परशुराम की प्रतीक्षा – रामधारी सिंह दिनकर
परशुराम की प्रतीक्षा (शक्ति और कर्तव्य)
वीरता जहां पर नहीं‚ पुण्य का क्षय है‚
वीरता जहां पर नहीं‚ स्वार्थ की जय है।
तलवार पुण्य की सखी‚ धर्मपालक है‚
लालच पर अंकुश कठिन‚ लोभ–सालक है।
असि छोड़‚ भीरु बन जहां धर्म सोता है‚
पातक प्रचंडतम वहीं प्रगट होता है।
तलवारें सोतीं जहां बंद म्यानों में‚
किस्मतें वहां सड़ती हैं तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियें–नथें चढ़ती हैं‚
सोने की ईंटें‚ मगर‚ नहीं कढ़ती हैं।
पूछो कुबेर से कब सुवर्ण वे देंगे?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे?
तूफान उठेगा‚ प्रलय बाण छूटेगा‚
है जहां स्वर्ण‚ बम वहीं‚ स्यात्‚ फूटेगा।
जो करें‚ किंतु‚ कंचन यह नहीं बचेगा‚
शायद‚ सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें‚
कह दो सब से‚ अपना दायित्व संभालें।
कह दो प्रपंचकारी‚ कपटी‚ जाली से‚
आलसी‚ अकर्मठ‚ काहिल‚ हड़ताली से‚
सी लें जबान‚ चुपचाप काम पर जायें‚
हम यहां रक्त‚ वे घर पर स्वेद बहायें।
हम दे दें उस को विजय‚ हमें तुम बल दो‚
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहां यदि घर में‚
है कौन हमें जीते जो यहां समर में?