणास्रोत बनीं- तुम्हारी अमृता। इस नाटक में शबाना आजमी और फारुख शेख ने अभिनय किया था।
बेशकीमती अमृता शेरगिल
1941 में लाहौर में अपना एक बड़ा प्रदर्शन करने से पहले वे गंभीर रूप से बीमार हो गर्इं और कोमा में चली गर्इं। बाद में पांच दिसंबर 1941 को मध्यरात्रि में उनका देहांत हो गया। अमृता अपने पीछे एक बड़ी विरासत छोड़ गर्इं। उनकी मृत्यु उनके समकालीन चित्रकारों के लिए रहस्य बनी रही। उन्होंने रंगों से भरे अपने छोटे से जीवन में कला जगत को वो दे दिया जिसके आधार पूरब और पश्चिम की कला सालों-साल परखी जा सकती है। इसलिए जो अमृता शेरगिल अपने समय में बे-मोल थीं, अब बेशकीमती हैं।