साधारण का आनंद – भवानी प्रसाद मिश्र

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सागर से मिलकर जैसे
नदी खारी हो जाती है
तबीयत वैसे ही
भारी हो जाती है मेरी
सम्पन्नों से मिलकर

व्यक्ति से मिलने का
अनुभव नहीं होता
ऐसा नहीं लगता
धारा से धारा जुड़ी है
एक सुगंध
दूसरी सुगंध की ओर मुड़ी है

तब कहना चाहिए
सम्पन्न व्यक्ति
व्यक्ति नहीं है
वह सच्ची कोई
अभिव्यक्ति नहीं है
कई बातों का जमाव है
सही किसी भी
अस्तित्व का अभाव है
मैं उससे मिलकर
अस्तित्वहीन हो जाता हूँ

दीनता मेरी
बनावट का कोई तत्व नहीं है
फिर भी धनाढ्य से मिलकर
मैं दीन हो जाता हूँ

अरति जन संसदि का मैंने
इतना ही अर्थ लगाया है
अपने जीवन के
समूचे अनुभव को
इस तथ्य में समाया है
कि साधारण जन
ठीक जन है
उससे मिलो जुलो
उसे खोलो
उसके सामने खुलो
वह सूर्य है जल है
फूल है फल है
नदी है धारा है
सुगंध है
स्वर है ध्वनि है छंद है
साधारण का ही
जीवन में आनंद है!

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