Babytai Kamble Chronicler Autobiography | बेबी ताई कांबले का जीवन परिचय : दलित औरतों की बुलंद आवाज़

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कहते हैं कलम तलवार से भी ज़्यादा ताक़तवर होती है। हमारे पास हमारे अल्फ़ाज़ों से बड़ा कोई हथियार नहीं है। अपने शब्दों की ताक़त से हम दुनिया बदल सकते हैं। सदियों पुरानी शासन व्यवस्थाओं को ध्वस्त कर सकते हैं। तमाम शोषणकारी शक्तियों को कड़ी चुनौती दे सकते हैं। तमाम लेखक, चिंतक, शिक्षक और समाज सुधारक सदियों से यही करते आ रहे हैं। अपनी कलम से मानव-जाति का इतिहास बदलते आ रहे हैं। ऐसे ही कलम के ज़रिये अपनी आवाज़ दुनिया तक पहुंचाकर, अपनी और अपने जैसे न जाने कितनों की कहानी लिखकर एक सदियों की घिसी-पिटी सामाजिक व्यवस्था का पर्दाफ़ाश करनेवाली हैं : बेबी ताई।

बेबी कांबले, जिन्हें ‘बेबी ताई’ और ‘बेबी बाई’ कहा जाता है, एक दलित लेखिका और आंबेडकरवादी चिंतक थीं। साल 2009 में उनकी आत्मकथा ‘जिणं आमुचं’ उपन्यास के रूप में छपी थी। मराठी में लिखा गया ये उपन्यास अंग्रेज़ी में ‘The Prisons We Broke’ नाम से अनुवादित हुआ और ये सिर्फ़ बेबीताई की आत्मकथा ही नहीं बल्कि उन सब दलित महिलाओं की ज़िंदगी की कहानी है जो जातिवाद और पुरुषवाद के दुगने भार के नीचे दबी हुईं महसूस करती हैं। अपनी कहानी कागज़ पर उतारकर बेबीताई इन सभी औरतों की आवाज़ बनी और मराठी साहित्य में पहली लेखिका के नाम से प्रसिद्ध हुईं।

बेबी ताई का जन्म साल 1929 में महाराष्ट्र में एक दलित परिवार में हुआ था। उनके पूर्वज ब्रिटिश अफसरों के ख़ास नौकर होने के कारण वे और दलित परिवारों से ज़्यादा संभ्रांत थे। पिता मज़दूरों के कांट्रेक्टर का काम करते थे और उनके ज़्यादातर बाहर रहने की वजह से बेबी ताई वीरगाव ज़िले में अपने नाना नानी के पास पली-बढ़ीं। अपनी किताब में वे अपने जन्म को लेकर एक दिलचस्प किस्सा सुनाती हैं। पैदा होते ही वे बहुत बीमार पड़ गई थीं और बेहोश हो गईं। लोगों ने समझा कि वे मर गई हैं और उनकी दाह संस्कार करने को तैयार हो रहे थे। पर उनकी मां ने ऐसा होने नहीं दिया और कहा कि मरने के बाद भी उनकी बच्ची उन्हीं के पास रहेगी। जब बेबी ताई को होश आया तो लोगों ने समझा कि वे मृत से जीवित हो उठीं हैं और ‘भगवान का करिश्मा’ समझकर उनकी आरती उतारने लगे।

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बचपन से ही बाबासाहेब आंबेडकर ने उन्हें बहुत प्रेरित किया था। उनकी विचारधारा और काम का प्रभाव बेबी ताई और उनकी तरह हज़ारों और दलित महिलाओं पर पड़ा था। एक इंटरव्यू में बेबी ताई कहती हैं, “बाबासाहेब के भाषणों का असर मर्दों से ज़्यादा हम औरतों पर होता था। वे दलित बच्चों को स्कूल भेजने की बात करते थे। मर्द तो कहते थे, ‘हमारा बच्चा स्कूल जाकर क्या करेगा? कोई बड़ा अफ़सर थोड़ी बन जाएगा? इससे अच्छा तो हमारी तरह मज़दूरी करके थोड़े पैसे कमा ले।’ पर हम औरतें बाबासाहेब की बात सुनती थीं जब वे हमसे कहते थे, ‘आपने भगवान पर विश्वास रखा है। आपने पीढ़ियों से उस पर भरोसा किया है। अब एक पीढ़ी मुझे भी दे दीजिए। 20 साल के लिए थोड़ी तक़लीफ़ उठाइए और अपने बच्चों को स्कूल भेजिए। चाहे ख़ुद भूखे मर जाइए लेकिन बच्चों को शिक्षा दिलवाइए। बीस साल बाद आप ख़ुद मुझे बताएंगी कि कौन बड़ा है-भगवान या शिक्षा।’ उनकी बात सुनकर हम सब ने अपने बच्चों को स्कूल भेजा। आज जितने भी सफल, उच्च शिक्षित दलित हैं वे सब उसी पीढ़ी से हैं।”

बेबी ताई की ज़िंदगी एक प्रेरणा है जो ये सिखाती है कि कोई भी इंसान बदलाव ला सकता है चाहे वो कितनी भी साधारण परिस्थितियों में क्यों न रहता हो।

ख़ुद चौथी कक्षा तक पढ़ीं हैं बेबी ताई और शायद आगे भी पढ़तीं अगर 13 साल की उम्र में शादी न हो गई होती। उस ज़माने में उनके समुदाय की लड़कियों की शादी सात से दस साल की उम्र तक कर दी जाती थी, जिस हिसाब से उनके लिए बहुत देर हो चुकी थी। उनके बड़े भाई के सहपाठी ने उन्हें पसंद किया और दोनों की शादी ‘गंधर्व विवाह’ के तरीके से हुई। वे कहती हैं, “बाबासाहेब ने कहा था कि शादियां गंधर्व विवाह के अनुसार ही होनी चाहिएं। कोई हिंदू रीति-रिवाज़ नहीं। कोई ब्राह्मण पुरोहित नहीं। कोई दान दक्षिणा या फालतू का खर्चा नहीं। हमारी शादी हमारे ही समुदाय के किसी ने कराई थी और शादी के मंगलाष्टक मेरे भाई ने लिखे थे, जो किसी हिंदू देवी-देवता नहीं बल्कि बाबासाहेब आंबेडकर की प्रशंसा में थे।”

शादी के बाद उनके पति और उनकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब चल रही थी। पैसे कमाने के लिए बेबी ताई ने अंगूर बेचने का सुझाव दिया। “हम खेती से अंगूर के गुच्छे तोड़ लाते थे और उन्हें आठ आने में बेचते थे,” वे कहती हैं “फिर कुछ सालों में हम सब्ज़ियां भी बेचने लगे। फिर हमने घर पर एक किराने की दुकान खोल ली जहां हम तेल, नमक, आटा वगैरह बेचने लगे। मैं रोज़ सुबह नौ बजे तक दुकान पर बैठ जाती थी और मेरे पति घर के लिए सामान खरीदने चले जाते।”

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दुकान पर बैठे-बैठे ही उन्हें लिखने की प्रेरणा मिली। वे बताती हैं, “हमारी दुकान में सामान पैक करने के लिए अखबारें आती थीं। अख़बारों के साथ-साथ कभी एक दो किताबें भी मिल जाती थीं। मैं रोज़ वो अख़बारें और किताबें पढ़ती थी। मुझे पढ़ने की लत लग गई और मैं एक लाइब्रेरी की सदस्य बन गई जहां मैं रोज़ किताबें और अख़बार पढ़ती थी। 30 साल की उम्र में मैंने तय किया कि मुझे भी अपनी कहानी लिखनी चाहिए और मैंने कागज़ पर अपनी ज़िंदगी के अनुभव लिखने शुरू कर दिए। ये मेरे लिए बहुत मुश्किल काम था क्योंकि मुझे छुप छुपकर लिखना पड़ता था। मैं नहीं चाहती थी कि मेरे पति को मेरे लिखने के बारे में पता चले।” बीस साल बेबी ताई ऐसे ही छुप छुपकर लिखती रहीं अपनी आपबीतियां जिन्होंने बाद में ‘जिणं आमुचं’ उपन्यास का रूप लिया।

‘जिणं आमुचं’ में बेबी ताई दलित महिलाओं के जीवन की कई बातें सामने लाती हैं। वे बताती हैं अपने बेटों को स्कूल भेजने के लिए एक औरत को किस तरह की मुश्किलें सहनी पड़ीं। कैसे उसने घर का बचा हुआ अनाज बेच दिया, अपने पति से मार खाई, महीनों भूखी रही लेकिन बेटों की पढ़ाई में कोई बाधा नहीं आने दी। वे उन औरतों की बात करती हैं जिन्हें बच्चा पैदा करने के बाद पेट में दर्द कम करने के लिए सख़्त जोवार निगलना पड़ता था क्योंकि दवाई और उपलब्ध खाना उन्हें नसीब नहीं होते थे। वे बताती हैं किस तरह उनके समुदाय की औरतों को सवर्णों के इलाके से गुज़रते वक़्त उनके सामने झुकना पड़ता था और अगर कोई औरत ऐसा नहीं करती तो अपने ही समुदाय में उसकी बदनामी हो जाती थी इस वजह से कि वो सबकी बेइज़्ज़ती करवाना चाहती है। वे ये भी कहती हैं किस तरह जब दलित औरतें लकड़ी बेचने जाती थीं तब सवर्ण औरतें सही कीमत देने की जगह दूर से ही एक दो सिक्के फेंक देती थीं।

अपनी ज़िंदगी के अंतिम दिन तक बेबी ताई दलित औरतों की आवाज़ बनी रहीं। उनके अधिकारों के लिए लड़ती रहीं। इस उपन्यास के अलावा उनकी कविताओं के कई संकलन भी प्रकाशित हुए और अपने गांव में उन्होंने दलित बच्चों के लिए एक स्कूल भी खोला। 21 अप्रैल 2012 को, 82 की उम्र में बेबी कांबले ने अपनी अंतिम सांस ली।

बेबी ताई की ज़िंदगी एक प्रेरणा है। ये हमें सिखाती है कि कोई भी इंसान बदलाव ला सकता है चाहे वो कितनी भी साधारण परिस्थितियों में क्यों न रहता हो। बेबी ताई की बेबाक़ी और उनके जज़्बे को हमारा सलाम है।

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