चाणक्य नीति अध्याय ११ || Chanakya Niti Adhyay 11 Chapter, चाणक्य नीति ग्यारहवां अध्याय

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चाणक्यनीति अध्याय ११- चाणक्य नीति या चाणक्य नीतिशास्त्र (४ से ३ शताब्दी ई॰पु॰ मध्य) चाणक्य द्वारा रचित एक नीति ग्रन्थ है। इसमें सूत्रात्मक शैली में जीवन को सुखमय एवं सफल बनाने के लिए उपयोगी सुझाव दिये गये हैं।

चाणक्य नीति

एकदशोऽध्यायः

दातृत्वं प्रियवक्तृत्वं धीरत्वमुचितज्ञता ।

अभ्यासेन न लभ्यन्ते चत्वारः सहजा गुणाः ।।१।।

दोहा —

दानशक्ति प्रिय बोलिबो, धीरज उचित विचार ।

ये गुण सीखे ना मिलैं, स्वाभाविक हैं चार ॥1

अर्थ — दानशक्ति, मीठी बात करना, धैर्य धारण करना, समय पर उचित अनुचित का निर्णय करना, ये चार गुण स्वाभाविक सिध्द हैं। सीखने से नहीं आते।

आत्मवर्गं परित्यज्य परवर्गं समाश्रयेत् ।

स्वयमेव लयं याति यथा राज्यमधर्मतः ।।२।।

दोहा —

वर्ग आपनो छोडि के, गहे वर्ग जो आन ।

सो आपुई नशि जात है, राज अधर्म समान ॥2

अर्थ — जो मनुष्य अपना वर्ग छोडकर पराये वर्ग में जाकर मिल जाता है तो वह अपने आप नष्ट हो जाता है। जैसे अधर्म से राजा लोग चौपट हो जाते हैं।

हस्ती स्थूलतनुः सचांकुशवशः कि हस्तिमात्रेकुंशः ।

दीपे प्रज्वलिते प्रणश्यति तमः किं दीपमात्रं तमः ।।

वज्रेणापि हताः पतन्ति गिरयः किं वज्रमात्रन्नगाः ।

तेजो यस्य विराजते स बलवान्स्थूलेषुकः प्रत्ययः ।।३।।

सवैया —

भारिकरी रह अंकुश के वश का वह अंकुश भारी करीसों ।

त्यों तम पुंजहि नाशत दीपसो दीपकहू अँधियार सरीसों ॥

वज्र के मारे गिरे गिरिहूँ कहूँ होय भला वह वज्र गिरोसों ।

तेज है जासु सोई बलवान कहा विसवास शरीर लडीसों ॥3

अर्थ — हाथी मोटा-ताजा होता है, किन्तु अंकुश के वश में रहता है तो क्या अंकुश हाथी के बराबर है ? दीपक के जल जाने पर अन्धकार दूर हो जाता है तो क्या अन्धकार के बराबर दीपक है ? इन्द्र के वज्रप्रहार से पहाड गिर जाते हैं तो क्या वज्र उन पर्वतों के बराबर है ? इसका मतलब यह निकला कि जिसमें तेज है, वही बलवान् है यों मोटा-ताजा होने से कुछ नहीं होता।

कलोदश सहस्त्राणि हरिस्त्यजति मेदिनीम् ।

तदर्ध्दं जान्हवीतोयं तदर्ध्दं ग्रामदेवताः ।।४।।

दोहा —

दस हज़ार बीते बरस, कलि में तजि हरि देहि ।

तासु अर्ध्द सुर नदी जल, ग्रामदेव अधि तेहि ॥4

अर्थ — कलि के दस हज़ार वर्ष बीतने पर विष्णु भगवान् पृथ्वी छोड देते हैं। पांच हज़ार वर्ष बाद गंगा का जल पृथ्वी को छोड देता है और उसके आधे यानी ढाई हज़ार वर्ष में ग्रामदेवता ग्राम छोडकर चलते बनते हैं।

गृहासक्तस्य नो विद्या न दया मांस भोजिनः ।

द्रव्यलुब्धस्य नो सत्यं स्त्रैणस्य न पवित्रता ।।५।।

दोहा —

विद्या गृह आसक्त को, दया मांस जे खाहिं

लोभहिं होत न सत्यता, जारहिं शुचिता नाहिं ॥5

अर्थ — गृहस्थी के जंजाल में फँसे व्यक्ति को विद्या नहीं आती मांसभोजी के हृदय में दया नहीं आती लोभी के पास सचाई नहीं आती और कामी पुरुष के पास पवित्रता नहीं आती।

न दुर्जनः साधुदशामुपैति बहुप्रकारैरपि शिक्ष्यमाणः ।

आमूलसिक्तः पयसाघृतेन न निम्बवृक्षौमधुरत्वमेति ।।६।।

दोहा —

साधु दशा को नहिं गहै, दुर्जन बहु सिंखलाय ।

दूध घीव से सींचिये, नीम न तदपि मिठाय ॥6

अर्थ — दुर्जन व्यक्ति को चाहे कितना भी उपदेश क्यों न दिया जाय वह अच्छी दशा को नहीं पहुँच सकता। नीम के वृक्ष को, चाहे जड से लेकर सिर तक घी और दुध से ही क्यों न सींचा जाय फिर भी उसमें मीठापन नहीं आ सकता।

अन्तर्गतमलौ दुष्टः तीर्थस्नानशतैरपि ।

न शुध्दयति यथा भाण्डं सुरदा दाहितं च यत् ।।७।।

दोहा —

मन मलीन खल तीर्थ ये, यदि सौ बार नहाहिं ।

होयँ शुध्द नहिं जिमि सुरा, बासन दीनेहु दाहिं ॥7

अर्थ — जिसके हृदय में पाप घर कर चुका है, वह सैकडों बार तीर्थस्नान करके भी शुध्द नहीं हो सकता। जैसे कि मदिरा का पात्र अग्नि में झुलसने पर भी पवित्र नहीं होता।

न वेत्ति तो यस्य गुण प्रकर्ष

स तं सदा निन्दति नाऽत्र चित्रम् ।

यथा किरती करिकुम्भलब्धां

मुक्तां परित्यज्य बिभर्ति गुञ्जाम् ।।८।।

चा० छ० —

जो न जानु उत्तमत्व जाहिके गुण गान की ।

निन्दतो सो ताहि तो अचर्ज कौन खान की ॥

ज्यों किरति हाथि माथ मोतियाँ विहाय कै ।

घूं घची पहीनती विभूषणै बनाय कै ॥8

अर्थ — जो जिसके गुणों को नहीं जानता, वह उसकी निन्दा करता रहता है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। देखो न, जंगल की रहनेवाली भिलनी हाथी के मस्तक की मुक्ता को छोडकर घुँ घची ही पहनती है।

ये तु संवत्सरं पूर्ण नित्यं मौनेन भुंजते ।

युगकोटि सहस्त्रन्तु स्वर्गलोके महीयते ।।९।।

दोहा —

जो पूरे इक बरस भर, मौन धरे नित खात ।

युग कोटिन कै सहस तक, स्वर्ग मांहि पूजि जात ॥9

अर्थ — जो लोग केवल एक वर्ष तक, मौन रहकर भोजन करते हैं वे दश हज़ार बर्ष तक स्वर्गवासियों से सम्मानित होकर स्वर्ग में निवास करते हैं।

कामं क्रोधं तथा लोभं स्वादुश्रृंगारकौतुकम् ।

अतिनिद्राऽतिसेवा च विद्यार्थी ह्यष्ट वर्जयेत् ।।१०।।

सोरठा —

काम क्रोध अरु स्वाद, लोभ श्रृड्गरहिं कौतुकहि ।

अति सेवन निद्राहि, विद्यार्थी आठौतजे ॥10

अर्थ — काम, क्रोध, लोभ, स्वाद, श्रृड्गर, खेल-तमाशे, अधिक नींद और किसी की अधिक सेवा, विद्यार्थी इन आठ कामों को त्याग दे। क्योंकी ये आठ विद्याध्ययन में बाधक हैं।

अकृष्टफलमुलानि वनवासरितः सदा ।

कुरुतेऽहरहः श्राध्दमृषिर्विप्रः स उच्यते ।।११।।

दोहा —

बिनु जोते महि मूल फल, खाय रहे बन माहि ।

श्राध्द करै जो प्रति दिवस, कहिय विप्र ऋषि ताहि ॥11

अर्थ — जो ब्राह्मण बिना जोते बोये फल पर जीवन बिताता, हमेशा बन में रहना पसन्द करता और प्रति दिन श्राध्द करता है, उस विप्र को ऋषि कहना चाहिए।

एकाहारेण सन्तुष्टः षट्कर्मनिरतः सदा ।

रीतुकालेऽभिगामी च स विप्रो द्विज उच्यते ।।१२।।

सोरठा —

एकै बार अहार, तुष्ट सदा षटकर्मरत ।

ऋतु में प्रिया विहार, करै वनै सो द्विज कहै ॥12

अर्थ — जो ब्राह्मण केवल एक बार के भोजन से सन्तुष्ट रहता और यज्ञ, अध्ययन दानादि षट्कर्मों में सदा लीन रहता और केवल ऋतुकाल में स्त्रीगमन करता है, उसे द्विज कहना चाहिए।

लौकिके कर्मणि रतः पशूनां परिपालकः ।

वाणिज्यकृषिकर्ता यः स विप्रो वैश्य उच्यते ।।१३।।

सोरठा —

निरत लोक के कर्म, पशु पालै बानिज करै ।

खेती में मन कर्म करै, विप्र सो वैश्य है ॥13

अर्थ — जो ब्राह्मण सांसारिक धन्धों में लगा रहता और पशु पालन करता, वाणिज्य व्यवसाय करता या खेती ही करता है, वह विप्र वैश्य कहलाता है।

लाक्षादितैलनीलानां कौसुम्भमधुसर्पिषाम् ।

विक्रेता मद्यमांसानां स विप्रः शुद्र उच्यते ।।१४।।

सोरठा —

लाख आदि मदमांसु, घीव कुसुम अरु नील मधु ।

तेल बेचियत तासु शुद्र, जानिये विप्र यदि ॥14

अर्थ — जो लाख, तेल, नील कुसुम, शहद, घी, मदिरा और मांस बेचता है, उस ब्राह्मण को शुद्र-ब्राह्मण कहते हैं।

परकार्यविहन्ता च दाम्भिकः स्वार्थसाधकः ।

छली द्वेषी मृदुक्रूरो विप्रो मार्जार उच्यते ।।१५।।

सोरठा —

दंभी स्वारथ सूर, पर कारज घालै छली ।

द्वेषी कोमल क्रूर, विप्र बिलार कहावते ॥15

अर्थ — जो औरों का काम बिगाडता, पाखण्ड परायण रहता, अपना मतलब साधने में तत्पर रहकर छल, आदि कर्म करता ऊपर से मीठा, किन्तु हृदय से क्रूर रहता ऎसे ब्राह्मण को मार्जार विप्र कहा जाता है।

वापीकूपतडागानामारामसुरवेश्यनाम् ।

उच्छेदने निराशंकः स विप्रो म्लेच्छ उच्यते ।।१६।।

सोरठा —

कूप बावली बाग़ औ तडाग सुरमन्दिरहिं ।

नाशै जो भय त्यागि, म्लेच्छ विप्र कहाव सो ॥16

अर्थ — जो बावली, कुआँ, तालाब, बगीचा और देव मन्दिरों के नष्ट करने में नहीं हिचकता, ऎसे ब्राह्मण को ब्राह्मण न कहकर म्लेच्छ कहा जाता है।

देवद्रव्यं गुरुद्रव्यं परदाराभिमर्षणम् ।

निर्वाहः सर्वभूतेषु विप्रश्चाण्डाल उच्यते ।।१७।।

सोरठा —

परनारी रत जोय, जो गुरु सुर धन को हरै ।

द्विज चाण्डालहोय, विप्रश्चाण्डाल उच्यते ॥17

अर्थ — जो देवद्रव्य और गुरुद्रव्य अपहरण करता, परायी स्त्री के साथ दुराचार करता और लोगों की वृत्ति पर ही जो अपना निर्वाह करता है, ऎसे ब्राह्मण को चाण्डाल कहा जाता है।

देयं भोज्यधनं सुकृतिभिर्नो संचयस्तस्य व

श्रीकर्णस्य बलेश्च विक्रमपतेरद्यापि कीर्तिः स्थिता ।

अस्माकं मधुदानभोगरहितं नष्टं चिरात्सचितं

निर्वाणादिति नष्टपादयुगल घर्षन्यहो मक्षिकाः ।।१८।।

सवैया —

मतिमानको चाहिये वे धन भोज्य सुसंचहिं नाहिं दियोई करैं

ते बलि विक्रम कर्णहु कीरति, आजुलों लोग कह्योई करैं ॥

चिरसंचि मधु हम लोगन को बिनु भोग दिये नसिबोई करैं ।

यह जानि गये मधुनास दोऊ मधुमखियाँ पाँव घिसोई करैं ॥18

अर्थ — आत्म-कल्याण की भावनावालों को चाहिये कि अपनी साधारण आवश्यकता से अधिक बचा हुआ अन्न वस्त्र या धन दान कर दिया करें, जोडे नहीं। दान ही की बदौलत कर्ण बलि और महाराज विक्रमादित्य की कीर्ति आज भी विद्यमान है। मधुमक्खियों को देखिये वे यही सोचती हुई अपने पैर रगडती हैं कि “हाय! मैंने दान और भोग से रहित मधु को बहुत दिनों में इकट्ठा किया और वह क्षण में दुसरा ले गया”।

इति चाणक्ये एकदशोऽध्यायः ॥11

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