भूतडामर तन्त्र पटल १४ – Bhoot Damar Tantra Patal 14, भूतडामरतन्त्रम् चतुर्दश पटलम्
तन्त्र श्रृंखला में आगमतन्त्र से भूतडामर महातन्त्र अथवा भूतडामरतन्त्र के पटल १३ में किन्नरी साधन, ६ प्रकार की किन्नरियाँ, उपासनविधि को दिया गया, अब पटल १४ में परिषन्मण्डल- वर्णन, क्रोधभैरव पूजन, मुद्राविधियाँ का वर्णन हुआ है।
भूतडामरतन्त्रम् चतुर्दश: पटल:
भूतडामरतन्त्र चौदहवां पटल
भूतडामर महातन्त्र
अथ चतुर्दशंटलम्
श्रीमत्युन्मत्तभैरव्युवाच
व्योमकेश ! महाकाल ! प्रलयानलविग्रह! ।
सर्वलोकहितार्थाय क्रोधध्यानं सुरेश्वर ! ।
उन्मत्तभैरवं नत्वा पप्रच्छोन्मत्तभैरवी ।
परिषन्मण्डलं ब्रूहि यदि तुष्टोऽसि मे प्रभो ! ॥ १ ॥
उन्मत्तभैरव को प्रणाम करके उन्मत्तभैरवी पूछती हैं– हे प्रभो ! हे व्योमकेश ! हे महाकाल ! हे प्रलयकालीन वह्नि के समान शरीर वाले तथा हे देवाधिदेव ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तब परिषन्मण्डलस्थ क्रोधदेवता के ध्यान का समस्त प्राणियों के कल्याण के लिए मुझे उपदेश करें ॥ १ ॥
श्रीमदुन्मत्तभैरव उवाच
परिषन्मण्डलं वक्ष्ये देवि ! ते ह्यवधारय ।
दुष्टात्मशमनं प्रोक्तं क्रोधराजेन यत् पुरा ।
महादेवाय कथितं वाञ्छितार्थप्रदायकम् ॥ २ ॥
उन्मत्तभैरव कहते हैं— देवी ! तुम्हें परिषन्मण्डलस्थ क्रोधराज का ध्यान बताता हूँ, सुनो। इसे पहले क्रोधराज ने महादेव से कहा था। इसके द्वारा दुष्टों को दण्ड दिया जाता है और वांछित सिद्धि मिलती है ॥ २ ॥
चतुरस्रं चतुर्द्वारं चतुस्तोरणभूषितम् ।
भागैः षोडशभिर्युक्तं वप्रप्राकारशोभितम् ।
तन्मध्ये तु महाभीमं वज्रक्रोधं चतुर्भुजम् ।
ज्वालामालाकुलादीप्तं युगान्ताग्निसमप्रभम् ।
भिन्नाञ्जनमहाकायं कपालकृतभूषणम् ।
अट्टहासं महारौद्रं त्रिलोकेषु भयङ्करम् ।
दक्षिणोर्ध्वकरे वज्रं तर्जनीं वामपाणिना ।
क्रोधमुद्राञ्च तदधः पाणिभ्यां धारिणं भजे ।
शशाङ्कुशेखरं त्र्यक्षं सदा गोक्षीरपाण्डुरम् ।
महादेवं चतुर्बाहं शूलचामरधारिणम् ।
चापशक्तिसमायुक्तं क्रोधदक्षे वृषासनम् ।
शङ्खचक्रगदाचामराठ्यं वामे खगासनम् ।
पृष्ठभागे तथा शक्रं सर्वालङ्कारभूषितम् ।
पीतवस्त्रं त्रिनेत्रश्च हस्तिस्थं चामरान्वितम् ।
पुरतः कार्तिकेयश्च मयूरस्थं विचिन्तयेत् ।
चामरव्यग्रहस्ताग्रं हिमकुन्देन्दुसन्निभम् ।
आग्नेयादीशपर्यन्तं द्वे द्वे शक्ती च कोणगे ।
सिंहध्वजान्वितामग्नौ महाभूतिन्यपि क्रमात् ।
नैर्ऋते सुरपूर्वाञ्च हारिणीं दैत्यनाशिनीम् ।
रत्नेश्वरीं भूषणीच वायुकोणे न्यसेत् पुनः ।
न्यसेदीशे जगत्पालिनीश्च पद्मावतीं पुनः ।
श्वेतामाद्यां परां गौरीमेवमष्टो क्रमोदिताः ।
भूषिता नीलवस्त्रेण माल्यादिभिरलङ्कृताः ।
वेष्टिता नीलवस्त्रेण हुंकृतारीन् विनाशयेत् ॥ ३॥
चतुष्कोणात्मक, चतुर्द्वारयुक्त, चार तोरणों से सुशोभित १६ अंशों से युक्त वप्र तथा प्राकार से शोभित परिमण्डल में क्रोधदेव विराजमान हैं । महाभयंकर क्रोधदेवता की मूर्ति अग्निशिखामाला समूह से उद्दीप्त है । वे प्रलयान्तकारी अग्नि के समान प्रभायुक्त हैं। उनका महान् शरीर अंजन वर्णवाला महारौद्र तथा त्रिभुवन के लिए भयानक है । वे नरकपालों के अलंकरण को धारण करते हैं और सर्वदा अट्टहास करते रहते हैं। वे चार हाथों वाले हैं। इनके दाहिने ऊपरी हस्त में वज्र तथा बायें ऊपरी हस्त में तर्जनी मुद्रा है । निचले दाहिने हाथ में क्रोधमुद्रा तथा बायें हाथ में भी क्रोधमुद्रा है। इन क्रोधदेव के दाहिनी ओर महादेव वृषभासन पर आसीन हैं। उनके चारों हाथों में क्रमशः त्रिशूल चामर- धनुष तथा शक्ति है । इनके तीन नेत्र हैं। मुकुट में चन्द्रकला शोभित है और देह गोदुग्ध के समान सदा गौर वर्णवाला है। क्रोधदेव के वाम भाग में गरुड़ पर विष्णु आसीन हैं । इनके हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा चामर हैं । क्रोधदेव की पीठ की ओर समस्त आभूषणों से सुशोभित इन्द्र हाथी पर विराजमान हैं। इनके तीन नेत्र हैं और हाथ में चामर विराजमान है। ये पीतवस्त्र धारण किये हैं । क्रोधदेव के चारों ओर महादेव, विष्णु, इन्द्र तथा कार्तिकेय चामर डुलाकर क्रोधराज को प्रसन्न कर रहे हैं। क्रोधराज के अग्निकोण से लेकर ईशानकोण पर्यन्त प्रत्येक कोण पर २-२ शक्ति विराजित हैं। अग्निकोण में सिंहध्वजा तथा महाभूतिनी शक्ति, नैर्ऋतकोण में सुरहासिनी तथा दैत्य- नाशिनी, वायुकोण में रत्नेश्वरी तथा भूषणी एवं ईशानकोण में जगत्पालिनी तथा पद्मावती शक्तियाँ हैं। प्रत्येक शक्तियों में से पहली श्वेतवर्णा है, दूसरी गौरवर्णा है एवं नीलवर्ण वाले वस्त्र पहनी हुई हैं। उनका समस्त शरीर नीलवर्ण के परिधान से ढका हुआ है तथा वे माला द्वारा सुशोभित हैं । हुंकार द्वारा शत्रुओं का नाश करती हैं ।। ३ ।।
नागिन्योऽप्सरसो यक्षकामिन्यो नागकन्यकाः ।
भूतिन्यश्चाम्बिकाः सर्वा भूताः प्रेताः पिशाचकाः ।
उच्चारात् क्रोधमन्त्रस्य विनश्यन्ति क्षणेन ते ॥ ४ ॥
इस क्रोधमन्त्र के उच्चारण से नागिनियाँ, नागकन्याएँ, अप्सराएँ, यक्षिणियाँ, भूतिनियाँ, भूत-प्रेत तथा पिशाचादि नष्ट हो जाते हैं ।। ४ ।।
प्रालेयं बीजमुद्धृत्य क्रोधबीजत्रयं पुनः ।
अस्त्रत्रयाद्वज्जगदं क्रोधदीप्तमहापदम् ।
क्रोधं ज्वलद्वयं वायुं सादरं मारय द्वयम् ।
क्रोधबीजत्रयादस्त्रत्रयान्तमुद्धरेन्मनुम् ॥ ५ ॥
वज्रक्रोधदेव का मन्त्र —
ॐ हुं हुं हुं फट् फट् वज्रक्रोधदीप्त महाक्रोध ज्वल ज्वल मारय मारय हुं हुं हुं फट् फट् फट् ।। ५ ।।
अस्य भाषितमात्रेण म्रियन्ते सर्वदेवताः ।
पतन्ति नरके घोरे शुष्यन्ति प्रस्फुटन्त्यपि ॥ ६॥
इस मन्त्र के उच्चारण से ही समस्त लौकिक देवता शुष्क, विदीर्ण तथा मृत हो जाते हैं तथा घोर नरक को प्राप्त हो जाते हैं ।। ६ ।।
उद्धरेत् प्रथमं क्रोधं महाकालं निरञ्जनम् ।
शत्रुमायुधमन्त्रश्व क्रोधमन्त्रोऽयमीरितः ।
क्रोधमुद्रां विधायेत्थं मन्त्रं शिष्याय कीर्त्तयेत् ।
प्रालेयात् प्रविश क्रोध क्रोधबीजान्तमुद्धरेत् ।
ज्वालामालाकुलं ध्यायन् द्वितीयः स्यात् सुरान्तकः ॥ ७ ॥
‘हुं हुं हुं फट् फट्‘ यह क्रोधमन्त्र है। ऊपर कही गयी क्रोधमुद्रा का प्रदर्शन कर यह मन्त्र शिष्य को प्रदान करे ।
ॐ प्रविश हुं हुं‘ इस क्रोधमन्त्र का ध्यान जप करने पर देवगण को भी विनाश करने की शक्ति मिल जाती है॥७॥
अथ तस्याङ्गदेव्यो यास्तासां मन्त्रं वदाम्यहम् ।
विशाच्चक्षुः पदं गृह्य श्रीसिंहध्वजकारिणी ।
कूचं भूतेश्वरीबीजं सादरं क्रोधपूर्वतः ।
विशाद् भूतेश्वरं रौद्रं क्रोधात् पद्मावतीपदम् ।
धनुर्बाणपद गृह्य धारिणीकूर्चसंयुतम् ।
क्रोधस्य पृष्ठतोऽन्यस्य दक्षभागे पुनन्यसेत् ।
विषं निरञ्जनं रौद्रं बीजं गृह्य विभूतिनीम् ।
अङ्कुशधारिणी कूचं गृह्य वायुकलान्वितम् ।
क्रोधवामे न्यसेदेवं विषबीजं निरञ्जनम् ।
बहुरूपिणीमाभाष्य कपालिन्या दशान्विता ।
सुरतो हारिणी चिन्तामणिध्वजपदं ततः ।
नाशिनीति पदं प्रोच्य कूर्चान्तं मनुमुद्धरेत् ।
विषाद्वरपदाज्ज्वालिनीति पदमुदीरयेत् ।
ततः परं ज्वरपदाद्धारिणी पदमुद्धरेत् ।
पुष्पहस्ते पदश्चापि ईशानेशं निरञ्जनम् ।
विषं रत्नेश्वरीबीजं धूपहस्ते निरञ्जनम् ।
आग्नेय्यां विन्यसेद्देवीं धूपहस्तां सुशोभनाम् ।
विन्यसेन्नैर्ऋते भागे प्रालेयात् श्रीविभूषणीम् ।
गन्धहस्ते महाकालो बीजं ज्वलनवल्लभा ।
वायव्ये श्रीजगत्पालिनीपदं समुदीरयेत् ।
दीपहस्ते पदात् कालभैरवीं सादरं पुनः ॥ ८ ॥
अब क्रोधभैरव के सभी अंगदेवताओं के मन्त्र कहे जा रहे हैं-
‘ॐ हुं चक्षुः श्रीसिंहध्वजधारिणी हूं‘। ‘ॐ हुं हुं पद्मावती धनुर्बाणधारिणी हूं‘। इन दो मन्त्रों से क्रोधराज के पीठ की ओर के देवताओं की अर्चना करके फिर दक्षिण भाग की पूजा इस मन्त्र से करे – ‘ॐ हुं हुं विभूतिनी अंकुशधारिणी हूं‘। क्रोधराज के वामभाग की अर्चना हेतु — ॐ हूं बहुरूपिणी कपालिनी ध्वजवासिनी हूं‘। ईशानकोण की अर्चना हेतु – ‘ॐ वरज्वालिनी ज्वरहारिणी हुँ‘। अग्निकोण हेतु – ‘ॐ धूपहस्ते हूं‘। नैर्ऋतकोण हेतु- ‘ॐ श्रीविभूषणि गन्धहस्ते स्वाहा‘ । वायुकोण हेतु ‘श्रीजगत्पालिनि दीपहस्ते हूं‘। इन मन्त्रों से पूजन करे ॥ ८ ॥
मुद्रा सिंहध्वजाख्येयं क्रोधभूपेन भाषिता ।
मुष्टिमन्योऽन्यमास्थाय तर्जनीश्वापि वेष्टयेत् ॥ ९ ॥
मुद्रा विधान इस प्रकार है- दोनों हाथ की मुट्ठियाँ बाँधकर आपस में सटायें और दोनों तर्जनियों को एक-दूसरे में लपेटे । यह है सिंहध्वजामुद्रा । इसे स्वयं क्रोधराज ने कहा है ॥ ९ ॥
अस्या वामकरस्यापि मुष्टि कटितटे न्यसेत् ।
प्रसार्याकुश्ञ्चयेदक्षतर्जनीमङ्कुशात्मिकाम् ॥ १० ॥
बायें हाथ की मुट्ठी को कटि तट पर रखे और दाहिने हाथ की मुट्ठी को प्रसारित करके पुनः संकुचित करे। इसमें तर्जनी को अंकुशाकार किये रहे ।। १० ।।
कृत्वा तु मुष्टिमन्योऽन्यं वेष्टयेत्तर्जनीद्वयम् ।
प्रसारयेदुभे बाहुमूले धूपात्मिकं न्यसेत् ॥ ११ ॥
दोनों हाथों की मुट्ठियाँ बाँधकर दोनों तर्जनियों को परस्पर लपेटे एवं दोनों बाहुओं को फैलायें ।। ११ ।।
मुष्टिकृत्वा ततोऽन्योऽन्यां प्रसार्य तर्जनीद्वयम् ।
बाहुमूले उभे स्थाप्ये गन्धमुद्रा प्रकीर्तिता ॥ १२ ॥
दोनों हाथों की मुट्टियों को बाँधकर तर्जनीद्वय को फैलाकर बाहुमूल पर स्थापित करे। यह है गन्धमुद्रा ।। १२ ।।
कृत्वाधो दक्षिणां मुष्टि मध्यमाश्व प्रसारयेत् ।
दीपमुद्रेति विख्याता वज्रपाणिविनिर्मिता ॥ १३॥
दाहिने हाथ की मुट्ठी बाँधकर मध्यमा को नीचे फैलाये । यह है दीपमुद्रा । इसे वज्रपाणि ने कहा है ।। १३ ।।
इति भूतडामरमहातन्त्रराजे परिषन्मण्डलक्रोधध्यानविधिर्नाम चतुर्दशं पटलम् ।
भूतडामर महातन्त्र का चौदहवां पटल समाप्त ।
1 thought on “भूतडामर तन्त्र पटल १४ – Bhoot Damar Tantra Patal 14, भूतडामरतन्त्रम् चतुर्दश पटलम्”