चाणक्य नीति अध्याय १५ || Chanakya Niti Adhyay 15 Chapter, चाणक्य नीति पन्द्रहवां अध्याय

0

चाणक्य नीति अध्याय १५ – चाणक्य नीति या चाणक्य नीतिशास्त्र (४ से ३ शताब्दी ई॰पु॰ मध्य) चाणक्य द्वारा रचित एक नीति ग्रन्थ है। इसमें सूत्रात्मक शैली में जीवन को सुखमय एवं सफल बनाने के लिए उपयोगी सुझाव दिये गये हैं।

चाणक्य नीति

पञ्चदशोऽध्यायः

यस्य चितं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु ।

तस्य ज्ञानेन मोक्षेण किं जटाभस्मलेपनैः ।।१।।

दोहा —

जासु चित्त सब जन्तु पर, गलित दया रस माह ।

तासु ज्ञान मुक्ति जटा, भस्म लेप कर काह ॥1

अर्थ — जिस का चित्त दया के कारण द्रवीभूत हो जाता है तो उसे फिर ज्ञान, मोक्ष, जटाधारण तथा भस्मलेपन की क्या आवश्यकता ?

एकमेवाक्षरं यस्तु गुरुः शिष्यं प्रबोधयेत् ।

पृथिव्यां नास्ति तद्द्रव्यं यद् दत्त्वा चानृणी भवेत् ।।२।।

दोहा —

एकौ अक्षर जो गुरु, शिष्यहिं देत जनाय ।

भूमि माहि धन नाहि वह, जोदे अनृण कहाय ॥2

अर्थ — यदि गुरु एक अक्षर भी बोलकर शिष्य को उपदेश दे देता है तो पृथ्वी में कोई ऐसा द्रव्य है ही नहीं कि जिसे देखकर उस गुरु से उऋण हो जाय।

खलानां कण्टकानां च द्विविधैव प्रतिक्रिया ।

उपानद् मुखभङ्गो वा दूरतैव विसर्जनम् ।।३।।

दोहा —

खल काँटा इन दुहुन को, दोई जगह उपाय ।

जूतन ते मुख तोडियो, रहिबो दूरि बचाय ॥3

अर्थ — दुष्ट मनुष्य और कण्टक, इन दोनों के प्रतिकार के दो ही मार्ग हैं। या तो उनके लिए पनही (जूते) का उपयोग किया जाय या उन्हें दूर ही से त्याग दे।

कुचैलिनं दन्तमलोपधारिणां

बह्वाशिनंनिष्ठुरभाषिणां च ।

सूर्योदये वाऽस्तमिते शयानं

विमुञ्चति श्रीर्यदि चक्रपाणिः ।।४।।

दोहा —

वसन दसन राखै मलिन, बहु भोजन कटु बैन ।

सोवै रवि पिछवतु जगत, तजै जो श्री हरि ऎन ॥4

अर्थ — मैले कपडे पहनने वाला, मैले दाँत वाला, भुक्खड, नीरस बातें करने वाला और सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय तक सोने-वाला यदि ईश्वर ही हो तो उसे भी लक्ष्मी त्याग देती हैं।

त्यजन्ति मित्राणि धनैर्विहीनं

दाराश्च भृत्याश्च सुहृज्जनाश्च ।

तं चार्थवन्तं पुनराश्रयन्ते ।

ह्यर्थो हि लोके पुरुषस्य बन्धुः ।।५।।

दोहा —

तजहिं तीय हित मीत औ, सेबक धन जब नाहिं ।

धन आये बहुरैं सब धन बन्धु जग माहिं ॥5

अर्थ — निर्धन मित्र को मित्र, स्त्री, सेवक और सगे सम्बन्धी छोड देते हैं और वही जब फिर धन हो जाता है तो वे लोग फिर उसके साथ हो लेते हैं। मतलब यह, संसार में धन ही मनुष्य का बन्धु है।

अन्यायोपार्जितं द्रव्यं दश वर्षाणि तिष्ठति ।

प्राप्ते एकादशे वर्षे समूलं च विनश्यति ।।६।।

दोहा —

करि अनिति धन जोरेऊ, दशे वर्ष ठहराय ।

ग्यारहवें के लागते, जडौ मूलते जाय ॥6

अर्थ — अन्याय से कमाया हुआ धन केवल दस वर्ष तक टिकता है, ग्यारहवाँ वर्ष लगने पर वह मूल धन के साथ नष्ट हो जाता है।

अयुक्तं स्वामिनो युक्तं युक्तं नीचस्य दूषणम् ।

अमृतं राहवे मृत्युर्विषं शंकरभूषणम् ।।७।।

दोहा —

खोतो मल समरथ पँह, भलौ खोट लहि नीच ।

विषौ भयो भूषण शिवहिं, अमृत राहु कँह मीच ॥7

अर्थ — अयोग्य कार्य भी यदि कोई प्रभावशाली व्यक्ति कर गुजरे तो वह उसके लिए योग्य हो जाता है और नीच प्रकृति का मनुष्य यदि उत्तम काम भी करता है तो वह उसके करने से अयोग्य साबित हो जाता है। जैसे अमृत भी राहु के लिए मृत्यु का कारण बन गया और विष शिवजी के कंठ का श्रृंगार हो गया।

तद्भोजनं यद् द्विजभुक्तशेषं

तत्सौहृदं यत्क्रियते परस्मिन् ।

सा प्राज्ञता या न करोति पापं

दम्भं विना यः क्रियते पापं

दम्भं विना यः क्रियते स धर्मः ।।८।।

दोहा —

द्विज उबरेउ भोजन सोई, पर सो मैत्री सोय ।

जेहि न पाप वह चतुरता, धर्म दम्भ विनु जोय ॥8

अर्थ — वही भोजन भोजन है, जो ब्राह्मणों के जीम लेने के बाद बचा हो, वही प्रेम प्रेम है जो स्वार्थ वश अपने ही लोगों में न किया जाकर औरों पर भी किया जाय। वही विज्ञता (समझदारी) है कि जिसके प्रभाव से कोई पाप न हो सके और वही धर्म धर्म है कि जिसमें आडम्बर न हो।

मणिर्लुण्ठति पादाग्रे काचः शिरसि धार्यते ।

क्रय विक्रयवेलायां काचः काचो मणिर्मणिः ।।९।।

दोहा —

मणि लोटत रहु पाँव तर, काँच रह्यो शिर नाय ।

लेत देत मणिही रहे, काँच काँच रहि जाय ॥9

अर्थ — वैसे मणि पैरों तले लुढके और काँच माथे पर रखा जाय तो इसमें उन दोनों के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। पर जब वे दोनों बाज़ार में बिकने आवेंगे और उनका क्रय-विक्रय होने लगेगा तब काँच काँच ही रहेगा और मणि मणि ही।

अनन्तंशास्त्रं बहुलाश्च विद्याः

अल्पं च कालो बहुविघ्नता च ।

यत्सारभूतं तदुपासनीयं,

हंसो यथा क्षीरमिवम्बुमध्यात् ।।१०।।

दोहा —

बहुत विघ्न कम काल है, विद्या शास्त्र अपार ।

जल से जैसे हंस पय, लीजै सार निसार ॥10

अर्थ — शास्त्र अनन्त हैं, बहुत सी विद्यायें हैं, थोडा सा समय जीवनहै और उसमें बहुत से विघ्न हैं। इसलिए समझदार मनुष्य को उचित है जैसे हंस सबको छोड़कर पानी से दूध केवल लेता है, उसी तरह जो अपने मतलब की बात हो, उसे ले ले बाकी सब छोड़ दे।

दूरागतं पथि श्रान्तं वृथा च गृहमागतम् ।

अनर्चयित्वा यो भुङ्क्ते स वै चाण्डाल उच्यते ।।११।।

दोहा —

दूर देश से राह थकि, बिनु कारज घर आय ।

तेहि बिनु पूजे खाय जो, सो चाण्डाल कहाय ॥11

अर्थ — जो दूर से आ रहा हो इन अभ्यागतों की सेवा किये बिना जो भोजन कर लेता है उसे चाण्डाल कहना चाहिए।

पठन्ति चतुरो वेदान् धर्मशास्त्राण्यनेकशः ।

आत्मानं नैव जानन्ति दवी पाकरसं यथा ।।१२।।

दोहा —

पढे चारहूँ वेदहुँ, धर्म शास्त्र बहु बाद ।

आपुहिं जानै नाहिं ज्यों, करिछिहिंव्यञ्जन स्वाद ॥12

अर्थ — कितने लोग चारो वेद और बहुत से धर्मशास्त्र पढ़ जाते हैं, पर वे आपको नहीं समझ पाते, जैसे कि कलछुल पाक में रहकर भी पाक का स्वाद नहीं जान सकती।

धन्या द्विजमयि नौका विपरीता भवार्णवे ।

तरन्त्यधोगताः सर्वे उपरिस्थाः पतन्त्यधः ।।१३।।

दोहा —

भवसागर में धन्य है, उलटी यह द्विज नाव ।

नीचे रहि तर जात सब, ऊपर रहि बुडि जाय ॥13

अर्थ — यह द्विजमयी नौका धन्य है, कि जो इस संसाररूपी सागर में उलटे तौर पर चलती है। जो इससे नीचे (नम्र) रहते हैं, वे तर जातें हैं और जो ऊपर (उद्धत) रहते, वे नीचे चले जाते हैं।

अयममृतनिधानं नायकोऽप्यौषधीनां ।

अमृतमयशरीरः कान्तियुक्तोऽपि चन्द्रः ।।

भवति विगतरश्मिर्मण्डलं प्राप्य भानोः ।

परसदननिविष्टः को लघुत्वं न याति ।।१४।।

दोहा —

सुघा धाम औषधिपति, छवि युत अभीय शरीर ।

तऊचंद्र रवि ढिग मलिन, पर घर कौन गम्भीर ॥14

अर्थ — यद्यपि चंद्रमा अमृत का भण्डार है, औषधियों का स्वामी है, स्वयं अमृतमय है और कान्तिमान् है। फिर भी जब वह सूर्य के मण्डल में पड़ जाता है तो किरण रहित हो जाता है। पराए घर जाकर भला कौन ऐसा है कि जिसकी लघुता न सावित होती हो।

अलिरयं नलिनीदलमध्यगः

कमलिनीमकरन्दमदालसः ।

विधिवशात्परदेशमुपागतः

कुटजपुष्परसं बहु मन्यते ।।१५।।

दोहा —

वह अलि नलिनी पति मधुप, तेहि रस मद अलसान ।

परि विदेस विधिवश करै, फूल रसा बहु मान ॥15

अर्थ — यह एक भौंरा है, जो पहले कमलदल के ही बीच में कमिलिनी का बास लेता तहता था संयोगवश वह अब परदेश में जा पहुँचा है, वहाँ वह कौरैया के पुष्परस को ही बहुत समझता है।

पीतः क्रुध्देन तातश्चरणतलहता वल्लभो येन रोषा-

दाबाल्याद्विप्रवर्यैः स्ववदनविवरे धार्यते वैरिणी में ।

गेहं मे छेदयन्ति प्रतिदिवसमुमाकान्तपूजानिमित्तं

तस्मात्खिन्नासदात्हंद्विजकुलनिलयं नाथ युक्तं त्यजामि ।।१६।।

स० —

क्रोध से तात पियो चरणन से स्वामी हतो जिन रोषते छाती ।

बालसे वृद्धमये तक मुख में भारति वैरिणि धारे संघाती ॥

मम वासको पुष्प सदा उन तोडत शिवजी की पूजा होत प्रभाती ।

ताते दु:ख मान सदैव हरि मैं ब्राह्मण कुल को त्याग चिलाती ॥16

अर्थ — ब्राह्मण अधिकांश दरिद्र दिखाई देते हैं, कवि कहता है कि इस विषय पर किसी प्रश्नोत्तर के समय लक्ष्मी जी भगवान् से कहती हैं – जिसने क्रुद्ध होकर मेरे पिता को पी लिया, मेरे स्वामी को लात मारा, बाल्यकाल ही से जो रोज ब्राह्मण लोग वैरिणी (सरस्वती) को अपने मुख विवर में आसन दिये रहते हैं, शिवजी को पूजने के लिये जो रोज मेरा घर (कमल) उजाडा करते हैं, इन्हीं कारणों से नाराज़ होकर हे नाथ! मैं सदैव ब्राह्मण का घर छोडे रहती हूँ – वहाँ जाती ही नहीं।

बंधनानि खलु सन्ति बहूनि प्रेमरज्जुकृतबन्धनमन्यत् ।

दारुभेदनिपुणोऽपिषण्डघ्निर्निष्क्रियोभवति पंकजकोशे ।।१७।।

दोहा —

बन्धन बहु तेरे अहैं, प्रेमबन्धन कछु और ।

काठौ काटन में निपुण, बँध्यो कमल महँ भौंर ॥17

अर्थ — वैसे तो बहुत से बन्धन हैं, पर प्रेम की डोर का बन्धन कुछ और ही है। काठ को काटने में निपुण भ्रमर कमलदल को काटने में असमर्थ होकर उसमें बँध जाता है।

छिन्नोऽपि चंदनतरुर्न जहाति गन्धं

वृध्दोऽपि वारणपतिर्न जहाति लीलाम् ।

यंत्रार्पितो मधुरतां न जहाति चेक्षुः

क्षीणोऽपि न त्यजति शीलगुणान् कुलीनः ।।१८।।

दोहा —

कटे न चन्दन महक तजु, वृद्ध न खेल गजेश ।

ऊख न पेरे मधुरता, शील न सकुल कलेश ॥18

अर्थ — काटे जाने पर भी चन्दन का वृक्ष अपनी सुगन्धि नहीं छोड़ता, बूढ़ा हाथी भी खेलवाड़ नहीं छोड़ता, कोल्हू में पेरे जाने पर भी ईख मिठास नहीं छोड़ती, ठीक इसी प्रकार कुलीन पुरुष निर्धन होकर भी अपना शील और गुण नहीं छोड़ता।

उर्व्यां कोऽपि महीधरो लघुतरो दोर्भ्यां धृतो लीलया

तेन त्वांदिवि भूतले च ससतं गोवर्धनी गीयसे ।

त्वां त्रैलोक्यधरं वहामि कुचयोरग्रेण तद् गण्यते

किंवा केशव भाषणेन बहुनापुण्यैर्यशो लभ्यते ।।१९।।

स० —

कोऊ भूमि के माँहि लघु पर्वत, कर धार के नाम तुम्हारो पर्यो है।

भूतल स्वर्ग के बीच सभी ने जो, गिरिवरधारी प्रसिद्ध कियो है।

तिहँ लोक के धारक तुम को धराकुच अग्र कहि यह को गिनती है।

ताते बहु कहना है जो वृथा, यश लाभ हरे निज पुण्य मिलत है॥19

अर्थ — रुक्मिणी भगवान् से कहती हैं हे केशव! आपने एक छोटे से पहाड़ को दोनों हाथों से उठा लिया वह इसीलिये स्वर्ग और पृथ्वी दोनों लोकों में गोवर्धनधारी कहे जाने लगे। लेकिन तीनों लोकों को धारण करने वाले आपको मैं अपने कुचों के अगले भाग से ही उठा लेती हूँ, फिर उसकी कोई गिनती ही नहीं होती। हे नाथ! बहुत कुछ कहने से कोई प्रयोजन नहीं, यही समझ लीजिए कि बड़े पुण्य से यश प्राप्त होता है।

इति चाणक्ये पंचदशोऽध्यायः ॥15

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *