P K Rosy Autobiography | पीके रोज़ी का जीवन परिचय : वह दलित अभिनेत्री जिसे फिल्मों में काम करने की वजह से अपनी पहचान छिपानी पड़ी

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पीके रोज़ी मलयालम सिनेमा की पहली अभिनेत्री थीं। जिस पीके रोज़ी की प्रतिभा और हुनर को सराहना चाहिए था और बढ़ावा दिया जाना चाहिए था अफ़सोस कि इस पितृसत्तात्मक समाज द्वारा उसकी प्रतिभा को ना सिर्फ कुचला गया बल्कि उसे अपना अस्तित्व तक छुपाने के लिए मजबूर किया गया। पीके रोज़ी का जन्म साल 1903 में त्रिवेंद्रम के नंदांकोडे गांव में हुआ था। इनके माता-पिता पुलिया जाति से थे और उन्होंने इनका नाम राजमम्मा रखा था। दलित जाति से होने के साथ-साथ रोज़ी का परिवार आर्थिक रूप से भी कमजोर था। पिता की मृत्यु कम उम्र में हो जाने की वजह से इनके घर की आर्थिक स्थिति और भी कमजोर हो गई थी। हालांकि इनके मन में कला के लिए हमेशा से एक विशिष्ट स्थान था। इसलिए बहुत कम उम्र में ही इन्होंने अभिनय और Kakkirasi (एक लोक नृत्य-नाटक) सीख लिया था।

पीके रोज़ी ने साल 1928 में मलयालम की पहली फीचर फिल्म वीगतथकुमारन (द लॉस्ट चाइल्ड) में अभिनय किया था। इस फिल्म का निर्देशन जेसी डेनियल ने किया था। इस फिल्म में दलित महिला पीके रोज़ी ने सरोजिनी नामक एक ऊंची जाति की नायर महिला का रोल अदा किया था। एक तो महिला ऊपर से दलित समुदाय की, और इन्होंने इस महिला ने पितृसत्ता समाज में अपना अस्तित्व ढूंढने की हिम्मत दिखाई थी तो समाज को इनका साहस तो चुभना‌ ही था। लोगों ने इनके फिल्म का बहिष्कार करना शुरू कर दिया था। लोगों ने तो यह शर्त रख दी थी कि अगर वह कहीं भी फिल्म के विज्ञापन समारोह में नजर आएंगी तो वह इस फिल्म का बहिष्कार कर देंगे। वैसे भी हमारा यह समाज किसी का हौस़ला अफजा़ई में कम और हौसला तोड़ने में ज्यादा विश्वास रखता है।

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7 नवंबर 1928 को कैपिटल थिएटर में जब पीके रोज़ी इस फिल्म की स्क्रीनिंग की गई तब उच्च-जाति के पुरुषों ने इस फिल्म के प्रति खूब प्रदर्शन किया। मलयालम फिल्म जगत के ऊंचे लोगों ने तो इस फिल्म को देखने से ही इनकार दिया। उन्होंने यह शर्त रख दी कि यदि पीके रोज़ी दर्शकों के बीच बैठेंगी तो वे फिल्म की स्क्रीनिंग नहीं देखेंगे। नायर जाति के पुरुषों ने रोज़ी के रोल को व्यक्तिगत अपमान के रूप में ले लिया था और उन्हें अपनी जाति का इतना अभिमान था कि उन्होंने स्क्रीनिंग के दौरान ही तोड़-फोड़ मचा दी। दर्शकों को सिर्फ इस बात से ही परेशानी नहीं थी कि एक दलित महिला ने पर्दे पर एक उच्च-जाति की महिला का रोल अदा किया है बल्कि इस बात से भी परेशानी थी कि एक औरत कैसे सरेआम पर्दे पर सबके सामने किसी गैर-मर्द के साथ रोमांटिक दृश्य कर सकती है। उनकी इस फिल्म का इस हद तक विरोध हुआ था कि उनके घर तक को जला दिया गया। आखिरकार परेशान होकर पीके रोज़ी को केरल छोड़ना पड़ा।

7 नवंबर 1928 को कैपिटल थिएटर में जब पीके रोज़ी इस फिल्म की स्क्रीनिंग की गई तब उच्च-जाति के पुरुषों ने इस फिल्म के प्रति खूब प्रदर्शन किया। मलयालम फिल्म जगत के ऊंचे लोगों ने तो इस फिल्म को देखने से ही इनकार दिया।

ऐसा कहा जाता है एक लॉरी ड्राइवर की मदद से वह अपने गांव से भागकर तमिलनाडु आ गई थीं और बाद में इन्होंने उसी ड्राइवर से शादी कर ली थी। उनके पति का परिवार नायर जाति से था। इसलिए उन्हें अपनी पहचान को छिपाने के लिए कहा गया। इस दौरान उन्होंने अपना नाम राजम्मा रखा। बाद में जब वह लोक थिएटर में काम करने लगी तब उन्होंने अपना नाम राजा़म्मा से रोज़म्मा मे तब्दील कर दिया। कुछ लोग कहते हैं कि बाद में उन्होंने खेती करके अपना जीवन बिताया। इनके दो बच्चे थे; पदमा और नागप्पन, जिन्हें इनके फिल्म में काम करने के बारे में कुछ पता नहीं था। वह वापस सिनेमा जगत में फिर नहीं आ सकी। हालांकि जेसी डेनियल को भी रोज़ी को लेकर फिल्म बनाने के लिए लोगों के कड़े आक्रोश का सामना करना पड़ा। इस एक फिल्म के कारण उन्हें भी ताउम्र अपनी जिंदगी गरीबी में बितानी पड़ी।

लेकिन अफसोस की बात है कि पीके रोज़ी को प्रसिद्धि उनकी मौत के बाद मिली। जब साल 1988 में लेखक वीनू अब्राहम ने जेसी डेनियल और मलयालम सिनेमा जगत की पहली अभिनेत्री पीके रोज़ी के बारे में एक उपन्यास लिखा लेकिन इतनी संघर्षशील और सहनशील महिला को मुख्यधारा मीडिया में कभी जगह नहीं मिल पाई। बाद में वर्ष 2013 में, कमल द्वारा इसी उपन्यास पर एक ‘सेलूल्यॉड’ नामक फिल्म बनाई गई, जिससे ज्यादा लोगों को पीके रोज़ी के योगदान और उनके संघर्षों के बारे में पता चला।

वर्ष 2019 में ‘विमेन इन सिनेमा कलेक्टिव’ ने भी मलयालम फिल्मों की पहली अदाकारा पीके रोज़ी के नाम पर एक फिल्म सोसाइटी की शुरुआत की। विमेन इन सिनेमा कलेक्टिव एक ऐसा समुदाय है जिसमें सिर्फ महिला फिल्म-निर्माता, अभिनेत्री और तकनीशियन शामिल हैं। ये महिलाएं फिल्म संस्कृति को एक नया आयाम देती हैं। पीके रोज़ी फिल्म समाज के द्वारा इन महिलाओं ने एक प्रयास किया है कि जिस फिल्मी दुनिया में सिर्फ पुरुषों की जगह मानी जाती है उसी समाज में महिलाओं की मेहनत को भी बढ़ावा दिया जाए। इस समुदाय का उद्देश्य है कि इस फिल्म समाज ने जिन्हें भी उनकी लिंग, जाति, धर्म के आधार पर अनदेखा किया है उनके प्रति संवेदनशीलता पेश की जाए ताकि आने वाले समय में फिल्म जगत में पीके रोज़ी जैसे कोई और अपने अस्तित्व को मोहताज ना हो। उसे उसकी मेहनत के अनुसार नाम और शोहरत मिल पाए।

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