दुर्गा स्तोत्र || Durga Stotra
जो मनुष्य इस काण्वशाखोक्त दुर्गा स्तोत्र का पूजा के समय, यात्रा के अवसर पर अथवा प्रातःकाल पाठ करता है, वह अवश्य ही अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेता है। इसके पाठ से पुत्रार्थी को पुत्र, कन्यार्थी को कन्या, विद्यार्थी को विद्या, प्रजार्थी को प्रजा, राज्यभ्रष्ट को राज्य और धनहीन को धन की प्राप्ति होती है। जिस पर गुरु, देवता, राजा अथवा बन्धु-बान्धव क्रुद्ध हो गये हों, उसके लिये ये सभी इस स्तोत्रराज की कृपा से प्रसन्न होकर वरदाता हो जाते हैं। जिसे चोर-डाकुओं ने घेर लिया हो, साँप ने डस लिया हो, जो भयानक शत्रु के चंगुल में फँस गया हो अथवा व्याधिग्रस्त हो; वह इस स्तोत्र के स्मरणमात्र से मुक्त हो जाता है। राजद्वार पर, श्मशान में, कारागार में और बन्धन में पड़ा हुआ तथा अगाध जलराशि में डूबता हुआ मनुष्य इस स्तोत्र के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। स्वामिभेद, पुत्रभेद तथा भयंकर मित्रभेद के अवसर पर इस स्तोत्र के स्मरणमात्र से निश्चय ही अभीष्टार्थ की प्राप्ति होती है। जो स्त्री वर्षपर्यन्त भक्तिपूर्वक दुर्गा का भलीभाँति पूजन करके हविष्यान्न खाकर इस स्तोत्रराज को सुनती है, वह महावन्ध्या हो तो भी प्रसववाली हो जाती है। उसे ज्ञानी एवं चिरजीवी दिव्य पुत्र प्राप्त होता है। छः महीने तक इसका श्रवण करने से दुर्भगा सौभाग्यवती हो जाती है। जो काकवन्ध्या और मृतवत्सा नारी भक्तिपूर्वक नौ मास तक इस स्तोत्रराज को सुनती है, वह निश्चय ही पुत्र पाती है। जो कन्या की माता तो है परंतु पुत्र से हीन है, वह यदि पाँच महीने तक कलश पर दुर्गा की सम्यक पूजा करके इस स्तोत्र को श्रवण करती है तो उसे अवश्य ही पुत्र की प्राप्ति होती है।
दुर्गा स्तोत्रराज
परशुराम उवाच ।।
श्रीकृष्णस्य च गोलोके परिपूर्णतमस्य च ।
आविर्भूता विग्रहतः पुरा सृष्ट्युन्मुखस्य च ।।
परशुराम ने कहा– प्राचीन काल की बात है; गोलोक में जब परिपूर्णतम श्रीकृष्ण सृष्टि-रचना के लिये उद्यत हुए, उस समय उनके शरीर से तुम्हारा प्राकट्य हुआ था।
सूर्य्यकोटिप्रभायुक्ता वस्त्रालङ्कारभूषिता ।
वह्निशुद्धांशुकाधाना सस्मिता सुमनोहरा ।।
तुम्हारी कान्ति करोड़ों सूर्यों के समान थी। तुम वस्त्र और अलंकारों से विभूषित थीं। शरीर पर अग्नि में तपाकर शुद्ध की हुई साड़ी का परिधान था।
नवयौवनसम्पन्ना सिन्दूरारुण्यशोभिता ।
ललितं कबरीभारं मालतीमाल्यमण्डितम् ।।
नव तरुण अवस्था थी। ललाट पर सिंदूर की बेंदी शोभित हो रही थी। मालती की मालाओं से मण्डित गुँथी हुई सुन्दर चोटी थी। बड़ा ही मनोहर रूप था। मुख पर मन्द मुस्कान थी।
अहोऽनिर्वचनीया त्वं चारुमूर्त्तिं च बिभ्रती ।
मोक्षप्रदा मुमुक्षूणां महाविष्णोर्विधिः स्वयम् ।।
अहो! तुम्हारी मूर्ति बड़ी सुन्दर थी, उसका वर्णन करना कठिन है। तुम मुमुक्षुओं को मोक्ष प्रदान करने वाली तथा स्वयं महाविष्णु की विधि हो।
मुमोह क्षणमात्रेण दृष्ट्वा त्वां सर्वमोहिनीम् ।
बालैस्संभूय सहसा सस्मिता धाविता पुरा ।।
बाले! तुम सबको मोहित कर लेने वाली हो। तुम्हें देखकर श्रीकृष्ण उसी क्षण मोहित हो गये। तब तुम उनसे सम्भावित होकर सहसा मुस्कराती हुई भाग चलीं।
सद्भिः ख्याता तेन राधा मूलप्रकृतिरीश्वरी ।
कृष्णस्तां सहसा भीतो वीर्य्याधानं चकार ह ।।
इसी कारण सत्पुरुष तुम्हें ‘मूलप्रकृति’ ईश्वरी राधा कहते हैं। उस समय सहसा श्रीकृष्ण ने तुम्हें बुलाकर वीर्य का आधान किया।
ततो डिम्भं महज्जज्ञे ततो जातो महाविराट् ।
यस्यैव लोमकूपेषु ब्रह्माण्डान्यखिलानि च ।।
उससे एक महान डिम्ब उत्पन्न हुआ। उस डिम्ब से महाविराट की उत्पत्ति हुई, जिसके रोमकूपों में समस्त ब्रह्माण्ड स्थित हैं।
राधारतिक्रमेणैव तन्निश्वासो बभूव ह ।
स निश्श्वासो महावायुः स विराड् विश्वधारकः ।।
फिर राधा के श्रृंगारक्रम से तुम्हारा निःश्वास प्रकट हुआ। वह निःश्वास महावायु हुआ और वही विश्व को धारण करने वाला विराट् कहलाया।
भयघर्म्मजलेनैव पुप्लुवे विश्वगोलकम् ।
स विराड् विश्वनिलयो जलराशिर्बभूव ह ।।
तुम्हारे पसीने से विश्वगोलक पिघल गया। तब विश्व का निवासस्थान वह विराट जल की राशि हो गया।
ततस्त्वं पञ्चधाभूय पञ्च मूर्तीश्च बिभ्रती।
प्राणाधिष्ठातृमूर्तिर्या कृष्णस्य परमात्मनः ।।
कृष्णप्राणाधिकां राधां तां वदन्ति पुराविदः ।।
तब तुमने अपने को पाँच भागों में विभक्त करके पाँच मूर्ति धारण कर ली। उनमें परमात्मा श्रीकृष्ण की जो प्राणाधिष्ठात्री मूर्ति है, उसे भविष्यवेत्ता लोग कृष्णप्राणाधिका ‘राधा’ कहते हैं।
वेदाधिष्ठातृमूर्तिर्या वेदशास्त्रप्रसूरपि ।
तां सावित्रीं शुद्धरूपां प्रवदन्ति मनीषिणः ।।
जो मूर्ति वेद-शास्त्रों की जननी तथा वेदाधिष्ठात्री है, उस शुद्धरूपा मूर्ति को मनीषीगण ‘सावित्री’ नाम से पुकारते हैं।
ऐश्वर्य्याधिष्ठातृमूर्तिः शान्तिस्त्वं शान्तरूपिणी ।
लक्ष्मीं वदन्ति सन्तस्तां शुद्धां सत्त्वस्वरूपिणीम् ।।
जो शान्ति तथा शान्तरूपिणी ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री मूर्ति है, उस सत्त्वस्वरूपिणी शुद्ध मूर्ति को संत लोग ‘लक्ष्मी’ नाम से अभिहित करते हैं।
रागाधिष्ठातृदेवी या शुक्लमूर्तिस्सतां प्रसूः ।
सरस्वतीं तां शास्त्रज्ञां शास्त्रज्ञाः प्रवदन्त्यहो ।।
अहो! जो राग की अधिष्ठात्री देवी तथा सत्पुरुषों को पैदा करने वाली है, जिसकी मूर्ति शुक्ल वर्ण की है, उस शास्त्र की ज्ञाता मूर्ति को शास्त्रज्ञ ‘सरस्वती’ कहते हैं।
बुद्धिर्विद्या सर्वशक्तेर्या मूर्तिरधिदेवता ।
सर्वमङ्गलमङ्गल्या सर्वमङ्गलरूपिणी ।।
सर्वमङ्गलबीजस्य शिवस्य निलयेऽधुना ।।
जो मूर्ति बुद्धि, विद्या, समस्त शक्ति की अधिदेवता, सम्पूर्ण मंगलों की मंगलस्थान, सर्वमंगलरूपिणी और सम्पूर्ण मंगलों की कारण है, वही तुम इस समय शिव के भवन में विराजमान हो।
शिवे शिवास्वरूपा त्वं लक्ष्मीर्नारायणान्तिके ।
सरस्वती च सावित्री वेदसूर्ब्रह्मणः प्रिया ।।
तुम्हीं शिव के समीप शिवा (पार्वती), नारायण के निकट लक्ष्मी और ब्रह्मा की प्रिया वेद जननी सावित्री और सरस्वती हो।
राधा रासेश्वरस्यैव परिपूर्णतमस्य च ।
परमानन्दरूपस्य परमानन्दरूपिणी।।
जो परिपूर्णतम एवं परमानन्दस्वरूप हैं, उन रासेश्वर श्रीकृष्ण की तुम परमानन्दरूपिणी राधा हो।
त्वत्कलांशांशकलया देवानामपि योषितः ।।
त्वं विद्या योषितः सर्वास्सर्वेषां बीजरूपिणी ।।
देवांगनाएँ भी तुम्हारे कलांश की अंशकला से प्रादुर्भूत हुई हैं। सारी नारियाँ तुम्हारी विद्यास्वरूपा हैं और तुम सबकी कारणरूपा हो।
छाया सूर्य्यस्य चन्द्रस्य रोहिणी सर्व मोहिनी।।
शची शक्रस्य कामस्य कामिनी रतिरीश्वरी।
वरुणानी जलेशस्य वायोः स्त्री प्राणवल्लभा।।
वह्नेः प्रिया हि स्वाहा च कुबेरस्य च सुन्दरी।
यमस्य तु सुशीला च नैर्ऋतस्य च कैटभी ।।
ऐशानी स्याच्छशिकला शतरूपा मनोः प्रिया।
देवहूतिः कर्दमस्य वसिष्ठस्याप्यरुन्धती ।।
लोपामुद्राऽप्यगस्त्यस्य देवमाताऽदितिस्तथा ।
अहल्या गौतमस्यापि सर्वाधारा वसुन्धरा ।।
गङ्गा च तुलसी चापि पृथिव्यां या सरिद्वरा ।
एताः सर्वाश्च या ह्यन्या सर्वास्त्वत्कलयाऽम्बिके ।।
अम्बिके! सूर्य की पत्नी छाया, चन्द्रमा की भार्या सर्वमोहिनी रोहिणी, इन्द्र की पत्नी शची, कामदेव की पत्नी ऐश्वर्यशालिनी रति, वरुण की पत्नी वरुणानी, वायु की प्राणप्रिया स्त्री, अग्नि की प्रिया स्वाहा, कुबेर की सुन्दरी भार्या, यम की पत्नी सुशीला, नैर्ऋत की जाया कैटभी, ईशान की पत्नी शशिकला, मनु की प्रिया शतरूपा, कर्दम की भार्या देवहूति, वसिष्ठ की पत्नी अरुन्धती, देवमाता अदिति, अगस्त्य मुनि की प्रिया लोपामुद्रा, गौतम की पत्नी अहल्या, सबकी आधाररूपा वसुन्धरा, गंगा, तुलसी तथा भूतल की सारी श्रेष्ठ सरिताएँ– ये सभी तथा इनके अतिरिक्त जो अन्य स्त्रियाँ हैं, वे सभी तुम्हारी कला से उत्पन्न हुई हैं।
गृहलक्ष्मी गृहे नॄणां राजलक्ष्मीश्च राजसु ।
तपस्विनां तपस्या त्वं गायत्री ब्राह्मणस्य च ।।
तुम मनुष्यों के घर में गृहलक्ष्मी, राजाओं के भवनों में राजलक्ष्मी, तपस्वियों की तपस्या और ब्राह्मणों की गायत्री हो।
सतां सत्त्वस्वरूपा त्वमसतां कलहाङ्कुरा ।
ज्योतीरूपा निर्गुणस्य शक्तिस्त्वं सगुणस्य च ।।
तुम सप्तपुरुषों के लिये सत्त्वस्वरूप और दुष्टों के लिये कलह की अंकुर हो निर्गुण की शक्ति ज्योति सगुण की शक्ति तुम्हीं हो।
सूर्य्ये प्रभास्वरूपा त्वं दाहिका च हुताशने ।
जले शैत्यस्वरूपा च शोभारूपा निशाकरे ।।
तुम सूर्य में प्रभा, अग्नि में दाहिक-शक्ति, जल में शीतलता और चन्द्रमा में शोभा हो।
त्वं भूमौ गन्धरूपा चाप्याकाशे शब्दरूपिणी ।
क्षुत्पिपासादयस्त्वं च जीविनां सर्वशक्तयः ।।
भूमि में गंध और आकाश में शब्द तुम्हारा ही रूप है। तुम भुख प्यास आदि तथा प्राणियों की समस्त शक्ति हो।
सर्वबीजस्वरूपा त्वं संसारे साररूपिणी ।
स्मृतिर्मेधा च बुद्धिर्वा ज्ञानशक्तिर्विपश्चिताम् ।।
जो संसार में सबकी उत्पत्ति की कारण साररूप, स्मृति, मेधा, बुद्धि, अथवा विद्वानों की ज्ञानशक्ति तुम्हीं हो।
कृष्णेन विद्या या दत्ता सर्वज्ञान प्रसूः शुभा ।
शूलिने कृपया सा त्वं यया मृत्युञ्जयः शिवः ।।
श्रीकृष्ण ने शिव जी को कृपापूर्वक सम्पूर्ण ज्ञान की प्रसविनी जो शुभ विद्या प्रदान की थी, वह तुम्हीं हो; उसी से शिव जी मृत्युंजय हुए हैं।
सृष्टिपालनसंहारशक्तयस्त्रिविधाश्च याः ।
ब्रह्मविष्णुमहेशानां सा त्वमेव नमोऽस्तु ते ।।
ब्रह्मा, विष्णु और महेश की सृष्टि, पालन और संहार करने वाली जो त्रिविध शक्तियाँ हैं, उनके रूप में तुम्हीं विद्यमान हो; अतः तुम्हें नमस्कार है।
मधुकैटभभीत्या च त्रस्तो धाता प्रकम्पितः ।
स्तुत्वा मुक्तश्च यां देवीं तां मूर्ध्ना प्रणमाम्यहम् ।।
जब मधु-कैटभ के भय से डरकर ब्रह्मा काँप उठे थे, उस समय जिनकी स्तुति करके वे भयमुक्त हुए थे; उन देवी को मैं सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ।
मधुकैटभयोर्युद्धे त्राताऽसौ विष्णुरीश्वरीम् ।
बभूव शक्तिमान्स्तुत्वा त्वां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ।।
मधु-कैटभ के युद्ध में जगत के रक्षक ये भगवान विष्णु जिन परमेश्वरी का स्तवन करके शक्तिमान हुए थे; उन दुर्गा को मैं नमस्कार करता हूँ।
त्रिपुरस्य महायुद्धे सरथे पतिते शिवे ।
यां तुष्टुवुः सुराः सर्वे तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ।।
त्रिपुर के महायुद्ध में रथ सहित शिव जी के गिर जाने पर सभी देवताओं ने जिनकी स्तुति की थी; उन दुर्गा को मैं प्रणाम करता हूँ।
विष्णुना वृषरूपेण स्वयं शम्भुः समुत्थितः ।
जघान त्रिपुरं स्तुत्वा तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ।।
जिनका स्तवन करके वृषरूपधारी विष्णु द्वारा उठाये गये स्वयं शम्भु ने त्रिपुर का संहार किया था; उन दुर्गा का मैं अभिवादन करता हूँ।
यदाज्ञया वाति वातः सूर्यस्तपति सन्ततम् ।
वर्षतीन्द्रो दहत्यग्निस्तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ।।
जिनकी आज्ञा से निरन्तर वायु बहती है, सूर्य तपते हैं, इन्द्र वर्षा करते हैं और अग्नि जलाती है; उन दुर्गा को मैं सिर झुकाता हूँ।
यदाज्ञया हि कालश्च शश्वद्भ्रमति वेगतः ।
मृत्युश्चरति जन्तूनां तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ।।
जिनकी आज्ञा से काल सदा वेगपूर्वक चक्कर काटता रहता है और मृत्यु जीव-समुदाय में विचरती रहती है; उन दुर्गा को मैं नमस्कार करता हूँ।
स्रष्टा सृजति सृष्टिं च पाता पाति यदाज्ञया ।
संहर्त्ता संहरेत्काले तां दुर्गां प्रणमाम्यहम् ।।
जिनके आदेश से सृष्टिकर्ता सृष्टि की रचना करते हैं, पालनकर्ता रक्षा करते हैं और संहर्ता समय आने पर संहार करते हैं; उन दुर्गा को मैं प्रणाम करता हूँ।
ज्योतिस्स्वरूपो भगवाञ्छ्रीकृष्णो निर्गुणः स्वयम् ।
यया विना न शक्तश्च सृष्टिं कर्तुं नमामि ताम् ।।
जिनके बिना स्वयं भगवान श्रीकृष्ण, जो ज्योतिःस्वरूप एवं निर्गुण हैं, सृष्टि-रचना करने में समर्थ नहीं होते; उन देवी को मेरा नमस्कार है।
रक्ष रक्ष जगन्मातरपराधं क्षमस्व मे ।
शिशूनामपराधेन कुतो माता हि कुप्यति ।।
जगज्जननी! रक्षा करो, रक्षा करो; मेरे अपराध को क्षमा कर दो। भला, कहीं बच्चे के अपराध करने से माता कुपित होती है।
इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे परशुरामकृतदुर्गास्तोत्रं नाम पञ्चचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः ।। ४५ ।।