क्यों प्रभु क्यों? – राजीव कृष्ण सक्सेना

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मन मेरा क्यों अनमन
कैसा यह परिवर्तन
क्यों प्रभु क्यों?

डोर में, पतंगों में
प्रकृति रूप रंगों में
कथा में, प्रसंगों में
कविता के छंदों में
झूम–झूम जाता था,
अब क्यों वह बात नही
क्यों प्रभु क्यों?

सागर तट रेतों में
सरसों के खेतों में
स्तब्ध निशा तारों के
गुपचुप संकेतों में
घंटों खो जाता था
अब क्यों वह बात नही,
क्यों प्रभु क्यों?

रैनों की घातों में
प्रियतम की बातों में
अश्रुपूर्ण पलकों की
अंतिम सौगातों में
रोता हर्षाता था
अब क्यों वह बात नही
क्यों प्रभु क्यों?

साधु में, संतों में
मठों में, महंतों में
नतमस्तक पूजा में
मंदिर के घंटों में
जमता रम जाता था
अब क्यों वह बात नही,
क्यों प्रभु क्यों?

चिंतन की शामों में
बौद्धिक व्यायामों में
दर्शन के उलझे कुछ
अद्भुद आयामों में
झूलता–झुलाता था
अब क्यों वह बात नही
क्यों प्रभु क्यों?

मेझ में, फुहारों में
फूल में, बहारों में
मौसम के संग आते
जाते त्यौहारों में
मस्त मगन गाता था
अब क्यों वह बात नही,
क्यों प्रभु क्यों?

जग का यह रंगमंच
वेश नया धरता हूँ
त्याग पुरातन, लेकर
राह नई चलता हूँ
अंतर–संगीत नया
गीत नया गाता हूँ
बाध्य नही परिवर्तन
फिर भी अपनाता हूँ,
क्यों प्रभु क्यों?

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