रुद्रयामल तंत्र पटल १४ – Rudrayamal Tantra Patal 14
रुद्रयामल तंत्र पटल १४ में आज्ञाचक्र का ही विस्तार है। भरणी आदि २७ नक्षत्रों के स्वरूप एवं फल का विस्तार से वर्णन है ।
|| रुद्रयामल चतुर्दशः पटलः – राश्याधिपानां च फलानि ||
तंत्र शास्त्ररूद्रयामल
नाक्षत्रिकचक्रफलम्
आनन्दभैरवी उवाच
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि योगमार्गेण शङ्कर ।
भरण्यादिसप्तविंशान् नक्षत्रार्थं सुसत्फलम् ॥१॥
तत्फलाफलमाहात्म्यं साक्षात्कारकलेः फलम् ।
नक्षत्रों के फल — हे शङ्कर ! अब इसके बाद योगमार्ग से भरणी से प्रारम्भ कर सत्ताईस नक्षत्रों को तथा उन नक्षत्रों में होने वाले उत्तम फलों को भी मैं कहती हूँ । उनके फल का इतना माहात्म्य है कि जितना कलि के साक्षात्कार का होता है ॥१ – २॥
फलार्थं भरणीक्षेत्रं धर्मविद्यादिनिर्णयम् ॥२॥
धर्मचिन्ताविनिर्बोधं गमनाभावमङुलम् ।
मकारादिवर्णजातां प्राप्नोति भरणीं भके ॥३॥
(१) भरणी नक्षत्र धर्म विद्यादि के निर्णय के लिए फलदायक है । भरणी नक्षत्र धर्म चिन्ता के लिए प्रशस्त कहा गया है। यह बिना यात्रा के ही मङ्गल देने वाला है, भरणी नक्षत्र वाला पुरुष मकारादि वर्णों वाली वस्तुओं को प्राप्त करता है ॥२ – ३॥
कृत्तिकायां शादिवर्णं व्याधिशङ्करसंक्षयम् ।
आरोग्याच धनस्यार्थे तत्र सूर्य न चाचरेत् ॥४॥
( २ ) कृत्तिका में उत्पन्न पुरुष शादि ( श ष स ह ) वणों वाली वस्तुओं को प्राप्त करता है । आरोग्य तथा धन के लिए भी वह उत्तम है यदि उसमें सूर्य दृष्ट न हों तो ? ॥४॥
या रोहिणी धनवतां धनहानयोर्न प्राणप्रियं गणसुबुद्धविबुद्धिशुद्धिम् ।
नागादिदोषशमनं क्षितिचक्रमध्ये राजश्रियं विबुधशुद्धिमुपैति वृद्धिम् ॥५॥
( ३ ) रोहिणी नक्षत्र में उत्पन्न पुरुष धनिकों के धन की हानि नहीं करता । वह सबका प्राणप्रिय रहता है, अपने समाज में बुद्धिमान् तथा बुद्धि ( विवेक ) से शुद्ध रहता है । पृथ्वी मण्डल में वह नागादि ( काद्रवेय सर्पों ) के दोषों को शान्त करने वाला होता है । वह राज्य श्री की प्राप्ति कर बुद्धिमानों में श्रेष्ठ तथा वृद्धि प्राप्त करता है ॥५॥
मृगेन्द्रशीर्षगामिनी नरेन्द्र मन्दिरे निधिं
ददाति पापनिर्मले जले घन्यशून्यके ।
भयं विवाहकालके कुले शुभं शुभेक्षणा
स्वकीयकिल्बिषं दहेदनन्तबुद्धिसञ्चयम् ॥६॥
( ४ ) मृगशिरा नक्षत्र राजा के मन्दिर में निधि देती है, पाप रहित निर्मल जल में भय शून्य करती है । विवाहकाल में कल्याणकारिणी सुलोचना प्रदान करती है वहा जातक के सारे पापों को नष्ट कर देती है, तथा उससें अनन्त बुद्धि का संचय करती है ॥६॥
आर्द्रविद्रुमरुपिणी रतिकलाकोलाहलोल्लासिनी
सा मत्यार्पणमेव सम्प्रकुरुते काले फलालापनम् ।
सौख्यं मुख्यसमृद्धिदा दरदलाम्भोजच्छटालिम्पटा
सा धीरं परिक्ष्यति प्रतिदिनं शान्तं दृशान्तं दहेत् ॥७॥
( ५ ) आर्द्रा नक्षत्र का वर्णा विद्रुमा ( मूंगा ) के समान है । रतिकला में होने वाले कोलाहल को उल्लसित करने वाला है । वह अपने को मनुष्यों के लिए समर्पण कर देता है और समय से फल देता है । सौख्य तथा मुख्य रुप से समृद्धि देता है । खिले हुये दल युक्त कमल की शोभा के समान वह प्रतिदिन धीरों की रक्षा करता है । इस प्रकार वह शान्त स्वभाव वाला है तथा अपने नेत्रों से अनिष्ट का वारण करता है ॥७॥
पुनर्वसुसुतारिका तरुणरुपकूपा कृपा
विशिष्टफलभावनारहितचित्तदोषापहा
धनमन्तपरिमाणगं प्रचुरशोकङ्कपहा
प्ररक्षति महाग्रहः परमपीडित मानुषम् ॥८॥
( ६ ) पुनर्वसु नक्षत्र तरुणरुपकूपा ( समुद्र ) है, कृपाविशिष्ट फल वाली हैं बिना भावना के ही चित्त के दोषों को दूर करने वाली हैं । अन्तिमावस्था तक धन देती है, बहुत शोक समुदाय को नष्ट करती है, यह महाग्रह की तरह अत्यन्त पीडा़ में पड़े हुये मनुष्य की रक्षा करती है ॥८॥
पुण्या पौषमाकरोति सहसा तेजस्विनां कान्तिदा
कान्तायाः कनकादि-लाभविपदां ध्वंसेन वंशादिदा ।
बाधायां फलदा मृगा मृगपतेरानन्दतुल्यं श्रियम्
काद्या पञ्चमवर्णज्ञानललिता पातीह पुत्रं यथा ॥९॥
( ७ ) पुष्य नक्षत्र सहसा पुण्य तथा पुष्टि प्रदान कराती है, तेजस्वियों में कान्ति देती है, पुष्य नक्षत्र में जातक की स्त्री का विपत्ति का विनाश कर कनकादि का लाभ तथा वंशादि प्रदान करती है, बाधा उपस्थित होने पर फल प्रदान करती हैं, मृगा मृगपति के समान आनन्ददायिनी श्री प्रदान करती है, कादि पञ्च वर्णों के ज्ञान से मनोहर है तथा पुत्र के समान जातक की रक्षा करती है ॥९॥
एतद्धि पूर्वपत्रान्ते तारा मङुलदायिकाः ।
प्रतिभान्ति यथा चक्रे ग्रहाणां भ्रामणे शुभे ॥१०॥
विपरीतफलं नाथ प्राप्नोति पातके बहु ।
पुष्यायां स भवेत् कर्कटस्थोऽपि भास्करः ॥११॥
पूर्वा में रहने वाले इतने ही तारे ( नक्षत्र ) मङ्गल देने वाले हैं । ये ताराएँ इस नक्षत्र चक्र में ग्रहों को घुमाती हुई शोभित होती हैं । हे नाथ ! यदि बहुत पाप रहता है तो ये तारे विपरीत फल भी प्रदान करते हैं । कर्क राशि में यदि सूर्य हों तो पुष्य में उत्पन्न हुआ जातक अत्यन्त क्रुर है ॥१० – ११॥
एतासां तारकाणाञ्च राशिदेवान् श्रृणु प्रभो ।
मेषः सिंहो धनुश्वैव अश्विन्यादिकदेवताः ॥१२॥
येषां राशिस्थितं वर्ण न हानिर्विषयास्पदे ।
सर्वत्र जयमाप्नोति ग्रहे क्रूरेऽपि सौख्यदः ॥१३॥
हे प्रभो ! अब इन ताराओं ( नक्षत्रों ) के राशि देवताओं को सुनिए । मेष, सिंह तथा धनु ये अश्विन्यादि नक्षत्रों के देवता है। जिन राशियों में स्थित वर्ण विषयास्पद में हानि नहीं करते, उन राशियों में क्रुर ग्रहों के रहने पर भी जातक को सुख देवे वाले तथा सर्वत्र विजय प्राप्त कराते है ॥१२ – १३॥
विभिन्नराशौ संभिन्नो धर्मनिन्दाविवर्जितः ।
स्वनक्षत्रफलं ज्ञात्वा प्रश्नार्थं कोमलं वदेत् ॥१४॥
तत्तन्नक्षत्रसुफलं कुफलं वा भवेद्यदि ।
तदा वर्णाविचारञ्च कृत्वा पुष्पं वदेत् ॥१५॥
विभिन्न राशियों में संभिन्ना ये क्रुर ग्रह धर्म निन्दा नहीं करवाते । इस प्रकार अपने नक्षत्र फलों को जानकर प्रश्न के लिए कोमल अक्षरों का उच्चारण करे । यदि उन उन नक्षत्रों के फल सुन्दर हैं, तब तो अच्छी बात है । किन्तु यदि उनका बुरा फल है, तो वर्ण का विचार कर किसी फूल का नाम लेना चाहिए ॥१४ – १५॥
अक्षमालाक्रमेणैव तद्वर्णानां विचारतः ।
तत्तद्वर्णविचारे तु यद्यत् सौख्यं प्रवर्त्तते ॥१६॥
अधिके दोषजाले तु अधिकं दुःखमेव च ।
बहुसौख्यं नित्यसौख्य प्राप्नोति साधकोत्तमः ॥१७॥
एतासां तारकाणां तु वारान् श्रृणु यथाक्रमम् ।
रव्यादिविवारान्तं ताराणामधिपं सुभम् ॥१८॥
अक्षमाला ( अ से लेकर क्ष पर्यन्त वर्ण ) के क्रम से ही वर्णों के फल का विचार करते हुये प्रश्न करे । उन उन वर्णों के विचार से जो जो सुख प्राप्त होता है, वही प्रश्न करे । किन्तु अधिक दुःखदायी वर्णों पर प्रश्न करने से अधिकाधिक दुःख प्राप्त होता है, सौख्यकारक वर्णों द्वारा प्रश्न करने पर साधक बहुत सौख्य तथा नित्य सुख प्राप्त करता है । हे भैरव ! अब इन नक्षत्रों के क्रमानुसार उन उन वारों को भी सुनिए । रवि से लेकर रविवार पर्यन्त दिन ( आठ आठ नक्षत्रों के क्रम से ) ताराओं ( नक्षत्रों ) के शुभ अधिपति कहे गये हैं ॥१६ – १८॥
रुद्रयामल तंत्र पटल १४ नक्षत्र चक्र
अशुभञ्च तथा रुद्र ज्ञात्वा प्रश्नार्थमावदेत् ।
तद्वारनिर्णयं वक्ष्ये पूर्वपङ्केरुहे दले ॥१९॥
हे रुद्र ! इन वारों के शुभाशुभ का विचार कर तदनन्तर फल कहना चाहिए । वे वार पूर्व दिशा में रहने वाले कमलचक्र पर स्थित है ॥१९॥
रुद्रयामल तंत्र पटल १४ रविवार प्रश्नफलकथन
रुद्रयामल चतुर्दशः पटलः
रुद्रयामल चौदहवां पटल
रवौ राज्यं बालकाना यदि प्रश्नं प्रियं फलम् ।
धर्मार्थलाभमेवं हि त्रयोविंशाधिके नरे ॥२०॥
रविवार का फल — रविवार को प्रश्न करने से राज्य की प्राप्ति होती है । बालकों का यदि प्रश्न हो तो उसका फल उत्तम कहा गया है । उक्त दिन प्रश्न करने पर तेइस वर्ष की अवस्था के बाद प्रश्नकर्ता को धर्म, अर्थ की प्रप्ति तथा (यश ) लाभ होता है ॥२०॥
संहितं परमानन्दं योगेन तत्त्वचिन्तनम् ।
इत्यादि रविवारस्य वृद्धानामशुभं शुभे ॥२१॥
प्रश्नकर्ता का हित होता है । आनन्द की प्राप्ति होती है । योग से तत्त्वचिन्तन होता है, इत्यादि रविवार के फल हैं। हे शुभे! किन्तु वृद्धों द्वारा रविवार को प्रश्न किए जाने पर अशुभ फल होता है ॥२१॥
सोमे रत्नमुपैति देवकुसुमामोदेन पूर्ण सुखम्
बालायां नवकन्यका शुभफलं मुद्रामयार्थ लभेत् ।
कैवल्यार्थविचेष्टनं नृपवधूप्रेमाभिलापः सदा
वाञ्छा पुण्यसुखास्पदेषु विमला भक्तिश्च सोमे दिने ॥२२॥
सोमवार का फल — सोमवार के दिन प्रश्न करने पर प्रश्नकर्ता को रत्न की प्राप्ति होती है । देवता को सुगन्धित पुष्प चढ़ाने से पूर्ण सुख मिलता है । यदि बाला स्त्री प्रश्न करे तो नवकन्यका की प्राप्ति तथा शुभ फल प्राप्त होता है। उसे मुद्रा तथा आरोग्य भी मिलता है । पुरुष कैवल्य प्राप्ति की चेष्टा करता है । राजपत्नी से प्रेम तथा प्रेमालाप की प्राप्ति होती है । वाञ्छा एवं पुण्य तथा सुखास्पद वाले उस व्यक्ति को विमल भक्ति प्राप्त होती है । ऐसा सोमवार के दिन प्रश्न करने का फल है ॥२२॥
पृथ्वीपुत्रो रुधिवदनो बालबाली विशेषो
मुख्यं कार्यं दहति सहसा साहसं वासनायाम् ।
हन्ति प्रायो विफलघटितं शोकसन्तानसारं
मोक्ष पुण्यं घटयति सदा मङुले भूमिवारे ॥२३॥
मङ्गलवार का फल — पृथ्वी पुत्र ( मङ्गल ) का मुख रुधिर के समान लाल है । वह प्रश्नकर्ता बालिक या बालिका के प्रधान कार्य को विनष्ट करा देते हैं । वासनाओं में सहसा साहस उत्पन्न करता है और उसे विनष्ट भी कर देता है । उसके समस्त कार्य विफल हो जाते है, शोक संताप का सार प्रदान करता है । बहुत क्या कहना , भूमिवार मङ्गल के दिन प्रश्न करने पर मोक्ष तथा पुण्य की ओर साधक से चेष्टा करवाते हैं ॥२३॥
बुधे वारमुखे महापुण्यपुञ्ज समाप्नोति मर्त्यस्तथा दुर्बलञ्च ।
सदा कालदोषं महाघोदुःखं रिपूणां धनीनां महावीर्यदर्पम् ॥२४॥
बुधवार का फल — वारों में प्रधान बुधवार को प्रश्न करने पर प्रश्नकर्ता महान् पुण्य पुञ्ज प्राप्त करता है । वह कालदोष, दुर्बलता महाघोर दुःख प्राप्त करता है और वह धनिक शत्रुओं के महावीर्य युक्त अभिमान का भाजन बनता है ॥२४॥
सुराणां देवाना विविध धनलाभं वितरणं
प्रतापं सत्कीर्त्ति क्रतुफलविशेषं विधिगतम् ।
जनानामान्दं समर वसगतानन्द ह्रदये
प्रतिष्ठा सद्धर्मं गमयति मुदा वासनगुरौ ॥२५॥
गुरुवार का फल — गुरुवार के दिन प्रश्न करने पर प्रश्नकर्ता सुरों के तथा देवताओं के विविध धन का लाभ प्राप्त करता है। उसका वितरण भी करता है । प्रताप, सत्कीर्ति तथा विधानपूर्वक किए गये यज्ञादि का फल पाता है । उसका परिवार आनन्दपूर्वक फूलता फलता है । अपने समरस वाले ( समरवसगत ?) आनन्दपूर्ण हृदय में प्रतिष्ठा तथा सद्धर्म प्रसन्नता पूर्वक प्राप्त करता है । यह गुरुवार के प्रश्न का फल है ॥२५॥
मन्दारमालन्वित देहधारी नाकस्थले गच्छति देवनिष्ठः ।
हरेः पदे भक्तिमुपैति सत्यं प्रसाधनात् शुक्रसुवारकाले ॥२६॥
शुक्रवार का फल — शुक्रवार जैसे सुन्दर दिन में प्रश्नकर्ता मन्दार माला से परिपूर्ण शरीर धारण करने वाला, देवताओं में प्रीति रखने वाला, स्वर्गगामी और श्री भगवान् के चरण कमलों में भक्ति प्राप्त करने वाला होता है — यह सत्य है ।
शनैश्चरदिने भयं भुवनदोषमोहन्वितं
विशिष्टधननीरदं वयसि सिद्धिऋद्धयर्कजं
भजन्ति यदि मानुषाः सकलामनादेः प्रभोः ॥२७॥
शनिवार का फल — शनैश्चर के दिन प्रश्न करने वाला भय प्राप्त करता है । भुवन के मोहादि दोषों से ग्रस्त रहता है । राजा के प्रिय पुत्र का प्रिय होता है । उसके नेत्र सुन्दर होते हैं । स्त्री सुख की प्रप्ति विशिष्ट जल देने वाले बादल के समान, समय आने पर सिद्धि – ऋद्धि की प्राप्ति का फल कहा गया है । यदि मनुष्य अर्कज ( शनि ) का जप पूजा पाठ करे तो उसे सब समृद्धि प्राप्त होती है; हे प्रभो ! क्योंकि वे विशिष्ट कामना के फल देने वाले हैं ॥२६ – २७॥
पुनश्च रविवारगं फलमतीव दुःखास्पदं
प्रचण्डकिरणं सदा विकललोकरोगापहम् ।
तमेव परिभावनं परिकरोति यो वा नरो
न नश्यति कदाचन प्रचुरतापशापाकरम् ॥२८॥
रविवार का फल — अब फिर रविवार का फल कहती हूँ । उनका फल अत्यन्त दुःखास्पद है ये रवि प्रचण्ड किरणों वाले हैं । सदैव ताप से विकल लोगों के रोगों के रोगों को दूर करने वाले है, जो मनुष्य इस प्रकार प्रचुर ताप तथा शाप के आकर सूर्य भगवान् का भजन करता है वह कभी भी विनष्ट नहीं होता ॥२८॥
कलाधरफलं श्रृणु प्रणवबाह्यसूक्ष्माश्रयं
समग्रखचराफलं फलवतां हि सञ्ज्ञाफलम् ।
गभीरवचनं नृपप्रियकरस्य रक्षाकरं
यदीन्दुभजनं यदा कलिशुभादिशम्भोऽकरोत् ॥२९॥
सोमवार का फल — अब हे भैरव ! कलाधर ( चन्द्रमा ) सोमवार के फल को पुनः सुनिए । यह फल प्रणव से बाहर सूक्ष्माश्रय वाला है । इसी में समस्त ग्रहों का फल समाहित है । यह सभी फलों में ग्रह संज्ञा फल है । सोमवार के दिन प्रश्नकर्ता गम्भीर वचन बोलने वाला और राजा का प्रिय करने वाले की रक्षा करता है । यदि वह पुरुष सोम का भजन पूजन करे तो कलि में शुभ एवं शान्ति की प्राप्ति होती है ? ॥२९॥
विमर्श — रविवार से लेकर रविवार पुनः सोमवार कुल ९ वार ये ही २७ नक्षत्रों के क्रमशः देवता है ।९ संख्या सूचित करने के लिए रवि का २ वार फल तथा सोमवार क दो वार फल कहा गया है ।
पुर्वा में प्रथम दल पर भरणी, कृत्तिका, रोहिण, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य पर्यन्त सात नक्षत्रों का फल है जो १४. ३ – १० तक कह आये हैं । इसके बाद प्रासङ्गानुसार राशि – देवता का वर्णन है । अत्र पुनश्च सत्ताईस नक्षत्रों के वार देवता का वर्णन है । रविवार से आरम्भ कर पुनः रविवार एवं पुनः सोमवार पर्यन्त नव वार होते हैं जो क्रमेण सत्ताईस नक्षत्रों के देवता है । उनका फल भी १४ . २० – २९ पर्यन्त श्लोक में कहा गया है ।
रुद्रयामल तंत्र पटल १४
रुद्रयामल चतुर्दश पटल – आश्लेषादिनक्षत्रफलकथन
रुद्रयामल चौदहवां पटल
द्वितीयदलमाहात्म्यं नक्षत्रमण्डलावृतम् ।
तत्तत्ताराफलं वक्ष्ये येन प्रश्ननार्थनिर्णयः ॥३०॥
अब आश्लेषा से लेकर चित्रा पर्यन्त द्वितीय सकात्मका दल का फल पुनः आरम्भ करते हैं — अब द्वितीयदल का माहात्म्य जो नक्षत्र मण्डल से आवृत है उन उन नक्षत्रों का फल कहती हूँ जिससे प्रश्न के अर्थ का निर्णय किया जाता है ॥३०॥
अश्लेषा बहुदुःखवादनगतं व्यामोहशोभावृतं
नानाभङुनिषेवणं धनवतां हानिः पदे सम्पदे ।
भूपानां परिवर्ज्जन खलजनैराच्छादितं तापितं
सन्दद्यात् क्षितिजातिभाति नियतं कोलाहले नारके ॥३१॥
( ८ ) आश्लेषा अनेक प्रकार के दुःख के दावानल से परिपूर्ण है । यह नक्षत्र व्यामोह की शोभा से आवृत है । नाना भृङ्गो ( याचकों या चाटुकारों ) से निषेवित है । प्रत्येक पग में धनवानों के संपत्ति की हानि करता है । राजा उसका त्याग कर देते हैं और दुष्ट लोग उसे घेर कर संतप्त करते हैं ॥३१॥
मघायां महेशि धनं हन्ति मध्ये महोल्लासवृद्धिं भयं तस्य शत्रोः ।
क्षितिक्षोभहन्तामेत्यन्तभावं कुकामातुराणां सदा सङुकारम् ॥३२॥
( ९ ) हे महेशी! मघा नक्षत्र में मङ्गल धन का नाश करता है । उसके आनन्द की अभिवृद्धि में शत्रु का भय सताता है । वह पृथ्वी का क्षोभ मिटाने वाले का आश्रय लेता है फिर भी मारा जाता है । बुरे एवं कामातुरों का वह साथ पकड़ता है ॥३२॥
पूर्वफल्गुनिनक्षत्रे दूरगानां फलं पठेत् ।
अतिधैर्य शत्रुपक्षे हानयो यान्ति निश्चितम् ॥३३॥
फलमुत्तरफल्गुन्या दीयते गतिरीश्वरी ।
यदि देवपरो नाथ तदा सर्वत्र सुन्दरम् ॥३४॥
( १० ) पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में प्रश्न होने पर फल को दूरगामी बताना चाहिए । प्रश्नकर्ता के अत्यन्त धैर्यवान् होने पर भी शत्रुपक्ष से हानि उठानी पड़ती है — यह निश्चिता है ।
( ११ ) उत्तराफाल्गुनी में प्रश्नकर्ता ईश्वरी गति के अनुसार फल प्राप्त करता है । हे नाथ ! यदि वह आस्तिक है तो उसे सर्वत्र सुन्दर फल प्राप्त होता है ॥३३ – ३४॥
हस्तामस्तकव्रीडया शुभविलोकत्रये भाग्यदा
रक्तङीगतिचञ्चलामलगुणाहलादेन कल्याणदा ।
सा नित्यं प्रददाति रुक्मशतकं भक्ताय यज्ञार्थिने
नानाव्यञ्जनभोजनैरतिसुखी संज्ञासमूहं ददेत् ॥३५॥
( १२ ) हस्त तारा शिर पर लज्जालु होने से अपने शुभावलोकन से सौभाग्य प्रदान करता है, उसके समस्त अङ्ग रक्त वर्ण वाले है गति चञ्चल है । वह अपने स्वच्छ गुणों के आह्लाद से कल्याण देने वाला नक्षत्र है । वह अपने यज्ञ करने वाले भक्त को नित्य सौ कार्षापण सोना देता है। अनेक प्रकार के व्यञ्जन भोजनों से अत्यन्त सुखकारी वह अपने भक्त को विभिन्न सञ्ज्ञा समूह प्रदान करता है ॥३५॥
ददाति वित्तं जगतीह चित्रा मनोरथं व्याकुलतामङ्कृता ।
कदाचिदेव हि शरीरदुःखदं न प्राप्नुयादीश्वरभक्तिमालभेत् ॥३६॥
( १३ ) चित्रा नक्षत्र इसी जगत् में वित्त तथा मनोरथ प्रदान करता है । ( अन्य ग्रहों से ) अलंकृत होने पर भी वह कभी व्याकुलता प्रदान करती है। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि उसके साधक को शरीर का दुःख प्राप्त हो । बहुत क्या, वह साधक ईश्वर की भक्ति प्राप्त करता है ॥३६॥
रुद्रयामल तंत्र पटल १४
रुद्रयामल चतुर्दशः पटलः
रुद्रयामल चौदहवां पटल – नक्षत्राधिपतिफलविचार
अश्लेषानाथ शुक्रो विपदमति कदा नो ददाति प्रदुःखं
दक्षे पत्रे विहारोत्तभयहराचण्डतापं न हन्ति ।
जीवः श्रीमानमोघाशाधनमपि विविधं ब्राह्मणः पीतवर्णः
पूर्वान्तः फल्गुनीशो विधुतनुजवरो नीलवर्णः स्वपत्रम् ॥३७॥
कुरुते बहुसुखवित्तं उत्तरफल्गुनीनाथो मङुलेन ।
हस्तायाः पतिश्चन्द्रो विभवमनन्तं चित्रेशो रविः ॥३८॥
नक्षत्राधिपति फल विचार — आश्लेषा के अधिपति शुक्र हैं जो कभी विपत्ति तथा दुःख नहीं देते । दक्षिण वाले द्वितीय पत्र पर स्थित वह बिहार करवाते हैं, उत्तर में आने वाले भय को विनष्ट करता है, उसके प्रचण्ड ताप का हनन नहीं करता । मघा का अधिपति जीव ( बृहस्पति ) हैं जो विविध प्रकार की धन – सम्पत्ति प्रदान करते हैं । बृहस्पति ब्राह्मण है। उनके शरीर का वर्ण पीत है । पूर्वाफल्गुनी के अधिपति चन्द्रमा के लड़के बुध हैं । जिनके शरीर का वर्ण नीला है । वे अपने पत्र पर तथा उत्तरा फाल्गुनी के अधिपति मङ्गल के साथ अनेक प्रकार के सुखों से चित्त को पूर्ण कर देते है, हस्त के अधिपति चन्द्रमा तथा चित्रा के अधिपति रवि हैं जो अनन्त वैभव संपन्न बनाते हैं ॥३७ – ३८॥
अधस्तृतीयपत्रस्य नक्षत्राणि श्रृणु प्रभो ।
यासां वारविशिष्टानां प्रश्ननिष्कर्षसत्फलम् ॥३९॥
हे प्रभो ! अब अधः तृतीय पत्र पर रहने वाले नक्षत्रों को सुनिए, जो वार विशिष्ट होने पर प्रश्न के निष्कर्ष का उत्तम फल प्रदान करते हैं ॥३९॥
स्वातीं रविः पाति महोग्र तेजसा विनाशकाले विपरीबुद्धिदः ।
इन्दुर्विशाखां सुखदः सरस्वतीं कुजोऽनुराधां विपदां प्रबाधाम् ॥४०॥
( १४ ) स्वाती नक्षत्र की रक्षा रवि अपने तेज से करते हैं । किन्तु जब विनाशकाल उपस्थित होता है तो वे ही विपरीत बुद्धि प्रदान करते हैं ।
( १५ ) विशाखा के अधिपति इन्दु हैं जो सुख तथा सरस्वती प्रदान करते हैं।
(१६) अनुराधा के अधिपति कुज ( मङ्गल ) हैं जो समस्त विपत्तियों को प्रबाधित करते हैं ॥४०॥
बुधो हि पायात् सकलार्थसाधिनीं तथा हि मूलां सुखदाञ्च जीवः ।
तदा धनार्थं प्रददाति शुक्रः पूर्वन्विताऽऽषाढिकयाऽन्वितः सुखम् ॥४१॥
( १७ ) सम्पूर्ण अर्थों का साधक ( ज्येष्ठा ) नक्षत्र है । उसके अधिपति बुध हैं जो रक्षा करते हैं ।
( १८ ) इसी प्रकार मूल सुख देने वाले हैं । जीव ( बृहस्पति ) उसके अधिपति हैं ।
( १९ ) पूर्वाषाढ़ के अधिपति शुक्र है । वे सुख देते हैं तथा धन भी ॥४१॥
चतुर्थपत्रं वामस्थं महामङ्गलकारणम् ।
अर्थवेदरुपं तत् सर्वप्रश्नकथावृतम् ॥४२॥
विपरिते महद्दुखं वर्णसौख्येऽपि हानयः ।
भवन्ति तारकाणाञ्च शुभदृष्ट्या महोदयाः ॥४३॥
चौथा पत्र बाई ओर स्थित है, वह महामङ्गलकारी है वह अर्थववेद का स्वरुप है तथा सारे प्रश्नों के कथा से आवृत है । प्रश्न वर्ण के विपरीत होने पर महान् दुःख तथा वर्णों के सुखकारक होने पर भी हानि उठानी पड़ती है। किन्तु यदि नक्षत्रों की शुभदृष्टि हो तो महान् अभ्युदय या लाभ होता है ॥४२ – ४३॥
तत्तारकानाथगुणं शुभाशुभफलप्रदम् ।
प्रश्नवर्नसमूहानां मतमालोक्य निर्णयम् ॥४४॥
शनिः पात्युत्तराषाढां हानिरुपां विपाकदाम् ।
दुःखदारिद्रयसंयुक्तां देवनिष्ठेन बाधते ॥४५॥
यहा शुभाशुभ फल तारकों ( नक्षत्रों ) के अधिपति के गुण से प्रगट होते हैं, इसलिए प्रश्नवर्ण के समूहों का मत जानकर तब निर्णय देना चाहिए ।
( २० ) उत्तराषाढ़ के अधिपति शनि हैं । वे विपाक ( परिणाम ) में होने वाली हानि ही देते हैं वह दुख दारिद्रय देने वाले होते हैं किन्तु देवता में निष्ठा होने पर वह बाधित भी हो जाती है ॥४४ – ४५॥
रविः प्रपाति श्रवणां धनादिभिः प्रधानदेवाश्रयनिर्विकल्पाम् ।
तथा धनिष्ठां फलदां सुधांशुः कुजो विपत्तिं शतभिग्गणेशः ॥४६॥
( २१ ) श्रवण के अधिपति रवि धनादि द्वारा रक्षा करते हैं । प्रधान देव ( सूर्य ) के आश्रय लेने से उसका ऐसा फल निर्विकल्प समझना चाहिए।
( २२ ) घनिष्ठा के अधिपति सुधांशु ( चन्द्रमा ) हैं । इसलिए वह उत्तम फल देने वाले नक्षत्र हैं ।
( २३ ) शतभिषा तारागणों के देवता कुज ( मङ्गल ) है, जो विपत्ति प्रदान करते है ॥४६॥
विमर्श — शतभिषा में १०० तारे होते हैं । उसका अधिपति होने के कारण मङ्गल को गणेश कहा गया है । (द्र० १४ . ४८ ) । ’ शतभिशाजां गणनामीशा ’ या ’ शतभिग्गणेश ’ ।
पूर्वभाद्रपदानाथो बुधः काञ्चनवर्धनः ।
तथा लोकं महादेवोत्तरभाद्रपदापतिः ॥४७॥
बृहस्पतिः सुखोल्लासं रेवती शस्तथा भृगुः ।
ददाति परमाहलाद स्वस्व पत्रस्थराशिभिः ॥४८॥
( २४ ) पूर्वभाद्रपद के अधिपति बुध हैं जो सुवर्ण की वृद्धि करते हैं ।
( २५ ) उत्तरभाद्रपद के अधिपति महानदेव बृहस्पति हैं जो उत्तम लोक प्रदान करते हैं तथा सुखों को उल्लसित करते हैं।
( २६ ) रेवती के अधिपति भृगु ( शुक्र ) हैं, जो अपने अपने पत्र पर रहने वाली राशियों के साथ परम आह्लाद प्रदान करते हैं ॥४७ – ४८॥
अभिजित्तारकं पाति शनिः श्रीमान् धनप्रदः ।
फलभागं मुदा दातुं शनी राजमृगान्तिके ॥४९॥
तच्चन्द्रोच्चस्थमिति के वदन्ति परमप्रियम् ।
राहुराजा ग्रहाः क्षेत्रे अभिजित् कालवेष्टितः ॥५०॥
श्री सम्पन्नता एवं धन देने वाले शनि ( २७ ) अभिजित तारे की रक्षा करते हैं । वस्तुतः प्रसन्नतापूर्वक फल प्रदान करने के लिए शनि राजा मृगान्तक ( सिंह ) है । उसमें भी यदि चद्रमा उच्च का हो तो बुद्धिमान् लोग उसे अत्यन्त उत्तम कहते है । राहु राजा ग्रहों के क्षेत्र में अभिजित काल से परिवेष्टित है ॥४९ – ५०॥
तत्कालं सूक्ष्मतद्रूपं यो जानाति महीतले ।
सन्ध्याकालमिति ज्ञेयं शनिराहू सुखान्तयोः ॥५१॥
तत्सन्धिकालमेवं हि सत्त्वगुणमहोदयम् ।
तत्कुम्भकं विजानीयान्मदीय देहसम्भवम् ॥५२॥
महासूक्ष्मक्षणं तद्धि कुण्डलीमण्डलं यथा ।
तस्याः प्रथमभागे च धारनाख्यः शनिः प्रभुः ॥५३॥
वह काल अत्यन्त सूक्ष्म है, पृथ्वीतल में जो उसे जान लेता है वह सुखी रहता है । शनि और राहु एकत्र रहने पर सुख का अन्त करने के लिए सन्ध्या काल के समान है । उनका सन्धिकाल इस प्रकार सत्त्वगुण का महान् उदय करने वाला होता है, उसे कुम्भक जानना चाहिए, जो मेरे शरीर से उत्पन्न हुआ है, वह क्षण कुण्डली मण्डल के समान अत्यन्त सूक्ष्म हैं । उसके प्रथम भाग में धारणा ’ नामक शनि प्रभु है ॥५१ – ५३॥
स्वयं ब्रह्मा मुदा भाति निरञ्जनकलेवरः ।
तस्याः शेषे रेचनाख्यः संहारविग्रहः शुचिः ॥५४॥
राहुरुपी स्वयं शम्भुः पञ्चतत्त्वविधानवित् ।
कालरुपी महादेवो विकटास्यो भयङ्करः ॥५५॥
जहाँ पर निरञ्जन ( माया रहित ) ब्रह्मदेव स्वयं प्रसन्नता पूर्वक निवास करते है । उसके शेष भाग में संहार विग्रह वाले शुचि रेचन नाम से राहु रुप धारण करने वाले पञ्च तत्त्व विधान वेत्ता सदाशिव प्रभु हैं । ये महादेव ही काल स्वरुप है, जिनका मुख अत्यन्त विकट तथा भयङ्कर है ॥५४ – ५५॥
सर्वपापानलं हन्ति चन्द्ररुपी सुधाकारः ।
कृष्णवर्णः कालयमः पुण्यापुण्यनिरुपकः ॥५६॥
द्वयोर्मध्ये सूक्ष्मरुपा तदित्कोटिसमप्रभा ।
महासत्त्वाश्रिता देवी विष्णुमायाग्रहाश्रिता ॥५७॥
अभिजित्तारका सूक्ष्मा सन्धिकाललया जया ।
कुम्भकाक्रान्तह्रदया ग्रहचक्रपुरोगमा ॥५८॥
चन्द्रमा रुप में सुधाकर स्वरुप धारण कर वही महादेव अपने साधक के सारे पापाग्नि को विनष्ट कर देते हैं और वही काल स्वरुप वाले काल यम बनकर पुण्यापुण्य का फल भी प्रदान करते हैं । उन दोनों के मध्य में करोड़ों विद्युत के समान देदीप्यमान, सूक्ष्मरुप वाली, महासत्त्व का आश्रय लिए हुये, ग्रहों पर आश्रित रहने वाली, विष्णुमाया स्वरुपा, सूक्ष्मा एवं जया अभिजित नक्षत्र है जिसका लय सन्धिकाल में होता है । उसका हृदय कुम्भक से आक्रान्त है वही अभिजित समस्त ग्रहसमूहों के आगे चलता है ॥५६ – ५८॥
नक्षमण्डलग्राममध्यस्था तिथिषोडशी ।
असामयी सूक्ष्मकला तरुणानन्दनिर्भरा ॥५९॥
अस्या आद्यभागसंस्थो ब्रह्मरुपो रजोगुणः ।
अस्याः शेषः कालरुपी तमोगुणालयप्रियः ॥६०॥
तिथिविवेचन — नक्षत्र मण्डल समूहों के मध्य में रहने वाली षोडशी तिथि हैं जिसका समय निर्धारित नहीं है और वह सूक्ष्म कला से युक्त है । वह तरुणों के समान आनन्द से परिपूर्ण रहने वाली तिथि है । इसके प्रथम भाग में स्थित रहने वाला ब्रह्मरुप रजोगुण है, इसका शेष ( भाग ) काल रुप धारण करने वाला तमोगुण है और सबको अपने में लय कर लेना ही इसे प्रिय है ॥५९ – ६०॥
चन्द्रो ब्रह्मा शिवः सूर्यो महामायातनूत्तरः ।
आत्रेयी परमा शक्तिः सुषुम्नान्तरगामिनी ॥६१॥
मध्यस्था ब्रह्मशिवयोर्विधिशास्त्रस्य सिद्धिदा ।
यैर्ज्ञायते सर्वसंस्था सर्वानन्दह्रदि स्थिता ॥६२॥
सुषुम्ना नाडी़स्था आत्रेयी शक्ति का विवेचना — चन्द्रमा ब्रह्मा हैं, सूर्य शिव हैं जो महामाया के उत्तर ( पश्चात् ) शरीर है, उसकी आत्रेयी नाम की शक्ति है जो सुषुम्ना के भीतर गमन करती है । वह सुषुम्ना ब्रह्मा और शिव के मध्य में रहने वाली है जो विधि शास्त्र की सिद्धि दात्री है ।जिससे सब कुछ का ज्ञान होता है । किं बहुना, वह सबको आनन्द देने वाली है तथा हृदय में निवास करने वाली है ॥६१ – ६२॥
तैरानन्दफलोपेतैः सत्त्वसम्भोगकारिणी ।
महाविष्णुर्महामाया चन्द्रतारास्वरुपिणी ॥६३॥
मुक्तिदा भोगदा भोग्या शम्भोराद्या महेश्वरी ।
अज्ञानवृतता घोरान्धकरकालसंहारहंसिनी ॥६४॥
वह ( आत्रेयी शक्ति ) आनन्द रुप फलों से युक्त होने के कारण सत्त्व के संभोगो को प्रदान करने वाली हैं । यह महाविष्णु स्वरुपा है और महामाया हैं तथा चन्द्र तारा स्वरुपिणी है । वहा भोग तथा मुक्ति प्रदान करती हैं तथा सदाशिव की भोग्या है । यह आद्या माहेश्वरी है । अज्ञान से आवृत होने पर यह घोर अन्धकार वाली है तथा काल का संहार करने वाली एवं हंसिनी है ॥६३ – ६४॥
रुद्रयामल तंत्र पटल १४ – आत्रेयीशक्तिविवेचन
रुद्रयामल चतुर्दशः पटलः
रुद्रयामल चौदहवां पटल
मन्दवायुप्रिया यस्य कल्पनार्थे च वीरहा ।
सा पाति जगतां लोकान् तस्याधीनमिदं जगत् ॥६५॥
नाकाले म्रियते कश्चिद् यदि जानाति वायवीम् ।
वायवी परमा शक्तिरिति तन्त्रार्थ निर्णयः ॥६६॥
वायवी कला का विवेचन — वह ( आत्रेयी शक्ति ) मन्द वायु से प्रेम करने वाली हैं । जिसके कल्पना के लिए वही सारे संसार के जीवों की रक्षा करती हैं, सारा संसार उसी के आधीन है । यदि कोई साधक उस वायावी कला को जान ले तो उसकी अकाल मृत्यु कभी नहीं हो सकती । क्योंकि समस्त तन्त्रों का तात्पर्य यही है कि वायवी कला सर्वश्रेष्ठ शक्ति है ॥६५ – ६६॥
सूक्ष्मागमनरुपेण सूक्ष्मसिद्धिं ददाति या ।
नराणां भजनार्थाय अष्टैश्वर्यजयाय च ॥६७॥
कथितं ब्रह्मणा पूर्वं शिष्याय तनुजाय च ।
लोभमोहकाक्रोधदमात्सर्यहाय च ॥६८॥
जो अपने सूक्ष्म आगमन रुप से मनुष्यों के भजन के लिए तथा आठो ऐश्वर्य पर विजय पाने के लिए सूक्ष्म सिद्धि प्रदान करती है । यह बात ब्रह्मदेव ने पूर्व काल में अपने शिष्यों के लिए और अपने पुत्रों के लिए कही थी, जिन्होंने लोभ, मोह, काम, क्रोध, मद तथा मात्सर्य का परित्याग कर दिया था ॥६७ – ६८॥
तत्क्रमं परमं प्रीतिवर्धनं भूतले प्रभो ।
आज्ञाचक्रस्य मध्ये तु वायवी परितिष्ठति ॥६९॥
चन्द्रसूर्यग्निरुपा सा धर्माधर्मविवर्जिता ।
मनोरुपा बुद्धिरुपा शरीरं व्याप्यं तिष्ठति ॥७०॥
हे प्रभो ! उस वायवी कला यही सर्वोत्कृष्ट क्रम है । यह भूतल में प्रेम की वृद्धि करने वाली है । उक्त लक्षणलक्षिण वायवी कला आज्ञाचक्र में निवास करती है । वह चन्द्र सूर्य तथा अग्नि स्वरुपा है, धर्म और अधर्म दोनों से रहित है । यह कला मनोरुपा एवं बुद्धिरुपा है तथा समस्त शरीर में व्याप्त हो कर स्थित रहती है ॥६९ – ७०॥
आज्ञा द्विदलमध्ये तु चतुद्र्दशमुदाह्रतम् ।
वेददले वेदवर्ण वादिसान्तं महाप्रभम् ॥७१॥
तदाग्निरुप सम्पन्नम् ऋग्वेदादिसमान्वितम् ।
श्रृणु तद्वेदमाहात्म्यं क्रमशः क्रमशः प्रभो ॥७२॥
आज्ञाचक्र में दो दल हैं, जिसमें चौदह अक्षर हैं, यह हम पहले कह आये हैं । वेद दल में ( व श ष स ) ये चारा वर्ण हैं जो अत्यन्त तेजोमय है । वे सभी अग्निस्वरुप हैं और ऋग्वेदादि से युक्त हैं । हे प्रभो ! अब उन वेदों का माहात्म्य एक एक के क्रम से श्रवण कीजिए ॥७१ – ७२॥
॥ इति श्री रुद्रयामले उत्तरतन्त्रे भावप्रश्नार्थनिर्णये आज्ञाचक्रसङ्केते वेदप्रकरणे भैरवी भैरवसंवादे चतुर्दशः पटलः ॥१४॥
इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के उत्तरतंत्र में महातंत्रोद्दीपन के भावप्रश्नार्थनिर्णय में आज्ञाचक्रसारसङ्केत में सिद्धमन्त्र प्रकरण के वेद प्रकरण में में भैरवी भैरव संवाद में चौदहवें पटल की डॅा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्णं हुई॥१४॥
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