माया तन्त्र पटल १, मायातन्त्रम् प्रथम: पटलः Maya Tantra Patal 1
तन्त्र श्रृंखला में आगमतन्त्र से माया तन्त्र के पटल १ में सृष्टि की उत्त्पत्ति का वर्णन हुआ है।
मायातन्त्र पहला पटल
मायातन्त्रम्
अथ प्रथमः पटलः
।। ॐ नमः परमदेवतायै ।।
श्री ईश्वर उवाच
शृणु प्रिये प्रवक्ष्यामि तत्त्वमन्यद् यथा पुरा ।
तोयव्याप्ते तु सर्वत्र स्वर्गे मर्त्ये रसातले ॥1 ॥
भूतभावन भगवान् शंकर ने पार्वती से कहा कि हे देवि ! पार्वति ! अब मैं तुम्हें उस तत्त्व को बताऊंगा, जो कि अत्यन्त प्राचीनकाल सृष्टि के आदि में घटित हुआ है। हे देवि! सृष्टि के आदिकाल में जब कि स्वर्गलोक, मर्त्यलोक और पाताललोक में सभी जगह पर जल ही जल व्याप्त था। जल के अलावा कहीं कुछ भी नहीं था ॥1 ॥
विश्वे चैकार्णवीभूते न सुरासुरमानवाः ।
न च क्षितिर्न वा किञ्चित् तोयमात्रावशेषिताः ॥ 2 ॥
उस समय समस्त संसार एकार्णव (एक सागर) में व्याप्त था अर्थात् एक ही समुद्र था; आज की तरह सात समुद्र नहीं थे; क्योंकि पृथ्वी नहीं थी तो फिर समुद्रों का विभाग कैसे होता । अतः सात न होकर एक ही सागर में सर्वत्र जल ही जल था और एकार्णव एक समुद्र वाले इस संसार में न सुर थे, न असुर थे और न मनुष्य ही थे और न ही पृथ्वी थी। सर्वत्र जल ही जल था ।। 2 ।।
तदा विश्वोद्भवाद् देवात् सिसृक्षा समजायत ।
ध्यात्वा स्वर्गादिसमये मायां सस्मार च प्रभुः ॥3॥
तब विश्व से उत्पन्न देव से सृष्टि करने की इच्छा उत्पन्न हुई और उन प्रकृष्ट रूप से उत्पन्न (प्रभु) ने स्वर्ग आदि के समय में माया का ध्यान करके माया का स्मरण किया ॥3॥
विशेष :- इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि इस समय जो हम इस संसार को देख रहे हैं, वह कार्यरूप है। अतः जब कार्य है तो उसका कारण अवश्य होगा। इसी के आधार पर हम इस सृष्टि के कर्ता ब्रह्म तक पहुंचते हैं। अत: वह ईश्वर, ब्रह्म कर्ता है, परन्तु कर्ता को उस वस्तु की आवश्यकता होती है, जिससे कि वह उस विशेष का निर्माण करे। जैसे कुम्हार जब घड़े को बनाता है तो उसे मिट्टी की आवश्यकता है। मिट्टी से ही वह घट का निर्माण करता है, उसी तरह उस ब्रह्म को माया की आवश्यकता हुई। अतः माया ही प्रकृति है, जो 24 तत्त्वों का एक समन्वय है। अतः इनमें सबसे पहले पृथ्वी का निर्माण हुआ; क्योंकि जब सर्वत्र जल ही जल था तो फिर आकाश, वायु, अग्नि और जल ये तो पहले से ही विद्यमान रहे थे, जो प्रकृति के आधारभूत तत्त्व हैं। तब ब्रह्मा ने पृथ्वी तत्त्व के निर्माण के लिए उन पहले से उपस्थित माया का स्मरण किया । जिसे दूसरे शब्दों में हम प्रकृति, चण्डी, काली, माहामाया, विष्णु की माया आदि नाम से पुकारते हैं। यही हैं-देवी माया, जिससे इस संसार का निर्माण हुआ। अतः ये संसार की उपादान कारण है तथा ब्रह्म (ईश्वर) निमित्त कारण है, जैसे कि घटरूप कार्य का निमित्त कारण कुम्हार है। जिस प्रकार कुम्हार घट का कर्ता है, उसी प्रकार इस आधार का कर्ता ईश्वर है, जिसे कोई ब्रह्म कहता है। कोई गौड कहता है। कोई अल्लाह कहता है।
तदा वटदलं भूत्वा तोयान्तः समवस्थितम् ।
ततो नारायणं देवं सा दधार स्वलीलया ॥ 4 ॥
अतः जब सर्वत्र जल ही जल था तब उस परमपिता परमेश्वर ब्रह्म अल्लाह गौड ने सृष्टि रचना अर्थात् संसार का निर्माण करने के लिए अपनी प्रकृति (माया) को याद किया तथा जब उन्हें सृष्टि करने की इच्छा हुई तभी याद किया। इससे यह भी सिद्ध होता है कि ऐसा वे पहले से सोच चुके थे। तब उसके बाद उस माया (प्रकृति) देवी ने वटदल बनकर जल मध्य स्थित उन परमेश्वर (नारायण) को अपनी लीला से धारण कर लिया ।। 4 ।।
विशेष :- यहाँ पर अत्यन्त मार्मिक तथ्य पर प्रकाश डाला गया है। यहाँ वट दल (वट वृक्ष की शाखायें और पत्तों) को कहा जाता है। वट वृक्ष जल में वनस्पति की उत्पत्ति का प्रतीक है। अतः यहाँ वैज्ञानिक रहस्य का उद्घाटन किया गया है, जैसा कि वैज्ञानिकों का कहना है कि पहले जल ही जल था, फिर इसमें काई पैदा हुई, उसमें एक कीट पैदा हुआ, जिसे बिना हड्डी पसली का अमीबा कहा जाता है, फिर उसी से धीरे-धीरे मत्स्यादि के क्रम से मनुष्य रूप बना। अर्थात् अमीबा नामक बिना हड्डी-पसली (Without cell ) के जीव से अनेकों प्रकार से जीवों में बदलते हुए मत्स्य रूप आया जिसे मत्स्यावतार कहा जाता है। मत्स्य के बाद अनेकों जल जीवों के रूप में आते हुए जल और थल पर विचरण करने वाले कछुआ के रूप में जीवोत्पत्ति हुई, जिसे कच्छप अवतार कहा गया है। बाद में अनेकों जीवों के रूप में विकसित होता हुआ वराह (सुअर) रूप हुआ, तब बन्दर आदि के बाद मनुष्य रूप में जीव का विकास हुआ। इस प्रकार 84 लाख योनियों के रूप में घूमते हुए यह जीव मानव रूप में आया। यह हमारा पौराणिक जीव विकास है, जो डारविन महोदय के विकासवाद के सिद्धान्त से पूर्णतः मेल खाता है। विज्ञान ने जिसे आज सिद्ध किया है। यह भारतीय ग्रन्थों में बहुत पहले ही बताया जा चुका है। कहना होगा कि जल में वनस्पति से जीव की उत्पत्ति है। अतः यहाँ वट वृक्ष वनस्पति का प्रतीक है। अतः यह वट वृक्ष ईश्वर का आधार हुआ। ईश्वर यहाँ पर विष्णु को मान सकते हैं। अतः वे विष्णु ब्रह्म अल्लाह खुदा ईश्वर गौड तो रहे होंगे, परन्तु वे निराधार होंगे; परन्तु उन्होंने अपने आधार के लिए प्रकृति माया का स्मरण किया और उस माया ने वटवृक्ष बनकर उन विष्णु अर्थात् जीव को आश्रय दिया। इसका भाव है कि सर्व प्रथम जीव (जीवनी शक्ति) वनस्पति में उत्पन्न हुई। यह वैज्ञानिक तथ्य है। कहीं-कहीं वट वृक्ष के स्थान पर कमल कहा गया है। जल से कमल, कमल से ब्रह्मा, ब्रह्मा से संसार ऐसा तो वेदादि शास्त्रों में बहुत पहले से कहा जाता रहा है।
यहाँ श्लोक में माया ने नारायण को अपनी लीला से धारण कर लिया। इस कथन में गूढ़ वैज्ञानिक रहस्य भरा पड़ा है; क्योंकि नारायण शब्द का अर्थ है नार+अयन अर्थात् नार शब्द का अर्थ है-जल, अयन का अर्थ है- घर (निवास स्थान) अतः नारायण का अर्थ हुआ जल, घर है, जिनका, अर्थात् भगवान विष्णु। ऐसे यदि सोचा जाये तो विष्णु जीवनीय तत्त्व है, जिसे जीव कहा जाये तो अन्यथा नहीं है। तब नारायण का अर्थ हुआ-नार है घर जिसका अर्थात् जल है घर जिसका, इससे यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि जीव (विष्णु) का घर जल है। इसीलिए तो यह कहा जाता है कि जल ही जीवन है। ऐसे भी वैज्ञानिक तथ्य है कि जल का सूत्र है H2O अर्थात् जल हाइड्रोजन और आक्सीजन का मिश्रण है। आक्सीजन ही जीवन है, जो जल में है; क्योंकि आक्सीजन से ही समस्त जीव-जन्तु स्थित रहते हैं, अगर ऑक्सीजन नहीं हो तो पेड़-पौधे जीव-जन्तु मनुष्यादि सभी नष्ट हो जायेंगे। याद रहे जब मनुष्य मरने के कगार पर होता है, तब उसे आक्सीजन द्वारा जीवित रखा जाता आक्सीजन न मिलने पर मनुष्य प्राण त्याग देता है। आक्सीजन के कारण ही यह संसार चल रहा है, जिस दिन आक्सीजन समाप्त हो जायेगा, उसी दिन संसार नष्ट हो जायेगा। जहाँ जिस ग्रह पर आक्सीजन नहीं हैं, वहाँ जीवन भी नहीं है. जब तक वहाँ आक्सीजन नहीं होगी, जीवन नहीं होगा। जिस गृह पर जल होगा, वहाँ आक्सीजन अवश्य होगा। यदि वहाँ जल है तो जीवन भी होगा यदि जल है और जीव नहीं है तो धीरे-धीरे वहाँ वनस्पति होगी और बाद में जीव की उत्पत्ति होगी ही। यह शाश्वत सत्य है।
तब गम्भीरता पूर्वक विचार करने पर हमें इस निष्कर्ष पर स्वतः पहुंच जाना चाहिए कि नारायण शब्द वैज्ञानिक रहस्य को रखता है; क्योंकि नार= जल है, घर जिनका, वे नारायण तथा जल में आक्सीजन होता है। अतः जल आक्सीजन का घर है, इससे यह स्पष्ट होता है। आक्सीजन का प्राचीन भारतीय संस्कृति में नाम है- विष्णु । अतः विष्णु भगवान् को यदि ऑक्सीजन कहा जाए तो लेशमात्र भी गलत नहीं होगा; परन्तु आधुनिक विज्ञान के प्रतिपादक समस्त वैज्ञानिक चमत्कार के मूलमन्त्रों को अग्नि में स्वाहा कर देने वाले पौंगापण्डित न मानें तो यह उनकी हठधर्मिता ही है। प्रत्येक वैज्ञानिक चमत्कार का मूल मन्त्र हमारे वेद पुराणादि ग्रन्थों में विद्यमान है। यहाँ विषय विस्तार के भय से प्रस्तुत करना उचित नहीं है।
विचचार तदा तोये स्वेच्छाचारः स्वयं विभुः ।
विचरन्तं वटदले तोयेषु परमेश्वरम्॥5॥
वटवृक्षस्थितस्तत्र मार्कण्डेयो महामुनिः ।
ददर्श परमेशानं शिवमव्यक्तरूपिणम् ॥6 ॥
आगे भगवान् शिव पार्वती जी से कहते हैं कि सृष्टि के आदि में जब माया ने वटवृक्ष बनकर जल में स्थित नारायण को अपनी लीला से धारण कर लिया, तब वे स्वयं विशेष रूप से पैदा होने वाले प्रभु नारायण (विष्णु) अपनी इच्छानुसार जल में विचरण करने लगे, तब जलों के मध्य वटदल में विचरण करते हुए अव्यक्त (निराकार) परम ईशान परमेश्वर शिव को वटवृक्ष पर स्थित मार्कण्डेय मुनि ने देखा ।।5 -6।।
विशेष :- वट वृक्ष के पत्र, जल में वनस्पति का प्रतीक है अर्थात् जल में काई है, उस वटदल पर स्थित परमेश्वर वनस्पति (काई) जीव की उत्पत्ति का प्रतीक है तथा महामुनि मार्कण्डेय ने देखा । यह उस समय के वैज्ञानिक महामुनि मार्कण्डेय थे, ऐसा घोषित होता है। अतः इस वैज्ञानिक अनुसन्धान के प्रथम अनुसन्धाता महामुनि मार्कण्डेय है, ऐसा स्पष्ट ध्वनित होता है।
तुष्टाव स तदा हृष्टो मुनिः परमकारणम् ।
नमस्ते देवदेवेश सृष्टिस्थित्यन्तकारक ! ॥ 7 ॥
तब वहाँ वटदल (वनस्पति) में स्थित संसार के परम कारण संसार की रचना, संसार का पालन और संसार का संहार करने वाले विष्णु (जीवनीय तत्त्व) को देखकर प्रसन्न हुए महामुनि मार्कण्डेय सन्तुष्ट हो गये और फिर उन्होंने कहा कि हे देवों के देव सृष्टि स्थिति और संसार करने वाले तुम्हें नमस्कार है ।।7 ।।
विशेष :- यहाँ पर प्रथम वैज्ञानिक महामुनि मार्कण्डेय को यह पूर्ण विश्वास हो गया कि जल में उत्पन्न वनस्पति में ही जीवनीय तत्त्व (आक्सीजन) का निवास है।
ज्योतीरूपाय विश्वाय विश्वकारणहेतवे ।
निर्गुणाय गुणवते गुणभूताय ते नमः।। 8 ।।
तब उन्होंने कहा कि हे ज्योतिरूप, विश्व के कारण, विश्वरूप निर्गुण और सगुण स्वरूप गुणभूत परमेश्वर तुम्हे नमस्कार है ।। 8 ।।
विशेष :- यहाँ पर उन विष्णु (जीवनीय तत्त्व) को विश्व का कारण कहना तो उचित ही है साथ ही उन्हें सगुण और निर्गुण कहना भी उचित है; क्योंकि उनका निराकार जो सम्भवतः जीवतत्त्व में बदलने से पूर्व रहा हो, निर्गुण ही कहा जायेगा, परन्तु सगुण तो जीव की उत्पत्ति करने में हो ही गया । अतः उस आदि तत्त्व को सगुण और निर्गुण दोनों ही कहा जा सकता है। यह वैज्ञानिक अनुसन्धान का विषय है।
केवलाय विशुद्धाय विशुद्धज्ञानहेतवे ।
मायाधाराय मायेशरूपाय परमात्मने ॥9॥
उन मार्कण्डेय मुनि ने अपने ज्ञात जीवनीय तत्त्व को नमन करते हुए कहा कि हे केवल (एक मात्र) जीवन को प्रदान करने वाले, विशुद्ध रूप वाले, हे विशुद्ध ज्ञान को देने वाले, हे माया (प्रकृति के आधार (प्रकृति पर अवलम्बित) माया के ईश (प्रकृति के स्वामी) परमात्मा तुम्हें नमस्कार है।।9।।
नमः प्रकृतिरूपाय पुरुषायेश्वराय च।
गुणत्रयविभागाय ब्रह्मविष्णुहराय च ॥10॥
महामुनि मार्कण्डेय ने कहा कि हे प्रकृति स्वरूप पुरुष रूप के लिये और ईश्वर स्वरूप के लिये सत्त्व रजस् और तमस् तीनों गुणों का विभाग करने वाले ब्रह्मा विष्णु और शंकर तीनों रूप वाले प्रभो तुम्हें नमस्कार है ।।10।।
विशेष :- वनस्पति स्थित उस प्रथम जीव को प्रकृति का स्वरूप माना गया है । पुरुष रूप के लिये और ईश्वर रूप के लिये। अतः वह वनस्पति स्थित जीवनीय तत्त्व है, वही जीवन की रचना करने वाला है। वही ब्रह्मा ( रचना करने वाला) वही विष्णु (पालन करने वाला) वही हर ( प्राणों को हरने वाला) है। ऐसे भी देखिये आक्सीजन होने पर ही जीव की उत्पत्ति होती है। आक्सीजन ही जीव का पालन कर रहा है। जीव-जन्तु आक्सीजन से ही जीवित हैं। प्रायः चिकित्सक ऑक्सीजन की कमी होने पर मृत्यु को प्राप्त होने वाले व्यक्ति को आक्सीजन देकर जीवित रखते हैं तथा ऑक्सीजन मनुष्य के प्राण ले लेता है अर्थात् जब आक्सीजन नहीं मिलता तो जीव की मृत्यु हो जाती है। अतः यह ऑक्सीजन ब्रह्मा विष्णु और शंकर तीनों ही है।
नमो देव्ये महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।
मायायै परमेशान्यै मोहिन्यै ते नमो नमः ॥11॥
देवी के लिए नमस्कार है। महादेवी के लिए नमस्कार है। शिवा के लिए निरन्तर नमस्कार है, जो माया है, परमेशानी है, मोहनी है, उसके लिए मेरा नमस्कार है ।।11।
जगदाधाररूपायै प्रकाशायै नमो नमः ।
ज्ञानिनां ज्ञानरूपायै प्रकाशायै नमो नमः ॥12॥
महामुनि मार्कण्डेय प्रकृति देवी को नमस्कार करते हुए कहते हैं कि हे संसार की आधार रूप तथा संसार में प्रकाश करने वाली, ज्ञानियों की ज्ञान रूप अर्थात् ज्ञानियों में ज्ञान का प्रकाश करने वाली देवी तुम्हें मेरा नमस्कार है ॥12॥
जगदाधाररूपायै प्रकाशायै नमो नमः ।
..…………….जगतां भागहेतवे ॥13 ॥
हे संसार की आधार रूप तथा प्रकाश रूप तुमको नमस्कार है ।।13।।
प्रपन्नोऽस्मि महामाये विश्वसृष्टिर्विधीयताम् ।
इति स्तुत्वा मुनिस्तत्र विरराम सुसंयतः ॥14॥
महामुनि ने प्रकृति से स्तुति करते हुए कहा कि हे महामाया प्रकृति देवी मैं प्रपन्न हूँ, आपकी शरण हूँ, अतः सृष्टि कीजिए। इस प्रकार स्तुति करके मुनि वहाँ अच्छी तरह संयमित होकर रुक गये। (स्थिर हो गये ) ।।14।।
कुताञ्जलिपुटो भूत्वा दण्डवत् प्रपपात च ।
तत उत्थाय देवस्य नाभिपद्मसमुद्भवम् ॥15॥
चतुर्वक्त्रं रक्तवर्णं ददर्श परमं शिशुम् ।
सृष्टौ नियोजयामास तं ब्रह्माणं सुरेश्वरम् ॥16 ॥
उसके बाद हाथ जोड़कर उन्होंने दण्डवत् किया और पैरों में गिर गये। उसके बाद उन देवों के ईश, नाभि से उत्पन्न कमल से पैदा होने वाले, चार मुख वाले, रक्तवर्ण वाले परम शिशु को देखा और फिर उन सुरेश्वर परमशिशु ब्रह्मा को सृष्टि की रचना करने में लगा दिया ।।15-16।।
ध्यात्वा ब्रह्म तदा तत्र सप्तर्षीन् परमेश्वरि ।
जनयामास मनसा मानसास्ते ह्यतः प्रिये ! ॥17॥
शंकर भगवान् ने कहा कि हे परमेश्वरि ! जब प्रकृति देवी, माया ने देवों के स्वामी ब्रह्मा को सृष्टि की रचना करने में लगा दिया, तब फिर उन ब्रह्मा ने ध्यान करके अपने मन से सात ऋषियों को उत्पन्न किया, उनके मन से उत्पन्न थे, इसलिए वे ब्रह्मा के मानस पुत्र कहे गये ।।17।।
विना शक्तिं शक्तास्ते सृष्टिं कर्तुं मुनीश्वराः ।
योनौ सृष्टिरतो ज्ञेया ततो योनिमकल्पयत् ॥ 18 ॥
परन्तु शक्ति के बिना वे सात ऋषि संसार की रचना करने में समर्थ नहीं हुए तब उन्होंने जाना कि योनि में ही सृष्टि करने की शक्ति है, तब उसके बाद उन्होंने योनि की कल्पना की ।।18।।
ततः कश्यपनामानं मुनिं पुनरजीजनत् ।
पुनः सृष्टौ च तं पुत्रं ब्रह्मा प्रोवाच यत्नतः ॥ 19 ॥
उसके बाद इस महामाया प्रकृति ने कश्यप नामक मुनि को उत्पन्न किया और फिर उन कश्यप मुनि को संसार की रचना (अर्थात्) जीवों की उत्पत्ति करने के लिए कहा कि यत्नपूर्वक जीवों को उत्पन्न करो ।।19।।
जनयामास ततः कन्यां गुणरूपसमन्विताम् ।
नियोज्य मुनये तां तु ब्रह्मा प्रोवाच सृष्टये ॥ 20 ॥
परन्तु जब कश्यप (रूप) नर को उत्पन्न कर दिया, परन्तु केवल नर से तो जीव की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अतः नर की उत्पत्ति के बाद गुणरूप से युक्त अर्थात् आकार वाली (कन्या) को उत्पन्न किया और फिर उस कन्या को मुनि कश्यप के साथ नियुक्त कर अर्थात् नर और मादा को मिलाकर सम्भोग द्वारा सृष्टि करने के लिए ब्रह्मा ने उन दोनों से कहा ॥ 20॥
नानायोन्या कृतीस्तासु समस्त जीवजातयः ।
उत्पादयामास तदा प्रजापतिरथ स्थितः ॥ 21 ॥
और फिर उन दोनों कश्यप मुनि और उस आदिकन्या दोनों से अनेकों प्रकार के जीवों की जातियों को पैदा किया, तब इसके बाद प्रजापति ब्रह्मा स्थित हो गये ॥21॥
विशेष :- उपर्युक्त 10 से 21 तक के श्लोकों में जो भी कहानी स्वरूप कहा गया है, वह सब विज्ञान सम्मत है। समस्त का भाव यही है कि सर्वप्रथम इस प्रकृति ने जिस जीव को उत्पन्न किया, उससे सृष्टि सम्भावित न होती देखकर योनि की कल्पना की अर्थात् योनि को पैदा किया और नर और मादा दोनों से ही संसार की रचना की तथा यह सब किया प्रकृति माया ने ही। अतः प्रकृति माया ही सर्वे सर्वा है तथा प्रकृति जहाँ है, वहाँ पर जीवोत्पत्ति है। जहाँ नहीं है, वहाँ पर जीव नहीं है तथा प्रकृति है जन-जीवन को सुरक्षित रखने का वातावरण तथा उसमें भी वह वातावरण जो कि जीव को जीवित रख सके तथा जीव को सुरक्षित रखने का वातावरण है- ऑक्सीजन गैस की सम्यक् मात्रा में उपस्थिति । ब्रह्मा आदि पुरुष ने मन से सात ऋषियों को उत्पन्न किया, जिसे मानसी सृष्टि कहा गया है। इस कथन में वैज्ञानिकता है अधिक स्पष्ट तो विज्ञान के छात्र ही कर सकते हैं; परन्तु मेरे विचार से सात ऋषि (प्रकृति के ही तत्त्व हैं) सम्भवतः सूर्य के सात रंग सात ऋषि हो सकते हैं। हो सकता है प्रलयकाल में प्रचण्ड रूप से तपते हुए सूर्यदेव में सात रंग नहीं रहे हों । ये प्रकृति देवी के बाद में पैदा किये हों, क्योंकि सूर्य के प्रकाश में विद्यमान ये सात रंग ही वनस्पतियों में रंग भरने का कार्य करते हैं। ब्रह्मा द्वारा कश्यप नामक ऋषि की उत्पत्ति भी वैज्ञानिक तथ्य की ओर संकेत करती है।
ततो नारायणो देवस्तुष्टो मायामुवाच सः ।
वटपत्रस्वरूपां त्वं यतो मां विधृताम्भसि ॥22॥
अतो धर्मस्वरूपासि जगत्यस्मिन् सनातनि।
आराधयिष्यन्ति भुवि मनुजास्त्वां सनातनीम् ॥23॥
प्रजापति ने जब अनेकों योनियों को उत्पन्न किया, तब सन्तुष्ट हुए नारायण भगवान विष्णु ने माया (प्रकृति) से कहा कि हे माया; क्योंकि वरगद के वृक्ष के पत्र स्वरूप तुमने जल में मुझे विशेष रूप से धारण किया है। विशेष रूप से स्थित किया है। इसलिए हे माया ! हे प्रकृति ! इस संसार में तुम सबसे प्राचीन हो और धर्म स्वरूप हो। अतः पृथ्वी पर सभी मनुष्य तुम्हारी आराधना करेंगे॥22-23॥
सर्वकामेश्वरो लोके मायां धर्मस्वरूपिणीम् ।
मन्त्रमाराधने चास्याः प्रवक्ष्यामि शृणु प्रिये ॥24॥
भगवान् शंकर ने पार्वती से कहा कि संसार में सब कामनाओं को चाहने वाले तुम माया प्रकृति की पूजा करेंगे तथा आराधना में जो मन्त्र है, उसे मैं बताऊंगा ध्यान पूर्वक सुनो ॥24॥
नादेन्दुसंयुतं दान्तं धर्माय हत् ततः परम् ।
षडक्षरो महामन्त्रो धर्मस्याराधने मत: ॥25॥
‘नाद‘ और ‘इन्दु‘ संयत ‘द‘ के अन्त तक उसके बाद धर्म के लिए हृत यह छः अक्षर वाला महामन्त्र है। जो धर्म की आराधना में स्वीकार किया गया है ॥25॥
विशेषः- यह छः अक्षर का जो महामन्त्र है, वह क्या है? यह स्पष्ट नहीं हो रहा है। वैसे यदि नाद अक्षरों को लें तो ‘द‘ तक छः अक्षर ध, ज, ब, ग, ड, द होते हैं; क्योंकि “हशः संवारा नादा घोषाश्च” सूत्र के अनुसार ह, य, व, र, ल, ञ, म, ङ, ण, न, झ, भ, घ, ढ, ध, ज, ब, ग, ड, द हैं। इनमें द के अन्त तक छ: ध, ज, ब, ग, ड, द होते हैं। अतः ध ज ब ग ड द ही छः अक्षर हैं। इन्दु का अर्थ चन्द्रबिन्दु हो सकता है। अतः धँ, जँ, बँ, गँ, डँ, दँ यह महामन्त्र ही होना चाहिये।
यं यं कामं समुद्दिश्य पूजयिष्यन्ति मानवाः।
अचिरादेव पश्यन्ति सर्वं कामं न संशयः ॥26॥
शंकर जी ने कहा कि हे प्रिये ! जिस जिस इच्छा को मन में रखकर मानव इन माया देवी (प्रकति) की आराधना करेंगे तो बहुत शीघ्र ही सभी इच्छाओं को पूरा हुआ देखेंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है॥26॥
एवं ते कथितं देवि मायासम्भवविस्तरम् ।
न कस्मैचित् प्रवक्तव्यं किमन्यत् श्रोतुमिच्छसि ॥27॥
शंकर जी ने कहा कि हे देवि ! इस प्रकार मैंने माया से होने वाले सृष्टि के विस्तार को तुम्हें बताया है, इसे यदि कोई सुनना चाहें तो किसी को मत कहियेगा ॥ 27॥
।। इति श्रीमायातन्त्रे प्रथमः पटलः ।।
।। इस प्रकार मायातन्त्र में प्रथम पटल समाप्त हुआ ।।