चाणक्य नीति अध्याय ८ || Chanakya Niti Adhyay 8 Chapter, चाणक्य नीति बारहवां अध्याय
चाणक्यनीति अध्याय ८- चाणक्य नीति या चाणक्य नीतिशास्त्र (४ से ३ शताब्दी ई॰पु॰ मध्य) चाणक्य द्वारा रचित एक नीति ग्रन्थ है। इसमें सूत्रात्मक शैली में जीवन को सुखमय एवं सफल बनाने के लिए उपयोगी सुझाव दिये गये हैं।
चाणक्य नीति
अष्टमोऽध्यायः
अधमा धनमिइच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः ।
उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम् ।।१।।
दोहा —
अधम धनहिं को चाहते, मध्यम धन अरु मान ।
मानहि धन है बडन को, उत्तम चहै मान ॥1॥
अर्थ — अधम धन चाहते हैं, मध्यम धन और मान दोनों, पर उत्तम मान ही चाहते हैं। क्योंकि महात्माओं का धन मान ही है।
इक्षुरापः पयो मूलं ताम्बूलं फलमौषधम् ।
भक्षयित्वाऽपिकर्तव्याःस्नानदानादिकाःक्रियाः ।।२।।
दोहा —
ऊख वारि पय मूल, पुनि औषधह खायके ।
तथा खाये ताम्बूल, स्नान दान आदिक उचित ॥2॥
अर्थ — ऊख, जल, दूध, पान, फल और औषधि इन वस्तुओं के भोजन करने पर भी स्नान दान आदि क्रिया कर सकते हैं।
दीपो भक्षयते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते ।
यदन्नं भक्ष्यते नित्यं जायते तादृशी प्रजा ।।३।।
दोहा —
दीपक तमको खात है, तो कज्जल उपजाय ।
यदन्नं भक्ष्यते नित्यं, जायते तादृशी प्रजा ॥3॥
अर्थ — दिया अंधकार को खाता है और काजल को जन्माता है। सत्य है, जो जैसा अन्न सदा खाता है उसकी वैसे ही सन्तति होती है।
वित्तंदेहि गुणान्वितेष मतिमन्नाऽन्यत्रदेहि क्वचित् ।
प्राप्तं वारिनिधेर्जलं घनमुचां माधुर्ययुक्तं सदा
जीवाः स्थावरजड्गमाश्च सकला संजीव्य भूमण्डलं ।
भूयः पश्यतदेवकोटिगुणितंगच्छस्वमम्भोनिधिम् ।।४।।
दोहा —
गुणहिंन औरहिं देइ धन, लखिय जलद जल खाय ।
मधुर कोटि गुण करि जगत, जीवन जलनिधि जाय ॥4॥
अर्थ — हे मतिमान्! गुणियों को धन दो औरों को कभी मत दो। समुद्र से मेघ के मुख में प्राप्त होकर जल सदा मधुर हो जाता है और पृथ्वी पर चर अचर सब जीवॊं को ज़िला कर फिर वही जल कोटि गुण होकर उसी समुद्र में चला जाता है।
चाण्डालानां सहस्त्रैश्च सूरिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ।
एको हि यवनः प्रोक्तो न नीचो यवनात्परः ।।५।।
दोहा —
एक सहस्त्र चाण्डाल सम, यवन नीच इक होय ।
तत्त्वदर्शी कह यवन ते, नीच और नहिं कोय ॥5॥
अर्थ — इतना नीच एक यवन होता है। यवन से बढकर नीच कोई नहीं होता।
तैलाभ्यड्गे चिताधूमे मैथुने क्षौरकर्मणि ।
तावद् भवति चाण्डालो यावत्स्नानं न चाचरेत् ।।६।।
दोहा —
चिताधूम तनुतेल लगि, मैथुन छौर बनाय ।
तब लौं है चण्डाल सम, जबलों नाहिं नहाय ॥6॥
अर्थ — तेल लगाने पर, स्त्री प्रसंग करने के बाद, और चिता का धुआँ लग जाने पर मनुष्य जब तक स्नान नहीं करता तब तक चाण्डाल रहता है।
अजीर्णे भेषजं वारि जार्णे वारि बलप्रदम् ।
भोजने चाऽमृतं वारि भोजनान्ते विषप्रदम् ।।७।।
दोहा —
वारि अजीरण औषधी, जीरण में बलवान ।
भोजन के संग अमृत है, भोजनान्त विषपान ॥7॥
अर्थ — जब तक कि भोजन पच न जाय, इस बीच में पिया हुआ पानी विष है और वही पानी भोजन पच जाने के बाद पीने से अमृत के समान हो जाता है। भोजन करते समय अमृत और उसके पश्चात् विष का काम करता है।
हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हतश्चाऽज्ञानतो नरः ।
हतं निर्नायकं सैन्यं स्त्रियो नष्टा ह्यभर्तृकाः ।।८।।
दोहा —
ज्ञान क्रिया बिन नष्ट है, नर जो नष्ट अज्ञान ।
बिनु नायक जसु सैनहू, त्यों पति बिनु तिय जान ॥8॥
अर्थ — वह ज्ञान व्यर्थ है कि जिसके अनुसार आचरण न हो और उस मनुष्य का जीवन ही व्यर्थ है कि जिसे ज्ञान प्राप्त न हो। जिस सेना का कोई सेनापति न हो वह सेना व्यर्थ है और जिसके पति न हो वे स्त्रियाँ व्यर्थ हैं।
वृध्द्काले मृता भार्या बन्धुहस्ते गतं धनम् ।
भाजनं च पराधीनं स्त्रिः पुँसां विडम्बनाः ।।९।।
दोहा —
वृध्द समय जो मरु तिया, बन्धु हाथ धन जाय ।
पराधीन भोजन मिलै, अहै तीन दुखदाय ॥9॥
अर्थ — बुढौती में स्त्री का मरना, निजी धन का बन्धुओं के हाथ में चला जाना और पराधीन जीविका रहना, ये पुरुषों के लिए अभाग्य की बात है।
अग्निहोत्रं विना वेदाः न च दानं विना क्रियाः ।
न भावेनविना सिध्दिस्तस्माद्भावो हि कारणम् ।।१०।।
दोहा —
अग्निहोत्र बिनु वेद नहिं, यज्ञ क्रिया बिनु दान ।
भाव बिना नहिं सिध्दि है, सबमें भाव प्रधान ॥10॥
अर्थ — बिना अग्निहोत्र के वेदपाठ व्यर्थ है और दान के बिना यज्ञादि कर्म व्यर्थ हैं। भाव के बिना सिध्दि नहीं प्राप्त होती इसलिए भाव ही प्रधान है।
न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृण्मये ।
भावे हि विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणम् ।।११।।
दोहा —
देव न काठ पाषाणमृत, मूर्ति में नरहाय ।
भाव तहांही देवभल, कारन भाव कहाय ॥11॥
अर्थ — देवता न काठ में, पत्थर में, और न मिट्टी ही में रहते हैं वे तो रहते हैं भाव में। इससे यह निष्कर्ष निकला कि भाव ही सबका कारण है।
काष्ठ-पाषाण-धातूनां कृत्वा भावेन सेवनम् ।
श्रध्दया च तया सिध्दिस्तस्य विष्णोः प्रसादतः ।।१२।।
दोहा —
धातु काठ पाषाण का, करु सेवन युत भाव ।
श्रध्दा से भगवत्कृपा, तैसे तेहि सिध्दि आव ॥12॥
अर्थ — काठ, पाषाण तथा धातु की भी श्रध्दापूर्वक सेवा करने से और भगवत्कृपा से सिध्दि प्राप्त हो जाती है।
शान्तितुल्यं तपो नास्ति न सन्तोषात्परं सुखम् ।
न तृष्णया परो व्याधिर्न च धर्मो दया परः ।।१३।।
दोहा —
नहीं सन्तोष समान सुख, तप न क्षमा सम आन ।
तृष्णा सम नहिं व्याधि तन, धरम दया सम मान ॥13॥
अर्थ — शान्ति के समान कोई तप नहीं है, सन्तोष से बढकर कोई सुख नहीं है, तृष्णा से बडी कोई व्याधि नहीं है और दया से बडा कोई धर्म नहीं है।
क्रोधो वैवस्वतो राहा तृष्णा वैतरणी नदी ।
विद्या कामदुधा धेनुः सन्तोषो नन्दनंवनम् ।।१४।।
दोहा —
त्रिसना वैतरणी नदी, धरमराज सह रोष ।
कामधेनु विद्या कहिय, नन्दन बन सन्तोष ॥14॥
अर्थ — क्रोध यमराज है, तृष्णा वैतरणी नदी है, विद्या कामधेनु गौ है और सन्तोष नन्दन वन है।
गुणो भूषयते रूपं शीलं भूषयते कुलम् ।
सिध्दिर्भूषयते वद्यां भोगी भूषयते धनम् ।।१५।।
दोहा —
गुन भूषन है रूप को, कुल को शील कहाय ।
विद्या भूषन सिध्दि जन, तेहि खरचत सो पाय ॥15॥
अर्थ — गुण रूप का श्रृंगार है, शील कुलका भूषण है, सिध्दि विद्या का अलंकार है और भोग धन का आभूषण है।
निर्गुणस्य हतं रूपं दुःशीलस्य हतं कुलम् ।
असिध्दस्य हता विद्या अभोगेन हतं धनम् ।।१६।।
दोहा —
निर्गुण का हत रूप है, हत कुशील कुलगान ।
हत विद्याहु असिध्दको, हत अभोग धन धान ॥16॥
अर्थ — गुण विहीन मनुष्य का रूप व्यर्थ है, जिसका शील ठीक नहीं उसका कुल नष्ट है, जिसको सिध्दि नहीं प्राप्त हो वह उसकी विद्या व्यर्थ है और जिसका भोग न किया जाय वह धन व्यर्थ है।
शुध्दं भूमिगतं तोयं शुध्दा नारी पतिव्रता ।
शुचिः क्षेमकरोराजा संतोषी ब्राह्मणः शुचिः ।।१७।।
दोहा —
शुध्द भूमिगत वारि है, नारि पतिव्रता जौन ।
क्षेम करै सो भूप शुचि, विप्र तोस सुचि तौन ॥17॥
अर्थ — जमीन पर पहँचा पानी, पतिव्रता स्त्री, प्रजा का कल्याण करने वाला राजा और सन्तोषी ब्राह्मण – ये पवित्र माने गये हैं।
असंतुष्टा द्विजा नष्टाः संतुष्टाश्च महीभृतः ।
सलज्जागणिकानष्टाः निर्लज्जाश्च कुलांगनाः ।।१८।।
दोहा —
असन्तोष ते विप्र हत, नृप सन्तोष तै रव्वारि ।
गनिका विनशै लाज ते, लाज बिना कुल नारि ॥18॥
अर्थ — असन्तोषी ब्राह्मण, सन्तोषी राजे, लज्जावती वेश्या और निर्लज्ज कुल स्त्रियाँ ये निकृष्ट माने गये हैं।
किं कुलेन विशालेन विद्याहीनेन देहिनाम् ।
दुष्कुलं चापि विदुषी देवैरपि हि पूज्यते ।।१९।।
दोहा —
कहा होत बड वंश ते, जो नर विद्या हीन ।
प्रगट सूरनतैं पूजियत, विद्या त कुलहीन ॥19॥
अर्थ — यदि मूर्ख का कुल बडा भी हो तो उससे क्या लाभ ? चाहे नीच ही कुल का क्यों न हो, पर यदि वह विद्वान् हो तो देवताओं द्वारा भी पूजा जाता है।
विद्वान् प्रशस्यते लोके विद्वान्सर्वत्र गौरवम् ।
विद्यया लभते सर्व विद्या सर्वत्र पूज्यते ।।२०।।
दोहा —
विदुष प्रशंसित होत जग, सब थल गौरव पाय ।
विद्या से सब मिलत है, थल सब सोइ पुजाय ॥20॥
अर्थ — विद्वान् का संसार में प्रचार होता है वह सर्वत्र आदर पाता है। कहने का मतलब यह कि विद्या से सब कुछ प्राप्त हो सकता है और सर्वत्र विद्या ही पूजी जाती है।
रूपयौवनसंपन्ना विशालकुलसम्भवाः ।
विद्याहीना नशोभन्ते निर्गन्धा इवकिंशुकाः ।।२१।।
दोहा —
संयत जीवन रूप तैं, कहियत बडे कुलीन ।
विद्या बिन सोभै न जिभि, पुहुप गंध ते हीन ॥21॥
अर्थ — रूप यौवन युक्त और विशाल कुल में उत्पन्न होकर भी मनुष्य यदि विद्याहीन होते हैं तो ये उसी तरह भले नहीं मालूम होते जैसे सुगन्धि रहित टेसू के फूल।
मांसभक्षैः सुरापानैः मूर्खैश्चाऽक्षरवर्जितैः ।
पशुभि पुरुषाकारर्भाराक्रान्ताऽस्ति मेदिनी ।।२२।।
दोहा —
मांस भक्ष मदिरा पियत, मूरख अक्षर हीन ।
नरका पशुभार गृह, पृथ्वी नहिं सहु तीन ॥22॥
अर्थ — मांसाहारी, शराबी और निरक्षर मूर्ख इन मानव रूपधारी पशुओं से पृथ्वी मारे बोझ के दबी जा रही है।
अन्नहीना दहेद्राष्ट्रं मंत्रहीनश्च रिषीत्विजः ।
यजमानं दानहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः ।।२३।।
दोहा —
अन्नहीन राज्यही दहत, दानहीन यजमान ।
मंत्रहीन ऋत्विजन कहँ, क्रतुसम रिपुनहिं आन ॥23॥
अर्थ — अन्नरहित यज्ञ देश का, मन्त्रहीन यज्ञ ऋत्विजों का और दान विहीन यज्ञ यजमान का नाश कर देता है। यज्ञ के समान कोई शत्रु नहीं है।
इति चाणक्येऽष्टमोऽध्यायः ॥8॥