मुण्डमालातन्त्र पटल १० – Mundamala Tantra Patal 10
मुण्डमालातन्त्र (रसिक मोहन विरचित चतुर्थ पटल) पटल १० में दुर्गा शतनाम के विषय में कहा गया है।
मुण्डमालातन्त्रम् दशम: पटलः
मुंडमाला तंत्र पटल १०
मुण्डमालातन्त्रम् (रसिक मोहन विरचितम्) चतुर्थः पटलः
श्री देव्युवाच –
पृच्छाम्येकं महाभाग ! योगेन्द्र ! भक्त-वत्सल ! ।
पृच्छामि परमं तत्त्वं देवदेव! सदाशिव ! ॥1॥
श्री देवी ने कहा – हे महाभाग ! हे योगेन्द्र ! हे भक्त-वत्सल ! मेरी एक विषय में जिज्ञासा है । हे देवदेव ! हे सदा-शिव ! मैं परम तत्त्व की जिज्ञासा कर रही हूँ ।।1।।
श्री शिव उवाच –
कथयिष्ये जगद्धात्रि! दुर्गायाश्चरितं शृणु।
एका दुर्गा जगद्धात्रि एकोऽहं परमः शिवः ॥2॥
श्री शिव ने कहा – हे जगद्धात्रि ! मैं दुर्गा के चरित्र को बताऊँगा, आप श्रवण करें। जगद्धात्री दुर्गा एक हैं। परम शिव मैं भी एक हूँ ।।2।।
मदंशाश्चैव ये भूतास्ये शैवा नात्र संशयः ।
त्वदंशाश्चैव शाक्ताश्च सत्यं वै गिरिनन्दिनि ! ॥3॥
जो सभी भूतगण मेरे अंशभूत हैं, वे सभी शैव हैं । इसमें कोई संशय नहीं है । हे गिरिनन्दिनि ! जो समस्त भूतगण आपके अंश से सम्भूत हैं, वे सभी शाक्त हैं। यह अति सत्य है ।।3।।
बहुवर्ष-सहस्रान्ते शैवाः शक्ति-परायणाः ।
शाक्ताश्च शङ्करा देवि ! यस्य कस्य कुलोद्भवाः ॥4॥
शैवगण, जिस किसी भी वंश में क्यों न उत्पन्न हों, वे अनेक सहस्र वर्षों के अन्त में शक्ति-परायण बन जाते हैं । हे देवि ! शाक्तगण शङ्कर-स्वरूप हैं ।।4।।
चाण्डाला ब्राह्मणाः शूद्रा क्षत्रिया वैश्या-सम्भवाः ।
एते शाक्ता जगद्धात्रि! न मनुष्याः कदाचन ।
पश्यन्ति मानुषान् लोके केवलं चर्मचक्षुषा ।।5।।
हे जगद्धात्रि ! चण्डाल-वंश-सम्भूत या ब्राह्मण-वंश-सम्भूत या शूद्र-वंशसम्भूत या वैश्य-कुलोद्भुत होने पर भी जो लोग शक्ति-परायण होते हैं, वे सभी शाक्त हैं । ये कदापि मनुष्य नहीं हैं । लोक में केवल चर्मचक्षु के द्वारा इन्हें मनुष्य रूप में देखा जाता है ।। 5 ।।
श्रद्धयाऽश्रद्धाया वापि यः कश्चिद् मानवः स्मरेत् ।
दुर्गां दुर्गशतोत्तीर्णः स याति परमां गतिम् ॥6॥
जो कोई मनुष्य श्रद्धा से या अश्रद्धा से दुर्गा का स्मरण करता है, वह शत दुःखों से उत्तीर्ण होकर परम गति को प्राप्त होता है ।।6।।
यथेन्द्रश्च कुबेरश्च वरुणः साधको यथा ।
तथा च साधको लोके दुर्गाभक्ति-परायणः ॥7॥
इन्द्र, कुबेर या वरुण जिस प्रकार ‘साधक’ हैं, दुर्गा-भक्ति-परायण व्यक्ति भी इहलोक में उसी प्रकार ‘साधक’ हैं ।
अभक्त्यापि च भक्त्या वा यः स्मरेद् रुद्रगेहिनीम् ।
सुखं भक्त्वेह लोके तु स यास्यति शिवालयम् ॥8॥
जो व्यक्ति भक्ति के साथ अथवा अभक्ति के साथ रुद्रगृहिणी दुर्गा का स्मरण करता है, वह इहलोक में सुख का भोग कर, देहान्त होने पर शिवलोक में जाते हैं ।।8।।
इहैव स्वर्ग-नरकं मोक्षं वा गिरिनन्दिनि ! ।
इहलोके तु वासः स्यात् सर्वं शक्तिमयं जगत् ।
दुर्गायाः शतनामानि शृणु त्वं भवगेहिनि ! ॥9॥
हे गिरिनन्दिनि ! इस लोक में स्वर्ग है, नरक है, फिर मोक्ष भी है । इहलोक में वास हो, इसमें हानि नहीं है क्योंकि यह समस्त जगत् शक्तिमय है । हे भवगेहिनि ! दुर्गा के शतनाम का आप श्रवण करें ।।9।।
इससे आगे श्लोक10 – 24 में दुर्गाशतनामस्त्रोत्रम् दिया गया है,इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें- दुर्गाशतनामस्त्रोत्रम्
अज्ञात्वा स्तवराजन्तु दशविद्यां भजेद् यदि ।
तथापि नैव सिद्धिः स्यात् सत्यं सत्यं महेश्वरि ! ॥25॥
हे महेश्वरि ! इस स्तवराज को न जानकर, यदि कोई दशमहाविद्या की भजना करता है, फिर भी उसे सिद्धिलाभ नहीं होती है। यह सत्य, सत्य है ।।25।।
कामरूपे कामभागे कामिनी काममन्दिरे ।
कामिनी-वल्लभो भूत्वा विहरेत् क्षिति-मण्डले ॥26॥
कामरूप के कामदेश में कामिनी के काममन्दिर में इस शत-नाम का पाठ करके (साधक) कामिनीवल्लभ बनकर इस क्षितिमण्डल पर विचरण करता है ।।26 ।।
वामभागे तु रमणीं संस्थाप्य वरवर्णिनि !।
ताम्बूल-पूरित मुखः सर्वदा तारिणीं भजेत् ॥27॥
हे वरवर्णिनि ! मुख में ताम्बूल भरकर, अपने वामभाग में रमणी को बैठाकर सर्वदा तारिणी की भजना करें ।
महानिशाभाग-मध्ये वामे तु वामलोचनाम् ।
कृत्वा तु यो जपेन्मन्त्रं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।28।।
महानिशा के मध्यभाग में अपनी वाम दिशा में वामलोचना को बैठाकर, जो व्यक्ति उस तारिणी के सिद्धिप्रद मन्त्र का जप करता है, तारिणी उन समस्त जीवों के लिए सिद्धिप्रदा बन जाती हैं ।। 28 ।।
विलोक्य मुख-पद्मञ्च वामाया रमणी-मुखम् ।
प्रकरोत्यट्टहासञ्च ततो दुर्गा प्रसीदति ॥29॥
जो व्यक्ति तारिणी के मुखपद्म को एवं वामा रमणी के मुख को देखकर अट्टहास करता है, देवी दुर्गा (उसके) इस (कार्य) से प्रसन्न होती हैं ।।29 ।।
परं ब्रह्म परं धाम परमानन्द-कारकम् ।
नित्यानन्दं निर्विकारं निरीहं तारिणीपद्म ॥30॥
ध्यात्वा मोक्षमवाप्नोति सत्यं परम-सुन्दरि !।
यथा दुर्गा तथा वामा यथा वामा तथा शिवा ॥31॥
हे सुन्दरि ! परब्रह्म-रूप परमपद परमानन्दकारक नित्यानन्दमय निर्विकार निरीह (निश्चेष्ट) तारिणीपद का ध्यान कर (साधक) मोक्षलाभ करता है । यह सत्य है । जैसी दुर्गा हैं, वैसी ही स्त्री हैं । जैसी स्त्री हैं वैसी हैं शिवा अर्थात् वामा एवं शिवा में कोई भेद नहीं है ।।30-31।।
शिव-शक्तिमयो भूत्वा विहरेत् सर्वदा शुचिः।
विना काली-पदद्वन्द्वं कः शक्तो धरणीतले ॥32॥
सर्वदा शुचि एवं शिव-शक्तिमय बनकर विचरण करें । काली के पदयुगल को छोड़कर इस पृथिवीतल पर कौन (कुछ भी करने में) समर्थ हो सकता है ? ।। 32।।
शक्तिहीनः शवः साक्षाच्छक्तियुक्तः सदाशिवः ।
शक्तियुक्तो भवेद् विष्णुरथवा विष्णुरेव हि ॥33।।
शक्तिहीन हो जाने पर साक्षात् शिव शव बन जाते हैं और शक्तियुक्त होने पर ही सदाशिव बन जाते हैं । विष्णु शक्तियुक्त बन सकते हैं अथवा विष्णु ही शक्ति हैं ।।33।।
राजमार्ग शक्तिमार्ग जानीहि जगदम्बिके !।
अन्य-पूजा न कर्त्तव्या न स्तुतिर्न च भावनां ॥34॥
हे जगदम्बिके ! शक्तिमार्ग को राजमार्ग जानें । अन्य देवता की पूजा कर्त्तव्य नहीं है, अन्य की स्तुति कर्त्तव्य नहीं है, अन्य की भावना भी कर्त्तव्य नहीं है ।।34।।
न च ध्यानं योगसिद्धिर्नान्यमन्त्रं विचक्षणैः ।
केवलं कालिकापाद-पद्मं भव विघट्टनम् ॥35॥
विचक्षण व्यक्ति अन्य देवता के मन्त्र का जप न करें, न कि अन्य देवता का ध्यान करें । भवयन्त्रणा-विदीर्ण-कारक कालिका के पादपद्म का (साधक) ध्यान करें । वैसा करने पर ही योग-सिद्धि प्राप्त होती है ।।35।।
नान्यो देवो न वा तीर्थं न ध्यानं न च जल्पना ।
न तीर्थ-भ्रमणं चण्डि ! न वा च योग-धारणा ॥36।।
अन्य-देवता नहीं, अन्य-तीर्थ नहीं; अन्य देवता का ध्यान- (वस्तुतः) ध्यान नहीं, अन्य देवता की स्तुति – (वस्तुतः) स्तुति नहीं है । हे चण्डि ! अन्य देवता के तीर्थ का भ्रमण न करें, अन्य योग एवं अन्य की धारणा भी न करें ।।36।।
स्तुतिर्दुर्गा नीतिर्दुर्गा स्मृतिर्दुर्गा सदाशिवः ।
क्षुधा निद्रा दया भ्रान्तिः क्षन्तिर्दुर्गा मतिर्गतिः ॥37॥
दुर्गा ही स्तुति है, दुर्गा ही नति है, दुर्गा ही स्मृति एवं सदा-शिव हैं । दुर्गा क्षुधा हैं, दुर्गा निद्रा हैं, दुर्गा दया हैं, दुर्गा भ्रान्ति हैं, दुर्गा क्षन्ति हैं, दुर्गा मति हैं एवं दुर्गा ही गति हैं ।।37 ।।
शक्तिः शिवः शिवः शक्तिः शक्तिब्रह्मा जनार्दनः।
शक्तिः सूर्यश्च चन्द्रश्च कुबेरो वरुणश्च यः ॥38॥
शक्ति शिव है, शिव शक्ति है, शक्ति ब्रह्मा है । शक्ति जनार्दन है। ये जो सूर्य, चन्द्र, कुबेर एवं वरुण हैं – ये सभी शक्ति हैं ।।
शक्तिरूपं जगत् सर्वं यो न वेत्ति स पातकी ।
एवं शक्तिमयं विश्वं यो वेद धरणीतले ॥39॥
स वेद धरणीमध्ये कालिकां जगदम्बिकाम् ।
स एव सर्वशास्त्रेषु कोविदः सर्ववल्लभः ॥40॥
यह समस्त जगत् शक्तिरूप है – इसे जो नहीं जानता है, वह पातकी है । इस धरणीतल पर, जो इस विश्व को शक्तिमय-रूप में जानता है, वह इस पृथिवीतल पर, जगदम्बिका कालिका को भी जानता है। वह ही समस्त शास्त्रों में पण्डित है एवं वही सभी का प्रभु बन सकता है ।।39-40।।
श्मशान-सिद्धिं लभते नात्र कार्या विचारणा ।
शून्यागारं श्मशानं वा शून्यं परमकोविदः ।
यो वा गच्छति तत्रैव स विश्वेशो भवेद् ध्रुवम् ॥41।।
जो (साधक) श्मशान-सिद्धि का लाभ करता है, वह इस विषय में कोई विचार न करें । जो श्रेष्ठ पण्डित शून्यागार में, श्मशान में या शून्य (निर्जन) स्थान में किसी प्रकार की श्रेष्ठ भजना (साधना) के लिए गमन करता है, वह निश्चय ही विश्वेश्वर बन जाता है ।।41।।
निशाभागे चतुर्दश्याममायां हरवल्लभे ! ।
जपेदयुतसंख्यञ्च स सिद्धः सर्वकर्मसु ॥42॥
हे हरवल्लभे ! चतुर्दशी के निशाभाग में या अमावस्या के निशाभाग में जो दस हजार मन्त्र-जप करता है, वह समस्त कर्मों में सिद्ध बन जाता है ।।42।।
स योगीन्द्रः स भावज्ञः स धीरः सर्वकर्मसु ।
नित्यानन्दः स विज्ञेयः सर्वकार्य-विशारदः ॥43॥
वह योगीन्द्र है, वह भावज्ञ है, वह समस्त कर्मों में धीर (पण्डित) होता है। उसे सर्वकार्य-विशारद एवं नित्यानन्द जानें ।।
प्रभातेऽश्वत्थ-मूले च गत्वा परम-कोविदः ।
पूजयेत् परया भक्त्या समिषैर्लोहितैरपि ॥44॥
श्रेष्ठ पण्डित, प्रभातवेला में अश्वत्थ के मूल में गमन कर, समिष रक्त के द्वारा परम भक्ति के साथ पूजा करें ।
बिल्वैर्बिल्वदलैापि बिल्वपुर्घर्वरानने !।
जपेल्लक्षं चतुर्दश्यामारभ्य वरवर्णिनि ! ॥45॥
अथवा हे वरानने ! हे वरवर्णिनि ! बिल्वपुष्प, बिल्वदल अथवा बिल्वफल के द्वारा पूजा करके, चतुर्दशी से आरम्भ कर एक लाख मन्त्र-जप करें ।।45।।
पञ्चमेन यजेद्देवीं बिल्वमूले दिवानिशम् ।
तदा वासिद्धिमाप्नोति क्षुद्रो वाचस्थतिर्भवेत् ।।46।।
जो दिवारात्रि बिल्व के मूल पर, पञ्चम के द्वारा देवी की पूजा करता है, वह वाक्सिद्धि का लाभ करता है । क्षुद्र होने पर भी वह वाचस्पति बन सकता है ।।46।।
आसनं – द्वादशविधं सङ्केतासनमुक्तमम् ।
भद्रासनं तथा पद्मासनं सिद्धासनं तथा ॥47॥
सिद्धसिद्धासनं देव्यासनञ्च कुक्कुटासनम् ।
वीरासनं परं भद्रे! चासनं वरदासनम् ।।48॥
हे देवि ! हे भद्रे ! आसन बारह प्रकार के हैं। उनमें सङ्केतासन उत्तम है । भद्रासन, पद्मासन, सिद्धासन, सिद्धसिद्धासन, देव्यासन, कुक्कुटासन, वीरासन, वरदासन, श्रेष्ठ सिंहासन आते हैं । हे देवि ! श्मशानासन उत्तम है ।।47-48।।
सिंहासनं परं देवि! श्मशानासन मुक्तमम् ।
शवासनं वरारोहे ! देवानामपि दुर्लभम् ।
यदाश्रयेत् परं ब्रह्मासनं परमभूषितम् ।।49॥
वामभागे स्त्रियं स्थाप्य धूपामोद-सुगन्धिभिः ।
ताम्बूल-चर्वणाद्यैश्च पूजयेद् भवगेहिनीम् ।।50॥
हे वरारोहे ! शवासन देवताओं के लिए भी दुर्लभ है । जो परम-गुण-भूषित श्रेष्ठ ब्रह्मासन को आश्रय करता है एवं जो वामभाग में स्त्री को स्थापित कर धूप के सुगन्ध एवं सुगन्धि पुष्पों के द्वारा ताम्बूल चर्वण करते हुए भवगृहिणी की पूजा करता है ।।49-50।।
भवानी तारिणीं विद्यां ब्रह्मविद्यां मनोहराम् ।
स्त्रुत्वा मोक्षमवाप्नोति तत्क्षणादेव शङ्करि ! ॥51॥
हे शङ्करि ! वह मनोहरा ब्रह्माविद्यारूपा तारिणीविद्या भवानी का स्तव करके – तत्क्षण मोक्षलाभ कर लेता है ।
विश्वमातर्जयाधारे ! विश्वेश्वरि ! नमोऽस्तु ते ।
करालवदने! घोरे ! चन्द्रशेखर-वल्लभे ! ॥52॥
मां तारय महाभागे ! देहि सिद्धिमनुत्तमाम् ।
काम-कल्पलता-रूपे ! कामेश्वरि ! कलामते !।
कामरूपे ! च विजये ! निस्तारे ! शववाहिनि ! ॥53॥
हे विश्वमातः ! हे जयाधारे ! हे विश्वेश्वरि ! आपको नमस्कार । हे करालवदने ! हे घोरे ! हे चन्द्रशेखर-वल्लभे ! हे महाभागे ! मुझे संसार-सागर से उत्तीर्ण करें! हे काम-कल्पलता-रूपे! हे कामेश्वरि! हे कलामते ! हे कामरूपे ! हे विजये ! हे निस्तारे ! हे शववाहिनि ! मुझे श्रेष्ठ सिद्धि प्रदान करें ।।52-53 ।।
गृहीत्वा शवचण्डालं धृत्वा भालं मुखं शिरः।
नासां की च हृत्पद्मं नाभिं लिङ्गं गुदन्तथा ॥54॥
बाहू पृष्ठञ्च जठरं धृत्वा धृत्वा मुहुर्मुहुः ।।
आदौ मायां पुनर्मायां पुनर्मायां नियोजयेत् ।।55॥
चण्डाल के शव को ग्रहण कर, ललाट, मुख, मस्तक को धारणकर, नासा, दो कर्ण, हृत्पद्म, नाभि, लिङ्ग, गुद (गुह्यदेश), बाहुद्वय, पृष्ठ, जठर को बार-बार धारण कर, पहले माया (ह्रीं), पुनः माया, पुनः माया का उच्चारण करें ।।54-55।।
वधूबीजं तथा लज्जां सर्वाङ्गे निःक्षिपेन्मनुम् ।
अष्टोत्तर-मनुं जप्त्वा कृत्वा च शव-बन्धनम् ।।56।।
सर्वाङ्ग में वधूबीज (स्त्रीं) और लज्जा (ह्रीं) मन्त्र का भी निक्षेप (जप) करें। उसके बाद एक सौ आठ बार मन्त्र-जप कर, शव का बन्धन करें ।।56
पुनर्विहारं-बीजेन नील-द्रव्येण चक्षुषी ।
सत्त्वेन रजसा देवि ! तमसा नगनन्दिनि ! ।
हरबीजेन संमाज्जर्य स सिद्धेश्वरतामियात् ।।57॥
हे देवि ! हे नगनन्दिनि ! सत्त्व, रजः, तमोगुण मय विहार बीज में नील द्रव्य के द्वारा शव के चक्षुः का बन्धन करें। हरबीज के द्वारा मार्जना करने पर (साधक) सिद्धेश्वरत्व का लाभ करता है ।। 57 ।।
वायुस्तम्भं जलस्तम्भं वह्निस्तम्भं नगात्मजे ।
तत्क्षणादेव देवेशि ! जायते नात्र संशयः ।।58॥
हे नगात्मजे ! हे देवेशि ! तत्क्षण वायुस्तम्भ, जलस्तम्भ एवं वह्निस्तम्भ उत्पन्न होता है । इसमें कोई संशय नहीं है ।।58
शून्यागारे महेशानि ! भजेद् धनद-दिङ्मुखः ।
शङ्खमाला गृहीतव्या स्फाटिकी वाथ राजती ॥59॥
हे महेशानि ! शून्यागार में उत्तर दिशा की ओर मुख करके भजना करें । शङ्खमाला, स्फटिकमाला अथवा राजतीमाला को ग्रहण करें ।।59 ।।
चामीकर-मयी माला प्रवाल-घटिताऽथवा ।
मूर्द्ध्णि देशे कुल्लुकाञ्च जप्त्वा शतमनुत्तमम् ॥60॥
अथवा स्वर्णमयी माला या प्रवाल की माला को ग्रहण कर, मस्तक में कुल्लुका का जप कर, साधक एक सौ श्रेष्ठ मन्त्र का जप करें। तब वह महेश बन जावेगा। इसमें कोई संशय नहीं है। जो कुलीन एवं कुलज्ञ साधक तारिणीतन्त्र का जप करता है, वह शाक्त है, शिवभक्त है । वह भैरव एवं सदाशिव है ।।60।।
तदा मन्त्रं जपेन्मन्त्री महेशो नात्र संशयः ।
स शाक्तः शिवभक्तश्च भैरवश्च सदाशिवः ।
कुलीनश्च कुलज्ञश्च योजपेत् तारिणी-मनुम् ॥61॥
हृत्पद्मगां जगद्धात्रीं मूर्णि संस्थां सुरेश्वरीम् ।
भुजङ्गिनी जागरिणीं भुजगादि-विभूषिताम् ॥62॥
नारदाद्यैः साधकेन्द्रैः सेवितां सिद्ध-सेविताम् ।
अश्वत्थे विल्वमूले वा स्वजाया-मन्दिरेऽथवा ॥63।
जो कुलीन एवं कुलज्ञ साधक तारिणी मन्त्र का जप करता है, वह महेश बन जाता है । अश्वत्य के मूल में अथवा बिल्व के मूल में अथवा अपनी स्त्री के गृह में, हृत्पद्मस्थ जगद्धात्री का, मस्तकस्थ सुरेश्वरी का, सर्पादि-विभूषिता जागरिणी भुजङ्गिनी का अथवा सिद्ध-सेवित नारदादि साधकेन्द्रों के द्वारा पूजित परदेवता देवी का या कामिनी का ध्यान करें ।।61-63।।
देवीं वा कामिनीं वापि ध्यायेत् परम-देवताम् ।
आद्यां ज्योतिर्मयीं विद्यामभयां वरदां शिवाम् ।।64॥
प्रणमेत् स्त्रुतिभिश्चण्डी सर्वदोष-निकृन्तनीम् ।
श्मशान-स्थः शवस्थो वा प्रपठेत् कवचोत्तमम् ।।65।।
अभया वरदा शिवा सर्वदोष-निकृन्तनी (छेदिनी) आद्या ज्योतिर्मयी विद्यारूपिणी चण्डी को स्तुति के साथ प्रणाम करें। श्मशानस्थ अथवा शवस्थ होकर उत्तम कवच का पाठ करें ।।64-65 ।।
तदा श्मशाने देवेशि ! शवे वा वरवर्णिनि ! ।
सिद्धिर्भविष्यति तदा परपेक्षा न भैरवाः ।।66।।
हे देवेशि ! हे वरवर्णिनि ! जब श्मशान में या शव में स्तवकवचादि का पाठ करेंगे, तब सिद्धिलाभ हो जावेगा। तब भैरवगण भी शत्रुपक्ष-वाले नहीं रहते ।।66।।
उन्मक्तः क्रोधनश्चण्डो भैरवो वटुकात्मकः ।
संहारो भीषणश्चैव तथा च कालभैरवः ॥67॥
महाकालभैरवश्च एते वै वसुसंख्यकाः ।
दृष्ट्वा श्मशानं देवेशि! शवसाधनमेव च ॥68॥
नृत्यन्ति भैरवाः सर्वे गर्जन्ति रक्तलोचनाः ।
अद्य मत्सदृशो वापि अद्यैव वातुलोऽपि वा ॥69॥
उन्मत्त भैरव, क्रोध भैरव, चण्ड भैरव, वटुक-भैरव, संहार-भैरव, भीषणभैरव, काल-भैरव, महाकाल-भैरव – ये आठ भैरव कहे जाते हैं।
हे देवेशि ! रक्तलोचन समस्त भैरवगण श्मशान एवं शव-साधन को देखकर नृत्य करते हैं, गर्जन करते हैं । अद्य मेरे सदृश अथवा अद्य वातुल भी नृत्य करने लगते हैं ।।67-69।।
शव-शमशानयोर्मध्ये न जानामि कथञ्चन ।
मा भैषीभैरवाः सर्वे वदिष्यन्ति च बन्धनात् ॥70॥
शव एवं श्मशान के मध्य में किसी प्रकार की कुछ भी नहीं जानता हूँ। सभी भैरव कहते हैं – संसार बन्धन से डरो मत ।
सिंह-व्याघ्र-वराहाद्याः के वा गर्जन्ति सर्वतः ।
मा भैषीश्चैव मा भैषी मा भैषीश्चैव च साधक !।
यो वा वदिष्यति पुरः स गुरुस्तत्त्वकोविदः ।।71॥
सिंह, व्याघ्र, वराह प्रभृति कौन-कौन हैं, जो सभी ओर गर्जन कर रहे हैं । हे साधक ! तुम डरो मत, डरो मत, डरो मत । जो साधक को साक्षात्-रूप में ऐसा कहते हैं, वही गुरु हैं, वह भी तत्त्ववित् हैं ।।71 ।।
विना तन्त्रपरिज्ञानात् विना गुरुनिषेवणात् ।
प्राणायामाद् विना ध्यानाद् विना मन्त्र विचालनात् ।।72।।
विना ज्ञानाद् विना न्यासाद् विना शवविवन्धनात् ।
विना योगाद् विनाऽरोगाद् विना कारणकारणात् ॥73॥
विना शक्त्या विना भक्त्या विना युक्ति-विवन्धनात् ।
विना रोगाद् विना भोगाद् विना कुसुमसञ्चयात् ।।74॥
विना भावाद् विना लाभाद् विना सत्सङ्गसेवनात् ।
विना जापद विना तापाद् विनापि काममन्दिरात् ।
न हि सिद्धयति देवेशि ! प्रत्यक्षं हरवल्लभा ॥75॥
हे देवेशि ! तन्त्र के परिज्ञान के बिना, गुरु की सेवा के बिना, प्राणायाम के बिना, ध्यान के बिना, मन्त्र के विचालन के बिना, ज्ञान के बिना, न्यास के बिना, शवबन्धन के बिना, योग के बिना, अरोग के बिना, कारण के कारण के बिना, शक्ति के बिना, भक्ति के बिना, युक्ति-प्रयोग के बिना, रोग के बिना, भोग के बिना, पुष्पचयन के बिना, भाव के बिना, लाभ के बिना, सत्सङ्ग की सेवा के बिना, जप के बिना, ताप के बिना, काममन्दिर के बिना, हरवल्लभादेवी प्रत्यक्ष-रूप में सिद्ध नहीं होती हैं ।।72-75।।
यदि भाग्यवशाद देवि! प्रत्यक्षं हरवल्लभा ।
तदैव जायते सिद्धिर्महाविद्या प्रसीदति ॥76॥
यदि भाग्यवश हरवल्लभादेवी प्रत्यक्ष हो जाती हैं, तब तभी सिद्धि उत्पन्न होती है। महादेवी प्रसन्ना होती हैं ।।76।।
इति मुण्डमालातन्त्र पार्वतीश्वर संवादे चतुर्थः पटलः ॥4॥
मुण्डमालातन्त्र के हरपार्वती के संवाद में चतुर्थ पटल का अनुवाद समाप्त ॥4॥
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