Noor Inayat Khan Autobiography | नूर इनायत ख़ान का जीवन परिचय : द्वितीय विश्व युद्ध की ‘स्पाई प्रिसेंस’
इतिहास ऐसी महिलाओं के हौसले से भरा हुआ है जिन्होंने असाधारण काम कर अपना नाम इतिहास के सुनहरे अक्षरों में अंकित करवाया। आज का हमारा लेख ऐसी ही एक महिला के बारे में है जिन्हें हाल फिलहाल में एक ऐतिहासिक सम्मान से नवाज़ा गया है। नूर इनायत खान अभी कुछ दिनों पहले तब चर्चा में आई, जब उन्हें ब्रिटेन में एक ऐतिहासिक सम्मान दिया गया। आपको बता दें कि नूर इनायत लंदन में ब्लू प्लाक स्मारक से सम्मानित होने वाली भारतीय मूल की पहली महिला हैं।
पेशे से जासूस नूर इनायत का जन्म साल 1914 में मॉस्को में भारतीय मूल के पिता हज़रत इनायत खान और अमेरिकी मां ओरा रे बेकर के घर हुआ था। नूर इनायत खान के माता-पिता की शादी अमेरिका के रामकृष्ण आश्रम में हुई थी जिसके बाद उनकी मां ने शारदा अमीना खान का नाम अपनाया था। वह 18वीं शताब्दी में मैसूर के राजा रहे टीपू सुल्तान की वंशज थी क्योंकि नूर के पिता हज़रत इनायत खान मैसूर के राजा टीपू सुलतान के परपोते थे। खान परिवार पहले रूस, फिर ब्रिटेन और फ्रांस आ गए। नूर पेरिस के एक उपनगरीय इलाके में ‘फज़ल मंज़िल’ नामक एक प्रेम घर में पली बढ़ी। जहां आज भी फ़्रांसिसी उन्हें सम्मान देने के लिए एक सैन्य बैंड बैस्टिल डे पर उस घर के बाहर बजाते हैं।
आखिरी वक्त में भी जब जर्मन सैनिकों ने नूर पर वार करने के लिए अपने हथियार उठाए तो नूर का आखिरी शब्द था ‘आजादी’।
नूर एक प्रतिभाशाली लड़की थी, उन्होंने पेरिस कंज़र्वेटरी एंड चाइल्ड साइकोलॉजी में संगीत का अध्ययन किया। वह काफी अच्छी फ्रेंच भी बोल लेती थीं। जिस वक्त दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ, नूर सिर्फ 25 साल की थीं और इसी 25 साल की उम्र में उन्होंने ‘TWENTY JATAKA TALES’ नामक किताब लिखी जो बुद्ध के पूर्व जीवन से जुड़ी है। नूर अपने भाई बहनों में सबसे बड़ी थी। 1927 में अपनी भारत यात्रा के दौरान उन्होंने अपने पिता हज़रत इनायत खान को खो दिया जिसके बाद घर में सबसे बड़े होने की नाते उन्हें जिम्मेदारी संभालना अच्छे से आ गया। उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में ऐसा भी कहा जाता है कि नूर का किसी यहूदी मूल के पियानोवादक से संबंध था और बाद में किसी ब्रिटिश अधिकार के साथ उनके संबंधों की चर्चा की गई।
नूर ने 25 साल की उम्र में वायरलेस ऑपरेटर के रूप में प्रशिक्षण के लिए ब्रिटेन की रॉयल एयर फोर्स की ही एक शाखा वुमेंस ऑक्सीलियरी एयर फोर्स को ज्वाइन कर लिया। यहाँ उन्हें एक कोडनेम ‘मेडलिन’ दिया गया और विंस्टन चर्चिल के स्पेशल ऑपरेशन एक्जीक्यूटिव द्वारा पेरिस भेजी जानी वाली वह पहली रेडियो ऑपरेटर बनीं जिन्हें नाजी द्वारा कब्ज़ा किये गए फ्रांस में भेजा गया था। फ्रांस जाकर उन्होंने बड़ी ही तेजतर्रार महिला के तौर पर काम किया वह पकड़े गए वायुसेना कर्मियों को ब्रिटेन भागने में मदद किया करती थीं। लंदन तक सारी खुफिया जानकारियां पहुंचाती थीं।
इस दौरान उन्हें फ्रांस में जासूसी करने में उन्हें कई खतरों का सामना करना पड़ा लेकिन नूर ने हार नहीं मानी। यहां तक कि जब एसओई सदस्यों को नाजी पुलिस धड़ाधड़ गिरफ्तार कर रही थी, तब भी वह लंदन संदेश भेजती रही क्योंकि नूर अपनी समझदारी और कौशल से हर बार बच निकली। पैरिस के एजेंट्स और लंदन के बीच वह अकेली कड़ी थी जो सभी जानकारी पहुंचाया करती थी।
आखिरकार 13 अक्टूबर, 1943 को फ्रांस की एक महिला के धोखा देने के चलते उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें कई यातनाएं भी दी गईं लेकिन उन्होंने अपने सीक्रेट मिशन से जुड़ी कोई जानकारी नाजियों को साझा नहीं की। उन्होंने भागने की कोशिश की लेकिन पकड़े जाने पर उन्हें ‘बेहद खतरनाक’ बताकर एक काल-कोठरी में डाल दिया गया और अंततः साल 1944 में उन्हें दखाऊ कंसन्ट्रेशन कैंप में भेज दिया गया। 13 सितंबर की सुबह उन्हें सिर के पीछे गोली मार दी गई। आखिरी वक्त में भी जब जर्मन सैनिकों ने नूर पर वार करने के लिए अपने हथियार उठाए तो नूर का आखिरी शब्द था ‘आजादी’।
नूर की मां अमीना बेगम की 101 कविताओं का संग्रह तैयार था, लेकिन दूसरे विश्व युद्ध के दौरान उस संग्रह की कुछ कविताएं खो गई थीं जो कि बाद में सिर्फ 54 ही बच सकीं। शायद उन्हीं में से एक कविता ‘नूर’ भी थी। ब्रिटेन में वह 1946 तक गुमनाम रहीं लेकिन 1946 में पूर्व गेस्टपो ऑफिसर क्रिस्चियन ऑट से पूछताछ के बाद उनकी कहानी दुनिया के सामने आ ही गई। नूर की कहानी पत्रकार शरबानी बसु ने 2008 में किताब स्पाई प्रिंसेस के तौर पर छापी। शरबानी बसु ने ही ब्रिटिश करंसी पर नूर का चेहरा छापे जाने का अभियान चलवाया था। उनके इस समर्पण के लिए 1949 में उन्हें ब्रिटेन के दूसरे सबसे बड़े सम्मान जॉर्ज क्रॉस से सम्मानित किया गया।