भूतडामर तन्त्र पटल १६ – Bhoot Damar Tantra Patal 16, भूतडामरतन्त्रम् षोडश पटलम्

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तन्त्र श्रृंखला में आगमतन्त्र से भूतडामर महातन्त्र अथवा  भूतडामरतन्त्र के पटल १५ में यक्षसिद्धि-विधान, अपराजित मन्त्र को दिया गया, अब पटल १६ में योगिनी साधना, साधनाविधि, श्यामा ध्यान,महाविद्यापूजनविधि, कामेश्वरी वर्णन,उपासना काल का वर्णन हुआ है।

भूतडामरतन्त्रम् षोडश: पटल:        

भूतडामरतन्त्र सोलहवां पटल 

भूतडामर महातन्त्र

अथ षोडशंपटलम्

श्रीमत्युन्मत्तभैरव्युवाच

भूतेश ! परमेशान ! रवीन्द्वग्निविलोचन ! ।

यदि तुष्टोऽसि देवेश ! योगिनीसाधनं वद ।। १ ॥

उन्मत्तभैरवी कहती हैं- हे चन्द्र-सूर्य-अग्नि नेत्रों वाले भूतेश्वर ! परमेश्वर ! देवेश ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तब योगिनी साधना का उपदेश कीजिए ॥। १॥

श्रीमदुन्मत्त भैरव उवाच

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि योगिनीसाधनोत्तमम् ।

सर्वार्थसाधनं नाम देहिनां सर्वसिद्धिदम् ।

अतिगुह्या महाविद्या देवानामपि दुर्लभा ।

यासामभ्यर्चनं कृत्वा यक्षेशो भुवनाधिपः ।

तासामाद्यां प्रवक्ष्यामि सुराणां सुन्दरि ! प्रिये ! ।

यस्याश्वाभ्यर्चनेनैव राजत्वं लभते नरः ॥ २ ॥

उन्मत्त भैरव कहते हैं–हे देवी! अब मैं तुमसे योगिनी साधन का उत्तम विधान कहता हूँ। इससे सर्वार्थसिद्धि मिलती है। यह विधान अतिगोपनीय है तथा देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। जिनकी अर्चना करके यक्षेश्वर त्रिभुवन के अधिपति हो गये हैं एवं जिनकी आराधना से उपासक को राजत्व मिलता है, उसे कहता हूँ ॥ २ ॥

अथ प्रातः समुत्थाय कृत्वा स्नानादिकं शुभम् ।

प्रासादश्व समासाद्य कुर्यादाचमनं ततः ।

प्रणवान्ते सहस्रारं हुं फट् दिग्बन्धनं चरेत् ।

प्राणायामं ततः कुर्यान्मूलमन्त्रेण मन्त्रवित् ।

षडङ्गं मायया कुर्यात् पद्ममष्टदलं लिखेत् ।

तस्मिन् पद्मे तथा मन्त्री जीवन्यासं समाचरेत् ।

पीठे देवान् समभ्यर्च्य ध्यायेद्देवीं जगत्प्रियाम् ।

पूर्णचन्द्रनिभां देवीं विचित्राम्बरधारिणीम् ।

पीनोत्तुङ्गकुचां वामां सर्वज्ञामभयप्रदाम् ।

इति ध्यात्वा च मूलेन दद्यात् पाद्यादिकं शुभम् ।

पुनर्धूपं निवेद्यैव नैवेद्यं मूलमन्त्रतः ।

गन्धचन्दन ताम्बूलं सकर्पूरं सुशोभनम् ॥ ३ ॥

प्रातः उठकर शौच स्नानादि करके अपने घर में आकर हं मन्त्र से आचमन करे । सहस्रारं हुं फट से दिग्बन्धन करे और मूलमन्त्र द्वारा प्राणायाम करना चाहिए। षडंग-न्यास को ह्रीं मन्त्र से करके अष्टदल पद्म बनाये । इसमें प्राणप्रतिष्ठा करके पीठपूजन द्वारा देवी का ध्यान करें। देवी पूर्ण चन्द्रमा के समान आभायुता हैं। वे विचित्र वस्त्र धारण करती हैं। उनके स्तनद्वय स्थूल तथा उत्तुङ्ग हैं। वे सर्वज्ञा तथा वर एवं अभय देने वाली हैं। ऐसे रूप का चिन्तन करके तब ध्यान करे। इस ध्यान के अनन्तर मूलमन्त्र से पाद्यादि प्रदान करे। पुनः मूलमन्त्र से धूपदान देकर नैवेद्य अर्पित करे । तदनन्तर गन्ध-चन्दन- कर्पूरादि से सुगन्धित ताम्बूल अर्पित करे ।। ३ ।।

प्रणवान्ते भवनेशि! आगच्छ सुरसुन्दरि ! ।

वह्नेर्जाया जपेन्मत्रं त्रिसन्ध्यञ्च दिने दिने ।

सहस्रकप्रमाणेन ध्यात्वा देवीं सदा बुधः ।

मासान्तदिवस प्राप्य बलिपूजां सुशोभनाम् ।

कृत्वा च प्रजपेन्मन्त्रं निशीथे सुरसुन्दरी ।

सुदृढं साधकं ज्ञात्वाऽऽयाति सा साधकालये ।

सुप्रेम्णा साधकासा सदा स्मेरमुखी ततः ।

दृष्ट्वा देवीं साधकेन्द्रो दद्यात् पाद्यादिकं शुभम् ।

सचन्दनं सुमनसो दत्त्वाभिलषितं वदेत् ।

मातरं भगिनीं वाथ भार्यां वा भक्तिभावतः ।

यदि माता तदा वित्तं द्रव्यश्च सुमनोहरम् ।

नृपतित्वं प्रार्थितं यत्तद्ददाति दिने दिने ।

पुत्रवत् पालयेल्लोके सत्यं सत्यं सुनिश्चितम् ।

स्वसा ददाति द्रव्यश्व दिव्यं वस्त्रं तथैव च ।

दिव्यां कन्यां समानीय नागकन्यां दिने दिने ।

यद्यद्भूतं वर्तमानं भविष्यच्चैव किं पुनः ।

तत् सर्वं साधकेन्द्राय निवेदयति निश्चितम् ।

यद्यत् प्रार्थयते सर्वं सा ददाति दिने दिने ।

मातृवत् पालयेल्लोके कामनाभिर्मनोगतैः ।

भार्या वा यदि सा देवी साधकस्य मनोहरा ।

राजेन्द्रः सर्वराजानां संसारे साधकोत्तमः ।

स्वर्ग लोके च पाताले गतिः सर्वत्र निश्चिता ।

यद्यद्ददाति सा देवी कथितुं नैव शक्यते ।

तया सार्द्धश्च सम्भोगं करोति साधकोत्तमः ।

अन्यस्त्रीगमनं त्याज्यमन्यथा नश्यति ध्रुवम् ॥ ४ ॥

ॐ आगच्छ सुरसुन्दरि स्वाहा यह मूल मन्त्र है, इससे तीनों सन्ध्याओं में देवी का ध्यान करके प्रति सन्ध्या में १००० जप करे। ऐसा एक मास तक कर के मासान्त में पूजा करके बलि प्रदान करे। तब एकाग्र होकर जप करे । देवी साधक की दृढ़ भक्ति देखकर रात्रि में उसके पास आती हैं और देवी सदा हास्यमुखी तथा प्रेमविशिष्टा होकर साधक के पास उपस्थित रहती है। तब साधक देवी को पाद्य, अर्ध्यादि प्रदान करे। चन्दन के साथ पुष्पार्पण करके मन का अभिलषित पदार्थ वर मांगे। देवी को माता भगिनी या भार्या में से किसी एक शब्द से सम्बोधित करे। मातृसम्बोधन से वित्त, उत्तम द्रव्य, राजत्व तथा वांछित पदार्थ देकर देवी साधक का पुत्रवत् पालन करती हैं । भगिनी मानने पर वे नाना द्रव्य, दिव्य कन्या तथा दिव्य वस्त्र देती हैं। वे नित्य भूत, वर्तमान तथा भविष्य भी बतलाती हैं। भार्या मानने पर साधक राजाओं में श्रेष्ठ होता है और स्वर्ग एवं पाताल में जा सकता है। देवी जो-जो प्रदान करती हैं, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। भार्या मानने पर वह इनके साथ सम्भोग कर सकता है, पर अन्य स्त्री से सम्भोग छोड़ना होगा, नहीं तो क्रोधराज साधक का विनाश कर देते हैं ॥ ४ ॥

ततोऽन्यत्साधनं वक्ष्ये निर्मितं ब्रह्मणा पुरा ।

नदीतीरं समासाद्य कुर्यात् स्नानादिकं ततः ।

पूर्ववत् सकलं कार्यं चन्दनैर्मण्डलं लिखेत् ।

स्वं मन्त्रं तत्र संलिख्यावाह्य ध्यायेन्मनोहराम् ।

कुरङ्गनेत्रां शरदिन्दुवक्त्रां बिम्बाधरां चन्दनगन्धलिप्ताम् ।

चीनांशुकां पीनकुचां मनोज्ञां श्यामां सदा कामहृदां विचित्राम् ।

एवं ध्यात्वा यजेद्देवीमगुरुधूपदीपकैः ।

गन्धपुष्पं रसञ्चैव ताम्बूलादींश्च मूलतः ।

तारं माया आगच्छ मनोहरे वह्निवल्लभे ।

कृत्वायुतं प्रतिदिनं जपेन्मन्त्रं प्रसन्नधीः ।

मासान्तदिवसं प्राप्य कुर्याच्च जपमुत्तमम् ।

आनिशीथं जपेन्मत्रं ज्ञात्वा च साधक दृढम् ।

गत्वा च साधकाभ्याशे सुप्रसन्ना मनोहरा ।

वरं वरय शीघ्र त्वं यत्ते मनसि वर्तते ।

साधकेन्द्रोऽपि तां भक्त्या पाद्याद्यैरर्चयेन्मुदा ।

प्राणायामं षडङ्गञ्च मायया च समाचरेत् ।

सद्यो मांसबल दत्त्वा पूजयेच्च समाहितः ।

चन्दनोदकपुष्पेण फलेन च मनोहरा ।

ततोऽचिता प्रसन्ना सा पुष्णाति प्रार्थितञ्च यत् ।

स्वर्णशतं साधकाय सा ददाति दिने दिने ।

सावशेषं व्ययं कुर्यात् स्थिते तत्र न दास्यति ।

अन्यस्त्रीगमनं तस्य न भवेत् सत्यमीरितम् ।

अव्याहतगतिस्तस्य भवतीति न संशयः ।

इति ते कथिता विद्या सुगोप्या च सुरासुरैः ।

तव स्नेहेन भक्त्या च वक्ष्येऽहं परमेश्वरि ! ॥ ५ ॥

अब अन्य साधन कहता हूँ। इसे पहले ब्रह्मा ने कहा है । तदीतट पर स्नानादि करके तथा चौथे श्लोक में अंकित एवं पूर्वकथित कार्य करके चन्दन से मण्डल लिखे । इसमें अपना मन्त्र लिखे और आवाहन करके मनोहरा का ध्यान करे । उनके मृग के समान नेत्र हैं । मुखमण्डल शरच्चन्द्र के समान है । बिम्बफल के समान अधर हैं । समस्त अंग सुगन्धित चन्दन से लिपा हुआ है । परिधान पट्टवस्त्र का है। स्तन अत्यन्त भारी तथा मूर्ति अत्यन्त मनोहर श्यामवर्ण की है। ये साधक की कामना पूर्ण करती हैं। इस प्रकार से ध्यान करके अगुरु का धूपदान करे और दीपक से भगवती की आरती करे । मूलमन्त्र द्वारा गन्ध, पुष्प तथा ताम्बूल निवेदित करे। यह मूलमन्त्र है – ॐ ह्रीं आगच्छ मनोहरे स्वाहाइसका नित्य १०००० जप करे। एक माह तक ऐसा करने के उपरान्त मासान्त में रात्रिपर्यन्त जप करता रहे। ऐसा करने पर मनोहरा योगिनी साधक के पास आकर वर माँगने को कहती हैं । तब साधक भक्ति- पूर्वक पाद्य, अर्ध्य द्वारा अर्चना करके ह्रींमन्त्र से प्राणायाम एवं षडंगन्यास करके ताजे मांस की बलि देकर संयत रूप से पूजा करे । चन्दनमिश्रित जल, पुष्प तथा फल द्वारा अर्चना करने से योगिनी प्रसन्न होकर प्रार्थित वर देती हैं और प्रतिदिन वे साधक को १० सुवर्णमुद्राएँ भी देती हैं। इसे नित्य खर्च कर देना चाहिए, अन्यथा देवी भविष्य में सुवर्ण नहीं देगी। इस साधना में अन्य स्त्री से सम्भोग-सम्पर्क नहीं रखना चाहिए। इस साधना से साधक की सर्वत्र अव्याहत गति हो जाती है। हे भैरवी! यह अत्यन्त गोपनीय विद्या है। केवल तुम्हारे स्नेह तथा भक्ति को देखकर इसे मैं प्रकाशित कर रहा हूँ ।। ५ ।।

ततो वक्ष्ये महाविद्यां शृणुष्वैकमनाः प्रिये ! ।

गत्वा वटतलं देवीं पूजयेत् साधकोत्तमः ।

प्राणायामं षडङ्गश्च माययाथ समाचरेत् ।

सद्यो मांसबलि दत्त्वा पूजयेत्तां समाहितः ।

अर्घ्यमुच्छिष्टरक्तेन दद्यात्तस्मै दिने दिने ।

प्रचण्डवदनां गौरीं पक्वबिम्बाधरां प्रियाम् ।

रक्ताम्बरधरां वामां सर्वकामप्रदां शुभाम् ।

एवं ध्यात्वा जपेन्मन्त्रमयुतं साधकोत्तमः ।

सप्तदिनं समभ्यर्च्य चाष्टमे दिवसेऽर्चयेत् ।

कायेन मनसा वाचा पूजयेच्च दिने दिने ।

तारं मायां तथा कूर्च रक्षाकर्मणि तद्बहिः ।

आगच्छ कनकान्ते च बहिः स्वाहा महामनुः ।

आनिशीथं जपेन्मन्त्रं बलिं दत्त्वा मनोहरम् ।

साधकेन्द्रं दृढं मत्वा प्रयाति साधकालये ।

साधकेन्द्रोऽपि तां दृष्ट्वा दद्यादर्ध्यादिकं ततः ।

ततः सपरिवारेण भार्या स्यात् कामभोजनैः ।

वज्रभूषादिकं दत्त्वा याति सा निजमन्दिरम् ।

एवं भार्या भवेन्नित्यं साधकाज्ञानुरूपतः ।

आत्मभार्यां परित्यज्य भजेत्ताश्च विचक्षणः ॥ ६ ॥

अब महाविद्या साधना कहते हैं। साधक वटवृक्ष के तल में जाकर देवी की पूजा करे । ह्रीं मन्त्र से प्राणायाम तथा षडंगन्यास करके ताजा मांस बलि देकर संयतचित्त से पूजन करे। इस प्रकार नित्य पूजन करे तथा उच्छिष्ट रक्त से अर्घ्य प्रदान करे। देवी का आकार इस प्रकार है- अत्यन्त प्रचण्ड मुख, गौरवर्ण, पक्व बिम्बीफल के समान ओष्ठ तथा रक्तवर्ण के वस्त्रों को धारण करने वाली हैं। साधक की समस्त कामना पूर्ण करती हैं। इस प्रकार चिन्तन करके १०००० मूलमन्त्र का जप करे। सात दिन तक जप करके आठवें दिन पूजन करे। देवी का मूलमन्त्र है – ॐ ह्रीं हुं रक्ष कर्माणि आगच्छ कनकान्ते स्वाहा तदनन्तर उत्तम बलि देकर रात्रि में मन्त्र का जप करे। तब देवी साधक को दृढ़ प्रतिज्ञा वाला जानकर उसके पास आती हैं । उस समय साधक पाद्य-अर्ध्य के द्वारा देवी की अर्चना करे। इससे देवी साधक की भार्या होकर रहती हैं। वे साधक को वस्त्राभूषणादि भी देकर वह अपने धाम को जाती हैं। साधक उन्हें भार्या रूप में पाकर अपनी स्त्री का त्याग करके उसके साथ स्त्री के समान व्यवहार करे ।। ६ ।।

ततः कामेश्वरीं वक्ष्ये सर्वकामफलप्रदाम् ।

प्रणवं ह्रीं आगच्छ कामेश्वरि स्वाहेति जपेत् ।

वह्नेर्भार्यामहामन्त्रं साधकानां सुखावहम् ।

पूर्ववत् सकलं कृत्वा भूर्जपत्रे सुशोभने ।

गोरोचनाभिः प्रतिमां विनिर्मितामलङ्कृताम् ।

शय्यामारुह्य प्रजपेन्मन्त्रमेकमनास्ततः ।

सहस्रकप्रमाणेन मासमेकं जपेद्बुधः ।

घृतेन मधुना दीपं दद्याच्च सुसमाहितः ।

कामेश्वरीं शशाङ्कास्यां चलत्खञ्जनलोचनाम् ।

सदा लोलगत कान्तां कुसुमास्त्रशिलीमुखाम् ।

एवं ध्यात्वा जपेन्मन्त्रं निशीथे याति सा सदा ।

दृष्ट्वा च साधकश्रेष्ठमाज्ञां देहीति तं वदेत् ।

गत्वा च साधकाभ्यर्णे तद्भक्त्याऽऽकृष्ट मानसा ।

स्त्रीभावेन मुदा तस्यै दद्यात् पाद्यादिकं ततः ।

सुप्रसन्ना महादेवी साधकं साधयेत् सदा ।

अन्नाद्यैरतिभोगेन पतिवत् लालयेत् सदा ।

नीत्वा रात्रि सुखैश्वर्यैर्दत्त्वा च विपुलं धनम् ।

वस्त्रालङ्कारद्रव्याणि प्रभाते याति निश्चितम् ।

एवं प्रतिदिनं तस्य सिद्धिः स्यात् कामरूपतः ॥ ७ ॥

अब सर्वकामप्रदा कामेश्वरी का मन्त्र तथा उसका साधन कहा जाता है। ॐ ह्रीं आगच्छ कामेश्वरि स्वाहा यह मन्त्र साधक के लिए सुखदायक है। पूर्ववत् समस्त न्यास-पूजनादि कार्य करके भोजपत्र पर गोरोचन से सुशोभना देवी की प्रतिमूर्ति अंकित करके शय्या पर बैठकर एकाग्रचित्त से मन्त्र का जप करे । इस प्रकार नित्य १००० जप करे। तदनन्तर घृत तथा शहद मिलाकर प्रदीप जलाकर देवी का इस प्रकार ध्यान करेकामेश्वरी चन्द्रवदना हैं। उनके नेत्र खंजन के समान चंचल हैं। उनके हाथों में कुसुम तथा भ्रमर अस्त्ररूपेण हैं। इस प्रकार ध्यान करके रात्रि में पुनः मन्त्र का जप करे। तब देवी आकर वर माँगने को कहती है । तब साधक स्त्री की भावना से देवी को पाद्य-अर्घ्यं प्रदान करे। देवी प्रसन्न होकर उसका कार्य साधन करके अन्नादि विविध भक्ष्य द्रव्य प्रदान करके उसका पतिवत् पालन करती हैं। विविध प्रकार के सुख भोगों से रात बिताकर साधक को विपुल वस्त्र अलंकार, धनादि देकर सुबह वापस चली जाती है। इस प्रकार प्रतिदिन इच्छानुरूप सिद्धि मिलती है अर्थात् देवी नित्य आती रहती हैं ॥ ७ ॥

ततः पत्रे विनिर्माय पुत्तलीं ध्यानरूपतः ।

सुवर्णवर्णां गौराङ्गीं सर्वालङ्कारभूषिताम् ।

नूपुराङ्गदहाराढ्यां रम्याश्च पुष्करेक्षणाम् ।

एवं ध्यात्वा जपेन्मन्त्रं दद्याच्च पाद्यमुत्तमम् ।

चन्दनेन प्रधानेन जातीपुष्पेण यत्नतः ।

गुग्गुलुं धूपदीपश्ञ्च दद्यान्मूलेन साधकः ।

तारं माया तथाऽऽगच्छ रतिसुन्दरि पदं ततः ।

वह्निजायाष्टसाहस्रं जपेन्मन्त्रं दिने दिने ।

मासान्तदिवसं प्राप्य कुर्यात् पूजादिकं शुभाम् ।

घृतदीपं तथा गन्धं पुष्पं ताम्बूलमेव च ।

तावन्मन्त्रं जपेद्विद्वान् यावदायाति सुन्दरी ।

ज्ञात्वा दृढ साधकेन्द्र निशीथे याति निश्चितम् ।

ततस्तमर्चयेद्भक्त्या जातीकुसुममालया ।

सन्तुष्टा सा साधकेन्द्र तोषयेत् प्रीतिभोजनैः ।

भूत्वा भार्या च सा तस्मै ददाति वाञ्छितं वरम् ।

भूषादिक परित्यज्य प्रभाते याति निश्चितम् ।

साधकाज्ञानुरूपेण सा चायाति दिने दिने ।

निर्जने प्रान्तरे देवि सिद्धः स्यान्नात्र संशयः ।

त्यक्त्वा भार्यां ताश्च भजेदन्यथा नश्यति ध्रुवम् ॥ ८ ॥

ध्यान के अनुरूप भोजपत्र पर एक पुतली बनाकर उसमें देवी का ध्यान करे । देवी सुवर्ण के समान गौरवर्णा तथा नूपुर आदि गहनों से सजी हुई हैं । वे अत्यन्त मनोहरा हैं। उनके नेत्र कमल के समान हैं। इस प्रकार ध्यान करके मन्त्र का जप करे। उसके बाद पाद्य, उत्तम चन्दन, चमेली आदि के पुष्प, गुग्गुलु धूप, दीप को मूलमन्त्र से अर्पित करे। मूलमन्त्र इस प्रकार है- ॐ ह्रीं आगच्छ रतिसुन्दरि स्वाहा इसका नित्य १००० जप एक माह तक करे । मासान्त में पूजा करके घृत का दीपक, गन्ध, पुष्प, ताम्बूल अर्पित करके पुनः मन्त्र का जप करे। तब सुन्दरी साधक को दृढ़ निश्चय वाला जानकर रात्रि में उसके पास आती हैं। साधक चमेली पुष्प की माला से भक्तिपूर्वक उनकी अर्चना करे। देवी प्रसन्न होकर प्रीतिदायक भोजन खिलाकर साधक को सन्तुष्ट करती हैं और साधक की पत्नी होकर उसे वांछित वर देकर भूषणादि को वहीं छोड़कर प्रतिदिन सुबह चली जाती हैं । साधक इस प्रकार निर्जन स्थान में सिद्धि प्राप्त करके अपनी पत्नी का त्याग कर दे, अन्यथा वह नष्ट हो जाता है ॥ ८ ॥

ततोऽन्यत् साधनं वक्ष्ये स्वगृहे शिवसन्निधौ ।

वेदाद्यं भुवनेशीञ्चेहागच्छ पद्मिनि ततः ।

पावकश्च महामन्त्रः पूर्ववत् सकलं ततः ।

मण्डलं चन्दनैः कृत्वा मूलमन्त्रं लिखेत्ततः ।

पद्माननां श्यामवर्णा पीनोत्तुङ्गपयोधराम् ।

कोमलाङ्गीं स्मेरमुखीं रक्तोत्पलदलेक्षणाम् ।

एवं ध्यात्वा जपेन्मन्त्रं सहस्रश्च दिने दिने ।

मासान्ते पूर्णिमां प्राप्य विधिवत् पूजयेन्मुदा ।

आनिशीथं जपं कुर्याद्दृढाभ्यासेन साधकः ।

सर्वत्र कुशलं दृष्ट्वा याति सा साधकालयम् ।

भूत्वा भार्या साधकं हि तोषयेद्विविधैरपि ।

भोग्यद्रव्यं भूषणाद्यैः पद्मिनी सा दिने दिने ।

पतिवत् पालयेल्लोके नित्यं स्वर्गे च सर्वदा ।

त्यक्त्वा भार्यां भजेत्ताश्च साधकेन्द्रः सदा प्रियः ॥ ९ ॥

अब अन्य साधन कहा जा रहा है। साधक अपने घर में या शिवमन्दिर में ॐ ह्रीं आगच्छ पद्मिनि स्वाहा मन्त्र का जप करे। पूर्ववत् समस्त पूजाकृत्य करके रक्तचन्दन से यह मन्त्र लिखे। अब देवी का ध्यान करें। देवी पद्मासना तथा श्यामवर्णा हैं। उनके स्तनद्वय स्थूल तथा ऊंचे हैं। शरीर अति कोमल है। चेहरा हास्यपूर्ण तथा लाल कमल के समान उनके नेत्र हैं। इस प्रकार ध्यान करके एकाग्र हो प्रतिदिन प्रतिपदा से पूर्णिमा तक एक मास १००० जप करे। फिर पूर्णिमा के दिन विधिवत् पूजन करके रात्रि पर्यन्त एकाग्र हो पुनः जप करे। रात्रि में देवी आकर उसकी पत्नी बनकर विविध भक्ष्य द्रव्य तथा भूषणादि से साधक को प्रसन्न करती हैं। पद्मिनी देवी साधक का पतिवत् पालन करके उसे स्वर्ग दिखलाती है। उसके बाद साधक को अपनी पत्नी का त्याग करके पद्मिनी का प्रिय बनना चाहिए ।। ९ ।।

ततो वक्ष्ये महाविद्यां विश्वामित्रेण धीमता ।

ज्ञात्वा या साधिता विद्या बला चातिबला प्रिये ! ।

प्रणवान्ते महामाया नटिनी पावकप्रिया ।

महाविद्येह कथिता गोपनीया प्रयत्नतः ।

अशोकस्य तटं गत्वा स्नानं विधिवदाचरेत् ।

मूलमन्त्रेण सकलं कुर्याच्च सुसमाहितः ।

त्रैलोक्यमोहिनीं गौरीं विचित्राम्बरधारिणीम् ।

विचित्रालङ्कृतां रम्यां नर्तकीवेशधारिणीम् ।

एवं ध्यात्वा जपेन्मन्त्रं सहस्रश्च दिने दिने ।

मांसोपहारैः सम्पूज्य धूपदीपो निवेदयेत् ।

गन्धचन्दन ताम्बूलं दद्यात्तस्यै सदा बुधः ।

मासमेकन्तु तां भक्त्या पूजयेत् साधकोत्तमः ।

मासान्तदिवसं प्राप्य कुर्याच्च पूजनं महत् ।

अर्द्धरात्रौ भयं दत्त्वा किञ्चित् साधकसत्तमे ।

सुदृढं साधकं मत्वा याति सा साधकालयम् ।

विद्याभिः सकलाभिश्व किश्चित् स्मेरमुखी ततः ।

वरं वरय शीघ्र त्वं यत्ते मनसि वर्त्तते ।

तच्छ्रुत्वा साधकश्रेष्ठो भावयेन्मनसा धिया ।

मातरं भगिनीं वापि भार्यां वा प्रीतिभावतः ।

कृत्वा सन्तोषयेद् भक्त्या नटिनी तत्करोत्यलम् ।

माता स्याद्यदि सा देवी पुत्रवत् पालयेन्मुदा ।

अन्नाद्यैरुपहारैश्व ददाति चारुभोजनम् ।

स्वर्णशतं सिद्धिद्रव्यं सा ददाति दिने दिने ।

भगिनी यदि सा कन्यां देवीं वा नागकन्यकाम् ।

राजकन्यां समानीय सा ददाति दिने दिने ।

अतीतानागतां वात्त सर्वं जानाति साधकः ।

भार्या स्याद् यदि सा देवी ददाति विपुलं धनम् ।

अन्नाद्यैरुपहारैश्च ददाति कामभोजनम् ।

स्वर्णशतं सदा तस्मै सा ददाति ध्रुवं प्रिये ! ।

यद्यद् वाञ्छति तत् सर्वं ददाति नात्र संशयः ॥ १० ॥

अब बला अतिबला विद्या का साधन कहा जा रहा है। श्रीविश्वामित्र ने इसका साधन किया था। ॐ ह्रीं नटिनी स्वाहा यह विद्या अति गोपनीय है । अशोक वृक्ष के नीचे जाकर विधिवत् मूलमन्त्र को पढ़ते हुए शौच स्नानादि कार्य सम्पन्न करे। यह देवी त्रिभुवन का मोहन करने वाली, गौरवर्णा, विचित्र वस्त्रधारिणी, नाना अलंकारसम्पन्न, आकृति से मनोहरा तथा नर्तकी का वेश धारण किये रहती हैं। इस प्रकार ध्यान करके एक मास तक उक्त मन्त्र को नित्य १००० जपे । मांस के उपहार से देवी का पूजन करके धूप, दीप, गन्ध, चन्दन तथा ताम्बूल अर्पित करे । मासान्त में महत् पूजन करे और पुनः रात्रि में जप करे । अर्धरात्रि में देवी तनिक भयभीत करती हुई साधक के पास आकर हँसते-हँसते कहती हैंतुम्हारी जो इच्छा हो माँगो । साधक मन में निश्चय करके उन्हें माता, भगिनी या भार्या में से किसी एक सम्बन्ध रखकर सम्बोधित करे । देवी से जो रिश्ता साधक रखेगा वे तदनुरूप आचरण करके उसे सन्तुष्ट करती हैं । मातृसम्बोधन द्वारा देवी अन्नादि भोजन प्रदान करके साधक का पुत्रवत् पालन करती हैं। नित्य १०० सुवर्णमुद्रा तथा नाना द्रव्य प्रदान करती हैं । भगिनी मानने पर देवकन्या, नागकन्या तथा राजकन्या लाकर उसे देती हैं। साधक को भूत, भविष्य, वर्त्तमान बतलाती हैं। भार्या का सम्बोधन करने पर विपुल धन, अन्नादि, सौ सुवर्णमुद्रा नित्य देती हैं ॥ १० ॥

महाविद्यां प्रवक्ष्यामि सावधानावधारय ।

कुङ्कुमेन समालिख्य भूर्जपत्रे स्त्रियं मुदा ।

ततोऽष्टदलमालिख्य कुर्यान्न्यासादिकं प्रिये ! ।

जीवन्यासं ततः कृत्वा ध्यायेत्तत्र प्रसन्नधीः ।

शुद्धस्फटिकसङ्काशां नानारत्नविभूषिताम् ।

मञ्जीरहारकेयूररत्नकुण्डलमण्डिताम् ।

एवं ध्यात्वा जपेन्मन्त्रं सहस्रन्तु दिने दिने ।

प्रतिपत्तिथिमारभ्य पूजयेत् कुसुमादिभिः ।

धूपदीपविधानैश्च त्रिसन्ध्यं पूजयेन्मुदा ।

पूर्णिमां प्राप्य गन्धाद्यैः पूजयेत् साधकोत्तमः ।

घृतदीपं तथा धूपं नैवेद्यश्च मनोहरम् ।

रात्रौ च दिवसे जापं कुर्याच्च सुसमाहितः ।

प्रभातसमये याति साधकस्यान्तिकं ध्रुवम् ।

प्रसन्नवदना भूत्वा तोषयेद्रतिभोजनैः ।

देवदानवगन्धर्वविद्याधृग्यक्षरक्षसाम् I

कन्याभी रत्नभूषाभिः साधकेन्द्रं मुहुर्मुहुः ।

चर्व्य चोष्यादिकं सर्वं ध्रुवं द्रव्यं ददाति सा ।

स्वर्गे मर्त्ये च पाताले यद्वस्तु विद्यते प्रिये ! ।

आनीय दीयते सापि साधकाज्ञानुरूपतः ।

स्वर्ण शतं समादाय सा ददाति दिने दिने ।

साधकाय वरं दत्त्वा याति सा निजमन्दिरम् ।

तस्या वरप्रदानेन चिरजीवी निरामयः ।

सर्वज्ञः सुन्दरः श्रीमान् सर्वेशो भवति ध्रुवम् ।

प्रभवेत् सर्वपूज्यश्च साधकेन्द्रो दिने दिने ।

तारं मायां च गन्धानुरागिणि मैथुनप्रिये ! ।

वह्नेर्भार्यामनुः प्रोक्तः सर्वसिद्धिप्रदायकः ।

एषा मधुमती तुल्या सर्वसिद्धिप्रदा प्रिये ! ।

गुह्याद् गुह्यतरा विद्या तव स्नेहात् प्रकाशिता ।। ११ ।।

अब अन्य महाविद्या-साधना कहते हैं। भोजपत्र पर कुंकुम से स्त्री की मूर्ति अंकित करके अष्टदल कमल की रचना करे। न्यासादि करके इस मूर्ति में प्राणप्रतिष्ठा करके तब ध्यान करे। शुद्धस्फटिक के समान जिसकी देहकान्ति है और जो नानारत्न से विभूषित है, नूपुर, हार, केयूर, रत्नकुण्डलादि से शोभित देवी का ध्यान करके नित्य १००० जप करे। प्रतिपदा से प्रारम्भ करके पुष्प धूप आदि से देवी की पूजा करे। पूर्णिमा तिथि को घी का दीपक जलाकर गन्धादि से पूजन करके धूप तथा अच्छा नैवेद्य अर्पित करे। इस प्रकार अर्चना करके समस्त दिन तथा रात्रि को पुनः मूलमन्त्र का जप करे । सुबह देवी आकर रति एवं भोजन द्रव्यों से साधक को प्रसन्न करती हैं। देव- कन्या, दानवकन्या, गन्धर्व कन्या विद्याधरकन्या, यक्षकन्या, राक्षसकन्या नाना प्रकार के द्रव्य लाकर उसे प्रसन्न करती हैं। देवी नित्य १०० स्वर्णमुद्रा साधक को देकर अपने स्थान को चली जाती हैं। इससे साधक चिरजीवी, नीरोग, श्रीमान्, सर्वज्ञ, सुन्दर तथा सबका अधिपति होकर सबका पूज्य हो जाता है । ॐ ह्रीं गन्धानुरागिणि मैथुनप्रिये स्वाहायह मन्त्र सर्वसिद्धि देने वाला है। मधुमती मन्त्र साधना की तरह ही इस मन्त्र को सिद्ध करे । इस अतिगुप्त मन्त्र को तुम्हारे स्नेह के कारण मैंने प्रकट किया है ।। ११ ।।

देव्युवाच

श्रुतश्च साधनं पुण्यं यक्षिणीनां सुखप्रदम् ।

कस्मिन् काले प्रकर्त्तव्यं विधिना केन वा प्रभो ! ।

अत्राधिकारिणः के वा समासेन वदस्व मे ।

ईश्वर उवाच

वसन्ते साधयेद्धीमान् हविष्याशी जितेन्द्रियः ।

सदा ध्यानपरो भूत्वा तद्दर्शनमहोत्सुकः ।

उटजे प्रान्तरे वापि कामरूपे विशेषतः ।

स्थानेष्वेकतमं प्राप्य साधयेत् सुसमाहितः ।

अनेन विधिना साक्षाद् भविष्यति न संशयः ।

देव्याश्च सेवकाः सर्वे पञ्चरात्राधिकारिणः ।

साधका ब्रह्मणो ये स्युर्न ते चात्राधिकारिणः ॥ १२ ॥

भैरवी पूछती हैं-मैंने सुखप्रद यक्षिणी-साधन को सुना। यह किस समय, किस विधान से तथा किस व्यक्ति द्वारा किया जाय ? इसका यथार्थ अधिकारी कौन है ?

भैरव कहते हैं- हे देवी! धीमान् साधक हविष्य भक्षण करते हुए तथा जितेन्द्रिय होकर वसन्तकाल में यह साधना करे। सभी समय ध्यानयुक्त तथा देवी के दर्शन के लिए उत्सुक होकर चत्वर, प्रान्तर या कामरूप ( आसाम का पश्चिमी भाग ) किसी स्थान में संयत होकर साधना करे। पूर्वोक्त विधान से साधना करने से अवश्य साक्षात्कार होता है। देवी के सेवक ही इस साधना के अधिकारी हैं जो साधक ब्रह्मोपासक है उन्हें इस साधना का अधिकार नहीं है ।। १२ ।।

इति भूतडामरे महातन्त्रे योगिनी साधनं नाम षोडशं पटलम् ।

भूतडामर महातन्त्र का सोलहवां पटल समाप्त ।

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