कालिका पुराण अध्याय ३३ – Kalika Puran Adhyay 33

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कालिका पुराण अध्याय ३३ में मत्स्य रूप कथन और कपिल अवतार आख्यान का वर्णन है।

कालिका पुराण अध्याय ३३         

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा-जिस कारण से भगवान ने आकालित यह प्रलय किया था हे महाभागो ! उस वाराह लोक संक्षय का आप श्रवण कीजिए । अथवा जिस तरह से भगवान शार्ङ्गधारी ने मत्स्य के स्वरूप के द्वारा वेदों का त्राण अर्थात् रक्षा की वह मैं सब पापों के विनाश करने वाला आख्यान आप लोगों को बतलाऊँगा ।

प्राचीन समय में ईश्वर भगवान विष्णु महामुनि सिद्ध कपिल हुए थे जो स्वयं साक्षात् हरि थे और सिद्धों के उत्तम मुनि हुए थे । इस प्रकार से सिद्ध का ध्यान करते हुए यह सम्पूर्ण जगत् स्वतः ही समुत्पन्न हुआ था क्योंकि यह भगवान हरि के शरीर से समुद्गत हुआ था इसी कारण से वह कपिल कहे गये हैं। वह एक बार स्वायम्भुव मनु के अन्तर में होकर मुनि श्रेष्ठ से यह वाक्य कहा था ।

कपिल देव ने कहा – हे स्वायम्भुव ! आप तो मुनियों में बहुत ही अधिक श्रेष्ठ हैं । हे महापते ! आप तो ब्रह्मा के ही रूप से समन्वित हैं इस समय में आप प्रार्थना करने वाले मेरे ही अभीष्ट को मुझे प्रदान करिए। यह सम्पूर्ण जगत आपका ही है और आपके द्वारा ही परिपालित है । आपने ही इस सम्पूर्ण जगत् की रचना की है और आप ही इन जगतों के स्वामी हैं । स्वर्ग में, पृथ्वी में और पाताल में, देव, मनुष्य और जन्तुओं में आप ही स्वामी हैं, वरदान देने वाले हैं। रक्षा करने वाले हैं और आप ही एक सनातन हैं अर्थात सर्वदा से चले आने वाले हैं। आप ही धाता, विधाता हैं और आप ही सब ईश्वरों के ईश्वर हैं आप में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है इस कारण से आप कृपा करके ऐसा स्थान प्रदाए करिए जो तीनों लोकों में महान दुर्लभ होवे। मैं समस्त प्राणियों में होकर प्रत्यक्षदर्शी हूँ । मैं ज्ञानरूपी दीपिका का निर्माण करके इस जगत जात का अर्थात् पूरे जगत् का उद्धार करूँगा । इस समय अज्ञानरूपी सागर में मग्न इस सम्पूर्ण जगत को ज्ञानरूपी प्लव अर्थात् सन्तरण का साधन प्रदान करके मैं तीनों का तारण करूँगा । हे प्रभो! आप हमारे नाथ हैं । पूजा के योग्य हैं और जगत के पालक हैं। महात्मा कपिल के द्वारा इस रीति से कहे गए उन मनु ने फिर उन संशित व्रतों वाले महात्मा कपिल को उत्तर दिया ।

मनु ने कहा- यदि आप समस्त जगत का भला करने के लिए ज्ञान दीपिका के करने की इच्छा वाले हैं तो फिर आपको इस स्थान की प्रार्थना से क्या करना है ? आपने पहले हिरण्यगर्भ के महान अद्भुत तप का तपन किया था जो बहुत ही अद्भुत स्वरूप वाला था । हे द्विज ! उसने मुझसे किसी भी स्थान के लिए याचना नहीं की थी कि जहाँ पर तपश्चर्या की जावेगी । भगवान शम्भु तो सम्भोग से सर्वथा शून्य हैं उन्होंने देवों के भाव से वर्षों तक अर्थात् दस हजार वर्षों तक तपश्चर्या की थी किन्तु उन्होंने भी स्थान की कभी इच्छा नहीं की थी । देवेन्द्र, नीतिहोत्र, शमक, राक्षसों का स्वामी, यादवों के पति, मातरिश्वा तथा धनाध्यक्ष कुबेर इन सबने तीव्रतम तप किया था। जो दिक्पाल के पद की इच्छा रखने वाले थे अर्थात् दिक्पाल के पद की प्राप्ति के ही लिए इन सबने तपस्या की थी । हे महामुने ! उन्होंने भी किसी भी स्थान के अनुसन्धान करने की इच्छा नहीं की थी । हे कपिल! देवों के आलय, तीर्थ, स्थल, क्षेत्र तथा पवित्र सरितायें बहुत से पुण्य परिपूर्ण स्थान इस भूमि में स्थित हैं उनमें से आप किसी भी एक स्थान की प्राप्त करके तपश्चर्या करते हैं । हे ब्रह्मन् ! क्या वहाँ पर तपश्चर्या की सिद्धि नहीं होगी ! फिर मुझसे किसी भी स्थान की प्रार्थना करना केवल आपका विकत्थन ही है । यह ऐसा विकत्थन करना तपस्वियों को धर्म युक्त नहीं होता है ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- स्वायम्भव मनु के इस वचन का श्रवण करके सिद्ध कपिल बहुत अधिक कुपित हुए थे और उस समय उन्होंने मनु से कहा ।

कपिल देव बोले- शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त करने के लिए मैंने आपसे स्थान की प्रार्थना की थी किन्तु आप तो बहुत से हेतुओं के द्वारा मेरे ही ऊपर आक्षेप कर रहे हैं। आपके इस अत्यन्त उग्र वचन को मैं सहन करने में असमर्थ हूँ । आप स्वयं तीनों भुवनों के अध्यक्ष हैं यही आपका ऐसा गर्व है । आज मुझे आपका यह वचन क्षमा करने के योग्य नहीं है कि आप मेरी की हुई प्रार्थना विकत्थन कह रहे हैं। ऐसा जो आप कहते हैं उसका यह फल प्राप्त करिए। यह तीनों भुवनों जिसमें देव, असुर और दानव निवास किया करते हैं इनका अब हत-प्रहत और विध्वंस बहुत ही शीघ्र हो जायेगा ।

जिसने इस पृथ्वी का उद्धार दिया था अथवा जिसके द्वारा यह पुनः स्थापित की गयी थी, जो इसका अन्तकर्ता है अथवा जो इसकी परिरक्षा करने वाला है वे ही सब सम्पूर्ण चराचर की हिंसा करे । हे मनुदेव! आप शीघ्र ही इन तीनों भुवनों को जल से पूर्ण देखेंगे । आपके गर्व के कारण यह सब हत-प्रहत और विध्वंस हो जायेगा । तपों के निधि मुनीन्द्र कपिलदेव यह वचन कहकर वहीं अन्तर्धान हो गये थे और फिर वे मुनि उसी समय ब्रह्माजी के स्थान को चले गये थे । कपिल देव के इस वचन को सुनकर मनु का मुख विषाद से युक्त हो गया था । वह होनहार है, ऐसा समझकर उस मनु ने कुछ भी नहीं कहा था। इसके अनन्तर परम बुद्धिमान स्वायम्भुव मनु ने तपस्या करने के लिए ही मन में धारणा की थी। वे समस्त जगतों की भलाई के लिए भगवान गरुड़ध्वज के दर्शन प्राप्त करने की इच्छा वाले हुए थे। वे गंगा द्वार के समीप में परम विशाल बद्रीविशाल को गमन कर गए थे । वहाँ पहुँचकर जगत के धर्ती स्वायम्भुव मनु ने स्वयं ही पापों के विनाश करने वाली पुण्यतोया बदरी का वहाँ पर दर्शन किया था। जो सदा फलों वाली थी और नित्य ही कोमल शाद्वल की मञ्जरी से समन्वित थी, जो सुन्दर छाया वाली, मसृण और सूखे हुए यंत्रों से रहित थी ।

वह गंगा के जल की राशि से संसिक्त शिखा और मूल सम्पूर्ण मध्य भाग से समन्वित थी, जो निरन्तर अनेक मुनियों और तपस्वियों के द्वारा उपासना की गई थी। वह स्थान सभी प्रकार से परम शुभ था और नाना मृगों के समुदाय से संयुक्त था जिसके जल में विकसित कमल थे, वह परमाधिक रमणीक था । उस स्थान प्रवेश करके लोकों के भावन करने वाले मुनि ने तपश्चर्या करने के लिए यत्न किया था। वे वहाँ पर नियत आहार वाले परम समाधि से संयुत हो गये थे । वहाँ पर उन्होंने भगवान हरि की समाराधना की थी ।

आराधयामास हरिञ्जगत्कारण कारणम् ।

सर्व्वेषां जगतान्नाथं नीलमेघाञ्जनप्रभम् ॥

जो जगत् के कारण के भी कारण हैं तथा समस्त जगतों के नाथ हैं और नीले मेघ तथा अञ्जन की प्रभा के समान से युक्त थे ।

मनु ने जिस भगवान के स्वरूप का ध्यान किया था उसी का वर्णन किया जाता है।

शङ्खचक्रगदापद्मधर कमललोचनम् ।

पीताम्बरधरं देव गरुडोपरिसंस्थितम् ॥

जगन्मय लोकनाथ व्यक्ताव्यक्त स्वरूपिणम् ।

जगद्वीजं सहस्राक्षं सहस्रशिरसं प्रभुम् ॥

सर्व्वव्यापिनमाधारं नरायणमज विभुम् ॥

वे शंख, चक्र, गदा और पद्म के धारण करने वाले हैं, कमल के सदृश लोचनों से युक्त हैं, पीत वर्ण के वस्त्र के धारण करने वाले हैं जो देव गरुड़ के ऊपर विराजमान हैं । जो जगत् से परिपूर्ण हैं, लोकों के नाथ हैं तथा व्यक्त और अव्यक्त स्वरूप वाले हैं, जो इस जगत् के बीज हैं और सहस्र नेत्रों वाले तथा सहस्त्र शिरों से समन्वित प्रभु हैं, जो सबमें व्यापी, सबके आधार, अज, विभु और नारायण हैं ।  

मनु ने सर्व वेदों से परिपूर्ण इस परम मन्त्र का जाप किया ।

हिरण्यगर्भ पुरुषप्रधानाव्यक्तरूपिणे ।

ॐ नमो वासुदेवाय शुद्धज्ञान स्वरूपिणे ॥

उस मन्त्र का अर्थ यह है- हिरण्यगर्भ पुरुष, प्रधान अव्यक्त रूप वाले, शुद्ध ज्ञान के स्वरूप वाले भगवान वासुदेव के लिए नमस्कार है ।

इस प्रकार के मन्त्र का जाप करने वाले स्वायम्भव मनु के ऊपर जगत् के स्वामी भगवान केशव शीघ्र ही प्रसन्न हो गए थे। अब जिस रूप से भगवान ने मनु को दर्शन दिया था उसका वर्णन किया जाता है, फिर एक क्षुद्रझष (मत्स्य) होकर वे सामने प्राप्त हुए थे ।

ततः क्षुद्रझषो भूत्वा दूर्वादल समप्रभः ।

कर्पूरकलिकायुग्मतुल्य नेत्रयुगोज्ज्वलः ॥

जो दुर्व़ादल के समान प्रभा से युक्त थे, जो कर्पूर कलिका के जोड़े के तुल्य नेत्रों के युगल से मुक्त परम उज्ज्वल थे।

उस समय में एक बहुत छोटे मत्स्य के स्वरूप से युक्त भगवान जनार्दन तपस्या करते हुए स्वायम्भुव मुनि मनु के सामने आये थे जो मनु महान आत्मा वाले थे।

वे प्रभु उस समय में महान् आत्मा वाले, कारुण्य से युक्त, सुमन्त्रस्त अर्थात भययुक्त गद्गदता से समन्वित उन स्वायम्भुव मनु से बोले – हे तपोनिधि! हे महाभाग! आप डरे हुए मेरी रक्षा करने के योग्य होते हैं । विशाल मत्स्यों से मैं परमभीत ( डरा हुआ ) हूँ जो मुझे कहीं खा न जावें इसीलिए मैं नित्य ही उद्वेग वाला रहता है। हे महाभाग ! प्रतिदिन की बड़े-बड़े मत्स्य मुझे खाने के लिए मेरे पीछे दौड़ लगाया करते हैं । सभी ओर से बड़ी संख्या में बड़े मत्स्य मुझे खाने के लिए आया करते हैं । हे नाथ! आप मेरी रक्षा करने के लिए समर्थ हैं ।

आज बड़े-बड़े रोमों वालो से, बड़े और बहुतों के द्वारा मैं विदारित किया गया हूँ। सबसे छोटा थक गया हूँ और भागने में परम असमर्थ हूँ। मैं अपने प्राणों के रक्षित करने की इच्छा वाला हूँ । आप महान आत्मा वाले हैं ऐसे मुनि मैं आपकी शरणागति मैं प्राप्त हुआ हूँ । आपका परम अनुग्रह हैं । आप मेरी रक्षा कीजिए । भय से उद्भ्रान्त मन वाला मैं चंचल तरंगों वाली परम चंचल इस वृक्षों की छाया का अवलोकन करके मत्स्य की ही भाँति डर रहा हूँ ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इसके अनन्तर इस अनेक वचन का श्रवण करके स्वायम्भुव मनु परमाधिक कृपा से समन्वित होकर उनसे बोले थे कि मैं आपकी रक्षा करने वाला हूँ । फिर हाथ में जल लेकर उस मत्स्य को उसमें निधापति करके समक्ष में उस परमक्षुद्र मत्स्य के विहार का अवलोकन करने लगे थे । इसके अनन्तर परम दयालु मनु ने सुन्दर स्वरूप वाले उस मत्स्य को जल से पूर्ण विपुल योग वाले अलिञ्जर में रखा दिया था । वह मत्स्य उन मणिक में दिन-दिन में बढ़ता हुआ सामान्य रोहित के शरीर वाला शीघ्र ही हो गया । वह महात्मा प्रतिदिन दश घट जल से पूरिपूर्ण उस मणिक को बढ़ाते रहे थे और मत्स्य को वर्धित कर दिया था । अर्थात् वह मत्स्य बड़ा होता चला गया था और बड़े-बड़े नेत्रों वाला एक बालक मत्स्य थोड़े ही समय में उस मणिक के जल के मध्य में लोमों से युक्त पीन देह वाला हो गया था ।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे सृष्टिकथननाम त्रयस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः॥ ३३ ॥

आगे जारी……….कालिका पुराण अध्याय 34 

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