Kulsum Sayani Autobiography | कुलसुम सयानी का जीवन परिचय : इतिहास के पन्नों में दबी एक निस्वार्थ समाजसेवी और स्वतंत्रता सेनानी

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कभी भी यह समझने का प्रयास किया जाए कि हमारे समाज में सुधार कैसे आएगा, इसकी तरक्की कैसे होगी। इस सुधार में सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक सभी पहलूओं के सवाल शामिल हैं। हम एक समान और समावेशी समाज कैसे बना सकते हैं तो इसका केवल एक ही जवाब मिलता है- शिक्षा।

इसी क्रम में आज हम बात करेंगे एक ऐसे ही व्यक्तित्व की जिन्होंने समाज के विकास और ख़ासकर महिला सशक्तीकरण के लिए शिक्षा को महत्वपूर्ण ज़रिया मानकर जीवनभर इस दिशा में काम किया। उन्होंने हर इंसान को शिक्षित करने का संकल्प लिया। भले ही वर्तमान समय में इनका नाम कम सुना जाता हो मगर इतिहास के पन्नों को पलटकर देखा जाए तो उनकी ख्याति तुरंत नज़र आती है। हम बात कर रहे हैं महिला सशक्तीकरण के लिए प्रतिबद्ध, स्वतंत्रता सेनानी कुलसुम सयानी की।

शुरुआती जीवन

कुलसुम सयानी का जन्म 21 अक्टूबर साल 1900 में गुजरात में हुआ था। उनकी प्राथमिक शिक्षा स्थानीय विद्यालयों में ही हुई। उनके पिता का नाम राजबली पटेल था। वह पेशे से चिकित्सक थे। साल 1917 में कुलसुम सयानी की मुलाकात अपने पिता के साथ महात्मा गांधी से हुई। उनसे बातचीत और उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर कुलसुम ने उनके ही कदमों पर चलने की ठानी।

कुलसुम ने आज़ादी की लड़ाई के दौरान सामाजिक सुधारों के लिए संघर्ष किया। समाज में व्याप्त कुरीतियों और महिलाओं के उत्थान के लिए ,उन्हें शिक्षित करने का दृढ़ संकल्प लिया। उनकी शादी डॉ. जान मोहम्मद सयानी से हुई। वह भी एक स्वतंत्रता सेनानी थे और उन्होंने कुलसुम के काम को भरपूर समर्थन दिया। वे दोनों ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की गतिविधियों में सक्रियता से भाग लिया करते थे।

घर-घर जाकर लोगों को पढ़ने के लिए प्रेरित

कुलसुम सयानी ने देश में शिक्षा की महत्वत्ता को बढ़ावा देनेवाली अनेक समितियों और संगठनों को स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई है। उन्होंने होम एजुकेशन स्कीम के ज़रिये मुस्लिम महिलाओं में शिक्षा को लेकर काम शुरू किया। उन्होंने क्षेत्र में घूम-घूमकर लोगों को शिक्षित करने की शुरुआत की। पढ़नेवाले बच्चों को इकठ्ठा करने के लिए वह लोगों के घरों के चक्कर लगाया करती थीं। दूसरे अध्यापकों के साथ मिलकर वह खुद भी उन्हें पढ़ाती थीं।

लोगों की रुचि को बरकरार रखने और और उन्हें योजनाओं से जोड़े रखने के लिए एक पत्रिका की शुरुआत की। पत्रिका का नाम था ‘रहबर’ रहबर तीन भाषाओं हिंदी, उर्दू और गुजराती में छपती थी। यह पत्रिका उस दौर के नव-युवकों के लिए उल्लेखनीय थी।

उस दौर में सबसे बड़ी समस्या लोगों को शिक्षा के प्रति जागरूक कर उन्हें इससे जोड़ना था। समाज में महिला शिक्षा को लेकर रूढ़िवादिता अपने चरम पर थी। कुलसुम सयानी लोगों के घर जाया करतीं और उन्हें महिलाओ को शिक्षित करने के महत्व समझाया करती थीं। जब वह लोगों के घर जाया करती थीं तो कभी-कभी लोग उनके मुंह पर ही दरवाजे बंद कर दिया करते थे या उन्हें जाने के लिए कह दिया करते थे लेकिन सयानी ने हार नहीं मानी। घर से स्कूल तक का सफर जब मुश्किल हुआ तो उन्होंने घर को ही स्कूल बना दिया। साथ ही हर उस वयस्क जो शिक्षित हैं उसे अपने घर या अपने आस पड़ोस वालों को पढ़ाने के लिए प्रेरित करती थी। इस तरह वह पूरा क्षेत्र ही विद्यालय बन गया था और शिक्षा के माध्यम से अज्ञानता का अंधकार छटने लगा।

कुलसुम सयानी को अपने अथक प्रयासों और उससे प्राप्त अनुभवों से यह महसूस हुआ की इस योजना को साकार करने लिए संगठित संस्थानों की आवश्कता है। इसके बाद वह कई समितियों से जुड़ीं और उनके साथ मिलकर काम किया। वह एक ऐसी समिति से जुड़ी जिसका गठन 1938 में कांग्रेस सरकार द्वारा वयस्कों को शिक्षित करने के लिए हुआ था। 1939 में गठित बॉम्बे सिटी सोशल एजुकेशन कमिटी ने सयानी को मुस्लिम महिलाओं के खानपान का ध्यान रखने के लिए अपने 50 केंद्रों की जिम्मेदारी सौंपी। धीरे-धीरे इस संख्या में वृद्धि हुई और यह तकरीबन 600 तक पहुंच गई। हालांकि, शुरुआती दौर में उन्होंने मुस्लिम महिलाओं के साक्षरता पर अधिक जोर दिया परंतु वह केवल मुस्लिम महिलाओं ही नहीं अन्य सभी धर्म और समुदाय से जुड़े लोगो को भी शिक्षित किया। साल 1944 में उन्हें अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की महासचिव नियुक्त किया गया। उन्होंने महिला सशक्तिकरण के लिए बहुत से काम किए।

‘रहबर’ नाम से शुरू की पत्रिका

कुलसुम स्कूलों में जाया करती थी और विद्यार्थियों को अपना 15 मिनट किसी अन्य अशिक्षित व्यक्ति को पढ़ाने के लिए प्रेरित करती थीं। मौलिकता और नैतिकता के लिए लोक कथाएं सुनाया करती थीं। सयानी अपने कार्यों के प्रति बहुत ईमानदार और दृढ़ थीं। काम में मिल रही सफलता के साथ उनका उत्साह बढ़ता गया। लोगों की रुचि को बरकरार रखने और और उन्हें योजनाओं से जोड़े रखने के लिए एक पत्रिका की शुरुआत की। पत्रिका का नाम था ‘रहबर।’ यह तीन भाषाओं हिंदी, उर्दू और गुजराती में छपती थी। यह पत्रिका उस दौर के नव-युवकों के लिए उल्लेखनीय थी।

कुलसुम सयानी एक शिक्षिका, सामाजिक कार्यकर्ता, स्वतंत्रता सेनानी के साथ-साथ एक लेखिका भी थीं। उन्होंने शिक्षा के कई विषयों व्यस्क शिक्षा प्रोग्राम, सामाजिक आंदोलन और भारत-पाक मित्रता जैसे विषयों पर व्यापक तौर पर लिखा था। उनकी लिखी किताबों में हिंदी भाषा में शिक्षा में मेरे अनुभव, भारत-पाक मैत्री-मेरा प्रयत्न, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भूमिका, भारत में प्रौढ़ शिक्षा शामिल हैं।

भारत-पाकिस्तान के बीच मित्रता बनाने पर दिया ज़ोर

कुलसुम सयानी ने दुनियाभर में शिक्षा पर कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व किया। साल 1953 में कुलसुम सयानी ने यूनेस्को सम्मेलन में भाग लिया। वहां उन्होंने अपने विचारों को साझा किया और अन्य देशों के प्रतिनिधियों से नये दृष्टिकोण प्राप्त किए। वह शिक्षा के अलावा भारत-पाकिस्तान के बीच शांति को स्थापित करने के लिए भी जानी जाती हैं। दोनों देशों के बीच मित्रता बनाने के लिए उन्होंने दोनों देशों के बड़े नेताओं का प्रोत्साहन और समर्थन भी मिला। उन्होंने पाकिस्तान के साथ संबंधों को सुधाने पर बहुत ज़ोर दिया था।

कुलसुम सयानी एक शिक्षिका, सामाजिक कार्यकर्ता, स्वतंत्रता सेनानी के साथ-साथ एक लेखिका भी थीं। उन्होंने शिक्षा के कई विषयों जैसे व्यस्क शिक्षा प्रोग्राम, सामाजिक आंदोलन और भारत-पाक मित्रता जैसे विषयों पर व्यापक तौर पर लिखा था। उनकी लिखी किताबों में हिंदी भाषा में ‘शिक्षा में मेरे अनुभव, भारत-पाक मैत्री-मेरा प्रयत्न, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भूमिका, भारत में प्रौढ़ शिक्षा’ आदि शामिल हैं।

‘रहबर’ पत्रिका के संपादक के तौर पर उन्हें बहुत प्रतिष्ठा और सम्मान मिला। लेकिन वृद्धावस्था ने उन्हें साल 1960 में रहबर को बंद करने के लिए मजबूर कर दिया। लेकिन उन्होंने समाज से साक्षरता मिटाने के मिशन को हमेशा जारी रखा। भारत सरकार ने सामाजिक सुधार के कामों में योगदान के लिए कुलसुम सयानी को साल 1959 में पद्मश्री से सम्मानित किया। साल 1969 में नेहरू साक्षरता अवार्ड से भी नवाज़ा गया। 27 मई 1987 में उनका देहांत हो गया और पूरी ज़िंदगी सामाजिक उत्थान के लिए लगी रहनेवाली कुलसुम ने हमेशा के लिए के लिए दुनिया को अलविदा कह दिया।

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