रुद्रयामल तंत्र पटल २७ , Rudrayamal Tantra Patal 27, रुद्रयामल तंत्र सत्ताइसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र पटल २७ में पुनः प्राणवायु के धारण प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि की विस्तार से चर्चा है। प्रतिपदा- द्वितीया आदि तिथि से लेकर अन्य तिथियों में प्राणायाम की विधि कही गई है। तिथि का व्यत्यास करने से मरण, रोग एवं बन्धुनाश होता है। प्राणायाम का फल दूरदर्शित्व और दूरश्रवण है। इन्द्रियों का प्रत्याहार कर ईश्वर में भक्ति, खेचरत्व तथा विषय–वासना से निवृत्ति है। धारणा से धैर्य धारण और प्राणवायु का शमन होता है, ध्यान का फल मोक्षसुख है। समाधि का फल जीवात्मा एवं परमात्मा के मिलन से समत्व भाव की उत्पत्ति है।
पुनः अनाहत, विशुद्ध, महापूरक, मणिपूरक और बिन्दु आदि चक्रों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन है। षट्चक्र भेदन की प्रक्रिया और पञ्चकृत्यविधि विस्तार से प्रतिपादित है। अन्त में भगवान् शिव के कीर्तन, ध्यान मनन, दास्यभाव, सख्य एवं आत्मनिवेदन का वर्णन है। इस भक्तिभाव से पूजन द्वारा जीवन्मुक्ति की प्राप्ति होती है।
रुद्रयामल तंत्र सत्ताइसवाँ पटल – प्राणायाम लक्षण
रुद्रयामल तंत्र सप्तविंशः पटलः – प्राणायाम लक्षणम्
षट्चक्रसारसंकेते अष्टाङ्गयोगनिरूपणम्
रूद्रयामल तंत्र शास्त्र
अथ सप्तविंशं पटल:
आनन्दभैरव उवाच
विविधानि त्वयोक्तानि योगशास्त्राणि भैरवि ।
सर्वरुपत्वमेवास्या मम कान्ते प्रियंवदे ॥१॥
योगाष्टाङ्गफलान्येव सर्वतत्त्वजलानि च ।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि शक्तितत्त्वक्रमेण तु ॥२॥
पूर्वोक्तप्राणवायूनां हरणं वायुधारणम् ।
प्रत्याहारं धारणख्यं ध्यानं समाधिमावद ॥३॥
आनन्दभैरव ने कहा — हे भैरवी ! हे कान्ते ! हे प्रियम्वदे ! तुमने अनेक प्रकार के योगशास्त्र, इसकी सर्वरुपता तथा सभी तत्त्वों में उज्ज्वल अष्टाङ्गयोग के फलों का प्रतिपादन किया । अब मैं शक्ति – तत्त्व के क्रम से पूर्वोक्त प्राणवायु का ग्रहण उस प्राणवायु का धारण, फिर प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि सुनना चाहता हूँ उसे कहिए ॥१ – ३॥
आनन्दभैरवी उवाच
श्रृणु लोकेश वक्ष्यामि प्राणायामफलाफलम् ।
न गृहणीयाद्विस्तरं तु स्वल्पं नैव तु कुम्भयेत् ॥४॥
आनन्दभैरवी ने कहा — हे प्राणेश ! अब प्राणायाम के फलाफल को कहती हूँ । बहुत विस्तार पूर्वक प्राणवायु को ग्रहण न करे और स्वल्परुप में कुम्भक भी न करे ॥४॥
शनैः शनैः प्रकर्तव्यं सङ्कातञ्च विवर्जयेत् ।
पूरकाहलादसिद्धेश्च प्राणायामशतं शतम् ॥५॥
वृद्धयै प्राणलक्षणं तु यस्मिन् दिने गतिः ।
कृष्णपक्षे शुक्लपक्षे तिथित्रिंशत्फलोदयः ॥६॥
प्राणायाम धीरे धीरे करना चाहिए, संघात (= एक साथ तेजी से वायु खींचना ) विवर्जित रखे । पूरकाह्लाद की सिद्धि के लिए सौ सौ की संख्या में प्राणायाम का विधान है प्राण लक्षण की वृद्धि के लिए जिस जिस दिन प्राण वायु की गति जहाँ से होती है उसका फलोदय इस प्रकार है – कृष्ण पक्ष में तथा शुक्लपक्ष में कुल ३० तिथियाँ होती है ॥५ – ६॥
शुक्लापक्षे इडायां तु कृष्णपक्षेऽन्यदेव हि ।
कुर्यात् सर्वत्र गमनं सुषुम्ना बहुरुपिणी ॥७॥
तिथित्रयं सितस्यापि प्रतिदादिसम्भवम् ।
तद्द्वयं दक्षनासायां वायोर्ज्ञेयं महाप्रभो ॥८॥
शुक्लपक्ष में ईड़ा से कृष्णपक्ष में पिङ्गला द्वारा वायु को सर्वत्र गमन कराना चाहिए । सुषुम्ना तो बहुरुपिणी है । शुक्लपक्ष में प्रतिपदा से लेकर तीन तिथि पर्यन्त हे महाप्रभो ! दाहिनी नासिका से पिङ्गला से दोनों से वायुसञ्चार होता है ॥७ – ८॥
चतुर्थीं पञ्चमीं षष्ष्ठीं व्याप्योदयति देवता ।
वामनासुटे ध्येया वायुधारणकर्मणि ॥९॥
सप्तमीमष्टमीञ्चैव नवमीं व्याप्य तिष्ठति ।
वामनासापुटे ध्येया साधकैः कुलपण्डितैः ॥१०॥
इसके बाद शुक्ल पक्ष से चतुर्थी, पञ्चमी, षष्ठी, पर्यन्त वायुधारण कर्म में बायें नासिका से देवताओं का उदय होता है, अतः उसी से वायु ग्रहण करना चाहिए । इसके अनन्तर शाक्त विद्या के उपासकों को सप्तमी, अष्टमी, नवमीं पर्यन्त बाई नासिका से ही वायु ग्रहण करना चाहिए ॥९ – १०॥
दशम्येकादशीं चैव द्वादशीं व्याप्य तिष्ठति ।
वायुर्दक्षिणनासाग्रे ध्येयो योगिभिरिश्वरः ॥११॥
त्रयोदशीं व्याप्य वायुः पौर्णमासीं चतुर्दशीम् ।
वामनापुटे ध्येयः संहारहरणाय च ॥१२॥
कृष्णपक्षफलं वक्ष्ये यज्ज्ञात्वा अमरो भवेत् ।
कालज्ञानीं भवेत् शीघ्रं नात्र कार्या विचारणा ॥१३॥
इसके बाद दशमी, एकादशी तथा द्वादशी, को वायु दक्षिण नासापुट में व्याप्त हो कर चलता है, अतः उसी से वायु ग्रहण करना चाहिए । फिर त्रयोदशी, चतुर्दशी तथा पूर्णमासी को बायें नासिका के छिद्र से वायु ग्रहण करना चाहिए । अब कृष्णपक्ष में चलने वाले वायु का फल कहती हूँ, जिसे जान कर साधक अमर हो जाता है तथा काल का ज्ञानी हो जाता है, इसमें विचार की आवश्यकता नहीं ॥११ – १३॥
प्रतिपद्द्वितीयामस्य तृतीयामपि तस्य च ।
पिङुलायां समावाप्य वायर्निःसरते सदा ॥१४॥
चतुर्थी पञ्चमीं षष्ठीं वामे व्याप्य प्रतिष्ठति ।
सप्तमीमष्टमीं वायुर्नवमीं दक्षिणे ततः ॥१५॥
कृष्णपक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया तथा तृतीया तक पिङ्गला में व्याप्त हो कर वायु निकलता रहता है । फिर कृष्णपक्ष के चतुर्थी, पञ्चमी तथा षष्ठी, तिथि को बायें नासिका के छिद्र से वायु संचरण होता है, इसके बाद सप्तमी, अष्टमी, नवमी, तिथि पर्यन्त दक्षिण नासिका से वायु सञ्चार होता है ॥१४ – १५॥
दशम्येकादशीं वायुर्व्याप्य भ्रमति सर्वदा ।
वामे च दक्षिणेऽन्यानि तिथ्यादीनि सदानिशम् ॥१६॥
यदा एतद्व्यस्तभावं समाप्नोति नरोत्तमः ।
तदैव मरणं रोगं बन्धुनाशं त्रिपक्षके ॥१७॥
इसके बाद दशमी, एकादशी पर्यन्त वायु सर्वदा वामनासापुट से चलता है अन्य तिथियों में सर्वदा दक्षिण नासापुट से वायु प्रवाहित होती है । जब मनुष्य इससे विपरीत वायु का सञ्चार प्राप्त करता है तब उस विपक्ष की अवस्था में उसे मरण रोग तथा बन्धुनाश प्राप्त होता है ॥१६ – १७॥
भिन्नजन्मतिथिं ज्ञात्वा काले विरोधयेत् ।
आरभ्य जन्मनाशाय प्राणायाम समाचरेत् ॥१८॥
यदा प्रत्यय भावेन देहं त्यक्त्वा प्रयच्छति ।
तदा निरुध्य श्वसनं कालग्नौ धारयेदधः ॥१९॥
इस लक्षण को देखकर अपनी जन्म तिथि से भिन्न तिथि में उसे रोकने का प्रयत्न करे और जन्म नाश के लिए प्राणायाम करने का प्रयत्न करे । जब मरण का ज्ञान निश्चित हो जाय और देह त्याग कर जाने की बारी आ जाय तब अपनी श्वास रोक कर कालाग्नि में नीचे वायु धारण करें ॥१८ – १९॥
यावत् स्वस्थानमायाति तावत्काल समभ्यसेत् ।
यावन्न चलते देहं यावन्न चलते मनः ॥२०॥
क्रमादभ्यसतः पुंसा देहे स्वेदोद्गमोऽधमः ।
मध्यमं कम्पसंयुक्तो भूमित्यागः परस्य तु ॥२१॥
षण्मासाद्भूतदर्शी स्यात् दूरश्रवणमेव च ।
संवत्सराभ्यासयोगात् योगविद्याप्रकाशकृत ॥२२॥
जब तक वायु अपने स्थान पर न आ जाय तब तक इस क्रिया का अभ्यास करे, जिससे देह चलायमान न हो और न तो मन ही चञ्चल हो । प्राणायाम के धीरे धीरे अभ्यास करने से पुरुष के देह में स्वेद का उद्गम होने लगता है- यह अधम प्राणायाम है । इसके बाद जब शरीर में कम्पन होने लगे तो मध्यम प्राणायाम होता है । जबकि भूमित्याग कर ऊपर उठने की अवस्था तो उत्तम प्राणायाम का लक्षण है । ६ महीने के अनन्तर उसे समस्त भूत तत्त्वों के दर्शन हो जाते हैं । इतना ही नही वह दूर की भी बात सुनने में समर्थ हो जाता है । इस प्रकार एक संवत्सर के अभ्यास से वह योग विद्या प्रकाश करने लगता है ॥२० – २२॥
योगी जानाति सर्वाणि तन्त्राणि स्वक्रमाणि च ।
यदि दर्शनदृष्टिः स्यात्तदा योगी न संशयः ॥२३॥
प्रत्याहारफलं वक्ष्ये यत्कृत्वा खेचरो भवेत् ।
ईश्वरे भक्तिमाप्नोति धर्मज्ञानी भवेन्नरः ॥२४॥
योगी को सूक्ष्म दर्शन दृष्टि प्राप्त होने लगे तो वह वास्तव में योगी बन जाता है । ऐसा योगी सारे तन्त्रों का तथा अपने क्रमों का जानकार हो जाता है । इस प्राकर प्राणायाम का फल कहा । अब प्रत्याहार का फल कहती हूँ, जिसके करने से साधक खेचर बन जाता है । वह ईश्वर में भक्ति प्राप्त करता है और सारे धर्मों का साक्षात्कार करने लगता है ॥२३ – २४॥
रुद्रयामल तंत्र सप्तविंशः पटलः – प्रत्याहारः
रूद्रयामल तंत्र शास्त्र
उत्तमस्य गुणप्राप्तिर्यावच्छीलमिष्यते ।
तावज्जपेत् सूक्ष्मवायुः प्रत्याहारप्रसिद्धये ॥२५॥
इन्दियाणां विचरतां विषयेषु निवर्तनम् ।
बलादाहरणं तेभ्यः प्रत्याहारो विधीयते ॥२६॥
जब तक अभ्यास करने से उत्तम गुणों की प्राप्ति हो तब तक प्रत्याहार की प्राप्ति के लिए सूक्ष्म वायु धारण करें । विषयों में चलायमान इन्द्रियों को विषयों से हठपूर्वक निवृत्त करना या हटा लेना यही प्रत्याहार का लक्षण है ॥२५ – २६॥
नान्यकर्मसु धर्मेषु शास्त्रधर्मेषु योगिराट् ।
पतितं चित्तमानीय स्थापयेत् पादपङ्कजे ॥ २७ ॥
दुर्निवार्य दृढचित्तं दुरत्ययमसम्मतम् ।
बलादाहरणं तस्य प्रत्याहारो विधीयते ॥ २८ ॥
योगिराज अपने चित्त को अन्य कर्मों में अन्य धर्मों में तथा अन्य शास्त्र धर्मों में न लगावे । किन्तु उसमें आसक्त हुए चित्त को वहाँ से हटाकर भगवती के चरण कमलों में लगावे । यह चित्त बहुत दृढ़ एवं दुर्निवार्य है। इसको रोकना बड़ा कठिन काम है। अपने वश के बाहर है। फिर भी हठपूर्वक उसे विषयों से हटाना प्रत्याहार कहा जाता है ।। २७-२८ ।।
एतत् प्रत्याहारबलात् योगी स्वस्थो भवेद् ध्रुवम् ।
अकस्माद् भावमाप्नोति भावराशिस्थिरो नरः ॥ २९ ॥
भावात् परतरं नास्ति भावाधीनमिदं जगत् ।
भावेन लभ्यते योगं तस्माद्भावं समाश्रयेत् ॥ ३० ॥
इस प्रत्याहार के बल से निश्चित रूप से योगी स्वस्थ हो जाता है उसे अकस्मात् भाव की प्राप्ति होने लगती है । इस प्रकार वह भाव राशि से स्थिर हो जाता है। इस जगत् में भाव से बढ़कर कोई भी श्रेष्ठ पदार्थ नहीं है। यह सारा जगत् भावाधीन है। भाव से ही योग प्राप्त होता है। अतः भाव प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए ।। २९-३० ।।
रुद्रयामल तंत्र पटल २७ – भावमाहात्म्यम्
अथ धारणमावक्ष्ये यत्कृत्वा धैर्यरुपभाक् ।
त्रैलोक्यमुदरे कृत्वा पूर्णः तिष्ठति योगिराट ॥३१॥
अङ्गुष्ठागुल्फजानूरुसीमनि लिङनाभिषु ।
ह्रद्ग्रीवाकण्ठदेशेषु लम्बिकायां तथा नसि ॥३२॥
भ्रूमध्ये मस्तके मूर्ध्नि द्वादशान्ते यथाविधि ।
धारणं प्राणमरुती धारणोति निगद्यते ॥३३॥
सर्वनाडीग्रन्थिदेशे षट्चक्रे देवतालये ।
ब्रह्ममार्गे धारणं धारणोति निगद्यते ॥३४॥
अब धारणा कहती हूँ जिसके करने से साधक धीर हो जाता है । धारणा वाला योगी सारे त्रैलोक्य को अपने उदर में रख कर पूर्णता प्राप्त कर लेता है । १ . अंगूठा, २ . गुल्फ, ३ . जानु, ४ . ऊरु, ५ . अण्डकोश, ६ . लिङ्ग, ७ . नाभि, ८ . हृदय, ९ . ग्रीवा, १० . कण्ठ प्रदेश में, ११ . जिह्वा में एवं १२ . नासिका इन द्वादश स्थानों के बाद मस्तक के भ्रुमध्य में अथवा शिरः प्रदेश में प्राणवायु के धारण करने को धारणा कहा जाता है । अथवा सभी नाडियों के ग्रन्थि स्थल में षटचक्र में जहाँ देवताओं का स्थान है अथवा ब्रह्ममार्ग (सहस्त्रारचक्र) में प्राणवायु को धारण करना ही धारणा कहा जाता है ॥३१ – ३४॥
धारणं मूलदेशे तु कुण्डलीं नासिकातटे ।
प्राणवायोः प्रशमनं धारणोति निगद्यते ॥३५॥
तत्र श्रीचरणाम्भोजमङुले चारुतेजसि ।
भावेन स्थापयेच्चित्तं धारणशक्तिमाप्नुयात् ॥३६॥
अथ ध्यानं प्रवक्ष्यामि यत् कृत्वा सर्वगो भवेत् ।
ध्यानयोगाद् भवेन्मोक्षो मत्कुलागमनिर्गमः ॥३७॥
अथवा मूलाधार में, कुण्डली में तथा नासिका प्रदेश में प्राणवायु को शान्त रखना धारणा कहा जाता है । अथवा अत्यन्त सुन्दर तेज वाले श्री भगवती के मङ्गलदायी चरणाम्भोज में भावपूर्वक चित्त को स्थापित चाहिए, जिससे धारणा शक्ति प्राप्त हो । अब ध्यान कहती हूँ, जिसके करने से साधक सर्वज्ञ हो जाता है । ध्यान योग से साधक को मोक्ष मिलता है और वह मेरे कौलिक आगम का ज्ञाता हो जाता है ॥३५ – ३७॥
समाहितेन मनसा चैतन्यान्तर्वर्तिना ।
आत्मन्यभीष्टदेवाना योगध्यानमिहोच्यते ॥३८॥
श्रीपदाम्भोरुहद्वन्द्वे नखकिञ्जकचित्रिते ।
स्थापयित्वा मनः पद्मं ध्यायेदिष्टगणं महत् ॥३९॥
मन को अत्यन्त समाहित कर अन्तःकरणवर्ती चैतन्य द्वारा अपनी आत्मा में अथवा अभीष्ट देवता में ध्यान करना ही योग ध्यान कहा जाता है । अथवा भगवती महाश्री के नख किञ्जल्क से चित्रित दोनों चरण कमलों में मन रुपी कमल को स्थापित कर इष्टदेवता का ध्यान करना ही ध्यान कहा जाता है ॥३८ – ३९॥
रुद्रयामल तंत्र सत्ताइसवाँ पटल- समाधि
अथ समाधिमहात्म्यं वदामि तत्त्वतः श्रृणु ।
यस्यैव कारणदेव पूर्णयोगी भवेन्नरः ॥४०॥
समत्वभावना नित्यं जीवात्मपरमात्मनोः ।
समाधिना जयी भूयादान्दभैरवेश्वर ॥४१॥
संयोगसिद्धिमात्रेण समाधिस्थ महाजनम् ।
प्रपश्यति महायोगी समाध्यष्टाङलक्षणैः ॥४२॥
हे सदाशिव ! अब समाधि का माहात्म्य तत्त्वतः कहती हूँ, उसे सुनिए जिसके साधन से साधक मनुष्य पूर्णयोगी बन जाता है । जीवात्मा और परमात्मा में नित्य समत्व की भावना ही समाधि है । हे आनन्दभैरवेश्वर ! इस समाधि से साधक विजय प्राप्त करता है । जीवात्मा तथा परमात्मा के संयोग की सिद्धि हो जाने पर महायोगी साधक, समाधि में स्थित महाजन का दर्शन प्राप्त करता है, यह अष्टाङ्ग लक्षण योग के आठवें भेद समाधि का फल कहा गया है ॥४० – ४२॥
एतत्समाधिमाकृत्य योगी योगान्वितो भवेत् ।
अथ चन्द्रे मनः कुर्यात् समारोप्य विभावयेत् ॥४३॥
एतद्ष्टाङसारेण योगयोग्यो भवेन्नरः ।
योगयोगाद् भवेन्मोक्षो मन्त्रसिद्धिरखण्डिता ॥४४॥
योगशास्त्र प्रकारेण सर्वे वै भैरवाः स्मृताः ।
योगशास्त्रात् परं शास्त्रं त्रैलोक्य नापि वर्तते ॥४५॥
इस समाधि के पूर्ण हो जाने पर ही योगी योगान्वित होता है । चन्द्रमा में मन लगाकर योगी उसी का ध्यान करे। इस समाधि रुपयोग के आठवें लक्षण से साधक योग के योग्य हो जाता है । योग से युक्त होने पर मोक्ष की प्राप्त होती है और उसके मन्त्र की सिद्धि कभी खण्डित नहीं होती । योगशास्त्र के विधान के पालन करने से सभी साधक भैरव के समान हो जाते हैं ॥४३ – ४५॥
त्रैलोक्यातीतशास्त्राणि योगाङविविधानि च ।
ज्ञात्वा या पश्यति क्षिप्रं नानाध्यायेन शङ्केर ॥४६॥
ऐसे तो त्रैलोक्य में अतीत काल में कितने शास्त्र बने हुए है, अनेक प्रकार के योगाङ्ग भी बताए गए हैं, किन्तु योग शास्त्र से बढ़कर अन्य कोई दूसरा शास्त्र नहीं है । हे शङ्कर ! योग के अङ्गभूत इन नाना प्रकार के ध्यानों से साधक मेरा दर्शन शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है ॥४५ – ४६॥
रुद्रयामल तंत्र सप्तविंशः पटलः – मंत्रयोगार्थनिर्णयकथनम्
कामादिदोषनाशाय कथितं ज्ञानमुत्तमम् ।
इदानीं श्रॄणु वक्ष्यामि मन्त्रयोगार्थनिर्णयम् ॥४७॥
विश्वं शरीरमाक्लेशं पञ्चभूताश्रयं प्रभो ।
चन्द्रसूर्याग्नितेजोभिः जीवब्रह्मैकरुपकम् ॥४८॥
कामादि दोषों के नाश के लिए हमने यहाँ तक उत्तम योग का ज्ञान (प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि) कहा । अब मन्त्र के योगार्थ निर्णय को सुनिए । हे प्रभोः ! पञ्चभूतों का अश्रयभूत यह सारा शरीर क्लेश से व्याप्त है । इसमें चन्द्रमा, सूर्य एवं अग्नि के तेज से ब्रह्म का अंशभूत जीव निवास करता है ॥४७ – ४८॥
तिस्त्रः कोट्यस्तदर्धेन शरीरे नाड्यो मताः ।
तेषु मुख्या दश प्रोक्तास्तासु तिस्त्रो व्यवस्थिताः ॥४९॥
प्रधाना मेरुदण्डेऽत्र सोमसूर्याग्निरुपिणी ।
नाईत्रयस्वरुपेण योगमाता प्रतिष्ठिता ॥५०॥
इस शरीर में साढ़े तीन करोड़ नाड़ियाँ हैं । उसमें भी दश मुख्य है । उन दशों में भी तीन व्यवस्थित हैं । ये तीन नाड़ियाँ मेरुदण्ड में रहने वाली सोम, सूर्य तथा अग्नि स्वरुपा हैं । इन तीन नाड़ियों के रुप में इस शरीर में योगमाता प्रतिष्ठित हैं ॥४९ – ५०॥
इडा वामे स्थिता नाडी शुक्ला तु चन्द्रपिणी ।
शक्तिरुपा च सा नाडी साक्षादमृतविग्रहा ॥५१॥
दक्षिणे पिङालाख्या तु पुंरुपा सूर्यविग्रहा ।
दाडिमीकुसुमप्रख्या विषाख्या परिकीर्तिता ॥५२॥
मेरुदण्ड के वामभाग में चन्द्ररुपा शुक्लवर्णा इड़ा नाड़ी है जो साक्षात् शक्ति का स्वरुप एवं अमृतमय शरीर वाली है । मेरु के दक्षिण भाग में पिङ्गला नाम की नाड़ी, पुरुष रुप में सूर्य विग्रह स्वरुप से स्थित है, जो अनार के पुष्प के समान लालवर्ण वाली है । इसे विष भी कहा जाता है ॥५१ – ५२॥
मेरुमध्ये स्थिता या तु सुषुम्ना बहुरुपिणी ।
विसर्गाद्बिन्दुपर्यन्तं व्याप्य तिष्ठति तत्त्वतः ॥५३॥
मूलाधारे त्रिकोणाख्ये इच्छाज्ञानक्रियात्मके ।
मध्ये स्वयंभूलिङं तं कोटिसूर्यसमप्रभम् ॥५४॥
मेरु के मध्य में जो स्थित है, उसका नाम सुषुम्ना है जो बहुरुपिणी है और विसर्ग से बिन्दु पर्यन्त तत्त्वतः व्याप्य होकर स्थित है । इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया को उत्पन्न करने वाले त्रिकोणात्मक मूलाधार के मध्य में करोड़ों सूर्य के समान तेजस्वी स्वयम्भू लिङ्ग स्थित हैं ॥५३ – ५४॥
तदूर्ध्व कामबीजं तु कलाशान्तीन्दुनायकम् ।
तदूर्ध्वे तु शिखाकारा कुण्डली ब्रह्मविग्रहा ॥५५॥
तद्बाह्ये हेमवर्णाभं वसुवर्णचतुर्दलम् ।
द्रुतहेमसमप्रख्यं पद्मं तत्र विभावयेत् ॥५६॥
उसके ऊपर कला, शान्ति तथा इन्दु रुप में सर्वश्रेष्ठ कामबीज का निवास है । उसके ऊपर शिखा के आकार वाली ब्रह्मस्वरुपा कुण्डलिनी रहती है । उसके बाहर वाले भाग में सुवर्ण के समान आभा वाला ’व श ष स’ – इन चार वर्णों से युक्त चार पत्तों वाला द्रवीभूत सुर्वण के समान कमल है उसका ध्यान करना चाहिए ॥५५ – ५६॥
तदूर्ध्वेऽग्निसमप्रख्यं षड्दलं हीरकप्रभम् ।
वादिलान्तं तु षड्वर्णसहितं रसपत्रकम् ॥ ५७ ॥
स्वाधिष्ठानाख्यममलं योगिनां हृदयङ्गमम् ।
मूलाधारषट्कानां मूलाधारं प्रकीर्तितम् ॥ ५८ ॥
उसके ऊपर अग्नि के समान प्रदीप्त एवं हीरे के समान प्रदीप्त ६ पत्तों का कमल है। उसमें ‘ब भ म य र ल‘ ये ६ वर्ण हैं। इस प्रकार षड्दलों पर ६ वर्णों वाले कमल का ध्यान करना चाहिए । इसके ऊपर योगियों द्वारा जानने योग्य अत्यन्त निर्मल स्वाधिष्ठान नाम का चक्र है, मूल आधार में रहने वाले ६ चक्रों में मूलाधार नामक चक्र हमने पहले ( बाइसवें पटल में) कह दिया है ।। ५७-५८ ।।
स्वशब्देन परं लिङं स्वाधिष्ठानं स्वलिङकम् ।
तदूर्ध्वे नाभिदेशे तु मणिपुरं महाप्रभम् ॥५९॥
मेघाभं विद्युताभं च बहुतेजोमय्म ततः ।
मणिमदिभन्नतत्पंद्मं मणिपूरं शशिप्रभम् ॥६०॥
स्वाधिष्ठान के स्वशब्द से कहा जाने वाला सर्वश्रेष्ठ स्वाधिष्ठान नामक लिङ्ग ही स्व शब्द का अर्थ है । उसके ऊपर नाभि देश में महाकान्तिमान् मणिपूर नामक चक्र है । मेघ की आभा वाला तथा विद्युत् की आभा वाला अनेक वर्ण के तेजों वाली मणियों से युक्त वह मणिपूर नामक पद्म चन्द्रमा के समान कान्तिमान् है ॥५९ – ६०॥
कथितं सकलं नाथ ह्रदयाब्जं श्रृणु प्रिय ।
दशभिश्च दलैर्युक्तं डादिफान्तक्षरान्वितम् ॥६१॥
शिवेनाधिष्ठितं पद्मं विश्वालोकनकारकम् ।
तदूर्ध्वेऽनाहतं पद्मं ह्रदिस्थं किरणाकुलम् ॥६२॥
वह पदम ’ड ढ ण त थ द ध न प और फ’ इन दश वर्णों वाले दश दलों से युक्त है । हे नाथ ! उसके विषय में सब कुछ कह दिया । अब हृदय पर विराजमान पदम चक्र के बारे में सुनिए । हे नाथ ! उस पदम पर शिव अधिष्ठित हैं, जो चारों ओर अपना प्रकाश विकीर्ण करते रहते हैं । वहाँ पर किरणों से युक्त अनाहत नाम का पद्म है ॥६१ – ६२॥
उद्यदादित्यसङ्काशं कादिठान्ताक्षरान्वितम् ।
दलद्वादशसंयुक्तमीश्वराद्यसमन्वितम् ॥६३॥
तन्मध्ये बाणलिङं तु सूर्यायुतसमप्रभम् ।
शब्दब्रह्ममयं वक्ष्येऽनाहतस्तत्र दृश्यते ॥६४॥
जो उदीयमान सूर्य के समान प्रकाश वाला तथा ’क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट और ठ’ इन द्वादश वर्णों से युक्त द्वादश पत्तों वाला है । उस पद्म के मध्य में हजारों सूर्य के समान आभा वाला बाणलिङ्ग है वह शब्द ब्रह्ममय है और अनाहत रुप में दिखाई पड़ता है ॥६३ – ६४॥
रुद्रयामल तंत्र पटल २७ – हृदयाब्जकथनम्
तेनानाहतपद्माख्यं योगिनां योगसाधनम् ।
आनन्दसदनं तत्तु सिद्धेनाधिष्ठितं परम् ॥६५॥
तदूद्र्ध्वं तु विशुधाख्यं दलषोडशपङ्कजम् ।
वर्णः षोदशभिर्युक्तं धूम्रवर्णं महाप्रभम ॥६६॥
वह अनाहत होने के कारण ’अनाहत पद्म’ नाम से कहा जाता है, जो योगियों के योग का साधन है, आनन्द का सदन है और सिद्धों से अधिष्ठित है । उसके ऊपर विशुद्धाख्य नामक पदम है जिसके दल में १६ पत्ते हैं, वे दल १६ वर्णों से विराजमान हैं । धूम्र के समान उनका वर्ण है तथा महाकान्तिमान् हैं ॥६५ – ६६॥
योगिनामद्तस्थानं सिद्धिवर्णं समभ्यसेत् ।
विशुद्धं तनुते यस्मात् जीवस्य हंसलोकनात् ॥६७॥
विशुद्धं पद्ममाख्यातमाकाशाख्यं महाप्रभम् ।
आज्ञाचक्रं तदूद्र्ध्वे तु अर्थिनाधिष्ठितं परम् ॥६८॥
योगियों के अद्भुत स्थानभूत उन सिद्ध वर्णों का सर्वदा अभ्यास करना चाहिए । हंस का परम प्रकाश होने के कारण वह जीव को विशुद्ध ज्ञान देता है । इसलिए उसे विशुद्ध कहते हैं । वह आकाश के समान निर्मल है और अत्यन्त कन्तिमान् है। उसके ऊपर आज्ञाचक्र है जो अनेक प्रकार के अर्थों से अधिष्ठित है ॥६७ – ६८॥
आज्ञासंक्रमण तत्र गुरोराज्ञेति कीर्तितम् ।
कैलासाख्यं तदूर्ध्वे तु तदूर्ध्वे बोधनं ततः ॥६९॥
एवंविधानि चक्राणि कथितानि तव प्रभो ।
तदूद्धर्वस्थानममलं सहस्त्राराम्बुजं परम् ॥७०॥
वहाँ से आज्ञा का संक्रमण होता है । वह आज्ञा गुरु के द्वारा होती है । ऐसा कहा गया है और उसके ऊपर कैलास है उसके ऊपर ज्ञान का निवास है । हे प्रभो ! इस प्रकार हमने चक्रों के विषय में आपसे कहा । उन सबसे ऊपर अत्यन्त निर्मल सर्वश्रेष्ठ सहस्त्रदल कमल है ॥६९ – ७०॥
रुद्रयामल तंत्र सत्ताइसवाँ पटल- दार्शनिकमतकथन
बिन्दुस्थानं परं ज्ञेयं गणानां मतमाश्रृणु ।
बौद्धा वदन्ति चात्मानमात्मज्ञानी न ईश्वरः ॥७१॥
सर्वं नास्तीति चार्वाका नानकर्मिवर्जिताः ।
वेदनिन्दापराः सर्वे बौद्धाः शून्याभ्वादिनः ॥७२॥
वही सर्वश्रेष्ठ बिन्दु स्थान है, अन्य मतावलम्बियों का मत सुनिए । ज्ञानीजन उसी को आत्मा कहते है और आत्माज्ञानी उसी को ईश्वर कहते हैं । नाना कर्म न करने वाले मात्र शरीरवादी चार्वाक ’कुछ भी नहीं है’ ऐसा कहते हैं । वेद की निन्दा करने वाले सभी बौद्ध शून्य वादी हैं । वे किसी की सत्ता नहीं मानते ॥७१ – ७२॥
मम ज्ञानाश्रिताः कान्ताश्चीनभूमिनिवासिनः ।
आत्मानमपरिच्छिन्न विभाव्य भाव्यते मया ॥७३॥
श्रीपदाब्जे बिन्दुयुग्मं नखेन्दुमण्डलं शुभम् ।
शिवस्थानं प्रवदन्ति शैवाः शाक्ता महर्षयः ॥७४॥
ये बौद्ध चीनभूमि में निवास करने वाले मेरे ज्ञानाश्रित होने के कारण मुझे प्रिय हैं । मैं तो अपने को अपरिच्छिन्न समझकर उस बिन्दु स्थान का ध्यान करती हूँ । भगवती महाश्री के चरण कमलों में नखेन्दु मण्डल के रुप में उन दो बिन्दुयों को शैव, शाक्त तथा महर्षिगण शिव का स्थान देते हैं ॥७३ – ७४॥
परमं पुरुषं नित्यं वैष्णवाः प्रीतिकारकाः ।
हरिहरात्मकं रुपं संवदन्ति परे जनाः ॥७५॥
देव्याः पदं नित्यरुपाश्चरनानन्दनिर्भराः ।
वदन्ति मुनयो मुख्याः पुरुषं प्रकृतात्मकम् ॥७६॥
पुंप्रकृत्याख्यभावेन मग्ना भान्ति महीतले ।
इति ते कथितं नाथ मन्त्रयोगमनुत्तमम् ॥७७॥
सबसे प्रेम करने वाले वैष्णव उस बिन्दु मण्डल को परम पुरुष के रुप में मानते हैं । अन्य जन उन दोनों बिन्दुमण्डलों को हरिहरात्मक रुप में मानते हैं । भगवती के चरणानन्द में निर्भर भक्त उस बिन्दु को देवी का साक्षात् पद मानते हैं । मुख्य मुख्य मुनिगण उसे प्रकृत्यात्मक पुरुष मानते हैं । इस पृथ्वीतल में प्रायः सभी उस बिन्दु को प्रकृत्यात्माक भाव से मान कर उसी में निमग्न हैं । हे नाथ ! इस प्रकार हमने सर्वश्रेष्ठ मन्त्रयोग कहा ॥७५ – ७७॥
योगमार्गानुसारेण भावयेत् सुसमाहितः ।
आदौ महापूरकेण मूले संयोजयेन्मनः ॥७८॥
गुदमेढ्रान्तरे शक्तिं तामाकुञ्च्य प्रबुद्धयेत् ।
लिङभेदक्रमेणैव प्रापयेद्बिन्दुचक्रकम् ॥७९॥
शम्भुलाभां परां शक्तिमेकीभावैर्विचिन्तयेत् ।
तत्रोत्थितामृतरसं द्रुतलाक्षारासोपमम् ॥८०॥
पाययित्वा परां शक्तिं कृष्णाख्यां योगसिद्धिदाम् ।
षट्चक्रभेदकस्तत्र सन्तर्प्यामृतधारया ॥८१॥
योग मार्ग के अनुसार साधक समाहित चित्त से उस बिन्दु का ध्यान करे । सर्वप्रथम महापूरक के द्वारा मूलाधार में अपने मन को लगावे । गुदा और मेढ़ के मध्य में रहने वाली शक्ति को संकुचित कर जागृत करे । इस प्रकार तत्तच्चिन्हों का भेदन कर उसे सहस्त्रार स्थित बिन्दु चक्र में ले जावे । वहाँ से उस पर शक्ति का शिव के साथ एकीभाव के रुप में ध्यान करे । वहाँ से पिघले हुए द्राक्षारस के समान उत्पन्न हुए अमृत रस का उसे पान करावें । इस प्रकार षट्चक्र का भेदन करने वाला साधक अमृत धारा के द्वारा योग में सिद्धि प्रदान करने वाली उस महाकाली शक्ति को तृप्त करावे ॥७८ – ८१॥
आनयेत्तेन मार्गेण मूलाधारं ततः सुधीः ।
एवमभ्यस्यमानस्य अहन्यहनि मारुतम् ॥८२॥
जरामरण्दुःखाद्यैर्मुच्यते भवबन्धनात् ।
तन्त्रोक्तकथिता मन्त्राः सर्वे सिद्धयन्ति नान्यथा ॥८३॥
उसे तृप्त कराने के बाद सुधी साधक पुनः उसी मार्ग से उसे मूलाधार में ले आवे । इस प्रकार प्रतिदिन वायु का अभ्यास करते हुए साधक जरा मरण तथा समस्त दुःखों से छुटकारा पा जाता है और वह संसार बन्धान से मुक्त हो जाता है, किं बहुना तन्त्र शास्त्र में कहे हुए वे सभी मन्त्र उसे सिद्ध हो जाते है, जिसे सिद्ध करने का कोई अन्य उपाय नहीं है ॥८२ – ८३॥
स्वयं सिद्धो भवेत् क्षिप्रं योगे हि योगवल्लभा ।
ये गुणाः सन्ति देवस्य पञ्चकृत्यविधायिनः ॥८४॥
ते गुणाः साधकवरे भवन्त्येव न चान्यथा ।
इति ते कथितं नाथ मन्त्रयोगमनुत्तमम् ॥८५॥
वह स्वयं शीघ्रतापूर्वक सिद्ध हो जाता है, योग में रहने वाली योगवल्लभा उस पर कृपा करती हैं, पञ्चकृत्य विद्यायी सदाशिव देव में जितने गुण हैं वे सभी गुण उस साधक श्रेष्ठ में आ जाते हैं । अन्यथा नहीं । हे नाथ ! इस प्रकार हमने श्रेष्ठ मन्त्र योग कहा ॥८४ – ८५॥
रुद्रयामल तंत्र सप्तविंशः पटलः – ध्यानलक्ष्यनिरूपणम्
इदानीं धारणाख्यञ्चं श्रृणुष्व परमाञ्जनम् ।
दिक्कालद्यनवच्छिन्नं त्वयि चित्तं निधाय च ॥८६॥
मयि वा साधकवरो ध्यात्वा तन्मयतामियात् ।
तन्मयो भवति क्षिप्रं जीवब्रह्यैकयोजनात् ॥८७॥
वैष्णव ध्यान — अब सर्वश्रेष्ठ अञ्जन के समान दृष्टि प्रदान करने वाले धारणा के विषय में सुनिए । देश और काल से सर्वथा अनवच्छिन्न आप शङ्कर में अथवा मुझमें साधक अपना चित्त सन्निविष्ट कर तन्मयता प्राप्त करे । इस प्रकार जीव और ब्रह्म में एकत्व की भावना कर शीघ्र ही तन्मयता प्राप्त करे, इस प्रकार जीव और ब्रह्म में एकत्व की भावना करने से शीघ्र ही तन्मयता प्राप्त हो जाती है ॥८६ – ८७॥
इष्टपादे मति दत्वा नखकिञ्जल्कचित्रिते ।
अथवा मननं चित्तं यदा क्षिप्रं न सिद्ध्यति ॥८८॥
तदावयवयोगेन योगी योगं समभ्यसेत् ।
पादाम्भोजे मनो दद्याद् नखकिञ्जल्कचित्रिते ॥८९॥
अथवा नखकिञ्जल्क से चित्रित अपने इष्टदेव के पाद में मन लगावे तब भी चित्त स्थिर हो जाता है । अथवा मनन करने वाला यह चञ्चल चित्त यदि शीघ्रता से सिद्धक (स्थिर) न हो तो शरीर के अवयवभूत एक-एक अड्कों में योगी योग द्वारा चित्त स्थिर रखे । प्रथम नखकिञ्जलक चित्रित इष्टदेव के चरण कमलों में मन लगावे ॥८८- ८९॥
जङ्कायुग्मे तथाराम कदलीकाण्डमण्डिते ।
ऊरुद्वये मत्तहस्तिकरदण्डसमप्रभे ॥९०॥
गङावर्त्तगभीरे तु नाभौ सिद्धिबिले ततः ।
उदरे वक्षसि तथा हस्ते श्रीवत्सकौस्तुभे ॥९१॥
इसके बाद वाटिका स्थित कदली काण्ड के समान प्रभा वाले दोनों जाँघों में मन लगावे । फिर मदमत्त हाथी के शुण्डाग्रदण्ड के समान दोनों ऊरु में मन को स्थिर करे । इसके बाद सिद्धि के लिए प्रवेश किए जाने वाले बिल के समान गङ्गा के आवर्त के समान गम्भीर नाभि स्थान में मन लगावे । इसके बाद श्रीवत्सकौस्तुभ से विराजमान उदर एवं वक्षःस्थल में, तदनन्तर कर कमल में मन लगावे ॥९० – ९१॥
पूर्णचन्द्रामृतप्रख्ये ललाटे चारुकुण्डले ।
शङ्कचक्रगदाम्भोजदोर्दण्डपरिमण्डिते ॥९२॥
सहस्त्रादित्यसङ्काशे किरीटकुण्डलद्वये ।
स्थानेष्वेषु भजेन्मन्त्री विशुद्धः शुद्धचेतसा ॥९३॥
मनो निवेश्य श्रीकृष्णे वैष्णवो भवति ध्रुवम् ।
इति वैष्णवमाख्यातं ध्यानं सत्त्व्म सुनिर्मलम् ॥९४॥
इसके बाद अमृत से संयुक्त पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान तथा मनोहर कुण्डल से मण्डित ललाट में मन लगावे । फिर शंख, चक्र, गदा और कमल से मण्डित चार भुजाओं से संयुक्त सहस्त्रों सूर्यों के समान देदीप्यमान किरीट एवं दो कुण्डलों से युक्त श्रीकृष्ण परमात्मा में मन लगावे । भगवान् श्रीकृष्ण के इन स्थानों में विशुद्ध चित्त से मन को लगाने वाला मन्त्रज्ञ साधक निश्चित रुप से विष्णुभक्त बन जाता है । यहाँ तक हमने सत्त्वगुण से संयुक्त अत्यन्त निर्मल वैष्णव ध्यान का वर्णन किया ॥९२ – ९४॥
विष्णुभक्ताः प्रभजन्ति स्वाधिष्ठानं मनः स्थिराः ।
यावन्मनोलयं याति कृष्णे आत्मनि चिन्तयेत् ॥९५॥
तावत् स्वाधिष्ठानसिद्धिरिति योगार्थनिर्णयः ।
तावज्जपेन्मंनु मन्त्री जपहोमं समभ्यसेत् ॥९६॥
जिनका मन स्थिर है, ऐसे विष्णुभक्त स्वाधिष्ठान चक्र में विष्णु का ध्यान करते हैं । जब तक मन श्रीकृष्ण में लय को न प्राप्त होवे, तब तब तक आत्मा में उक्त प्रकार से श्रीकृष्ण का ध्यान करना चाहिए । तभी स्वाधिष्ठान चक्र की सिद्धि होती है, ऐसा योगशास्त्र का निर्णय है तभी तक मन्त्रज्ञ मन्त्र का जप करे तथा जप और होम का अभ्यास करे ॥९५ – ९६॥
अतः परं न किञ्चिच्च कृत्यमस्ति मनोहरे ।
विदिते परतत्त्वे तु समस्तैर्नियमैरलम् ॥९७॥
अत एव सदा कुर्यात ध्यानं योगं मनुं जपेत् ।
तमः परिवृते गेहे घटो दीपेन दृश्यते ॥९८॥
सिद्धि प्राप्त कर लेने के पश्चात् और कोई कृत्य शेष नहीं रह जाता । क्योंकि मन को हरण करने वाले परतत्त्व परमात्मा का साक्षात्कार हो जाने पर समस्त नियम व्यर्थ ही हैं । इसीलिए सर्वदा ध्यान करे, योग करे, मन्त्र का जप करे, जिस प्रकार अन्धकारपूर्ण घर में रहने वाला घड़ा दीप से दिखाई पड़ता है ॥९७ – ९८॥
एं स यो वृतो ह्यात्मा मनुना गोचरीकृतः ।
इति ते कथितं नाथ मन्त्रयोगमनुत्तमम् ॥९९॥
कृत्वा पापोदभवैर्दुःखैर्मुच्यते नात्र संशयः ।
दुर्लभं विषयासक्तैः सुलभं योगिनमपि ॥१००॥
उसी प्रकार माया से आवृत आत्मा मन्त्र के द्वारा प्रत्यक्ष हो जाती है । हे नाथ ! यहाँ तक हमने सर्वश्रेष्ठ मन्त्र योग कहा । ऐसा करने से साधक पापों से तथा सब प्रकार के दुःखों से छूट जाता है इसमें संशय नहीं । यह ध्यान विषयी लोगों के लिए दुर्लभ है तथा योगियों के लिए सुलभ हैं ॥९९ – १००॥
सुलभं न त्यजेद्व्द्वान् यदि सिद्धिमिहेच्छति ।
ब्रह्मज्ञानं योगध्यानं मन्त्रजाप्यं क्रियादिकम् ॥१०१॥
यः करोति सदा भद्रो वीरभद्रो हि योगिराट् ।
भक्तिं कुर्यात् सदा शम्भोः श्रीविद्यायाः परात्पराम् ॥१०२॥
विद्वान साधक यदि सिद्धि चाहे तो उसे इस सुलभ मार्ग का त्याग नहीं करना चाहिए । जो ब्रह्मज्ञानी ! योग, ध्यान, मन्त्र का जाप तथा अपनी क्रिया करता रहता है वह सदा कल्याणकारी योगिराज वीरभद्र बन जाता है । इसलिए सदैव सदाशिव की भक्ति करनी चाहिए अथवा परात्परा श्रीविद्या की भक्ति करनी चाहिए ॥१०१ – १०२॥
योगसाधनकाले च केवलं भावनादिभिः ।
मननं कीर्त्तनं ध्यानं स्मरणं पादसेवनम् ॥१०३॥
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ।
एतद्भक्तिप्रसादेन जीवन्मुक्तस्तु साधकः ॥१०४॥
योगिनां वल्लभो भूत्वा समाधिस्थो भवेद्यतिः ॥१०५॥
योगसाधन काल में केवल भावनादि से ही भाक्ति करे । मनन, कीर्तन, ध्यान, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य तथा आत्मनिवेदन उक्त प्रकार वाली भक्ति के सिद्ध हो जाने पर साधक जीवन्मुक्त हो जाता है और योगियों का वल्लभ हो कर समाधि में स्थित (प्रज्ञ) योगी बन जाता है ॥१०३ – १०५॥
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने भावार्थनिर्णये पाशवकल्पे षट्चक्रसारसङ्केते सिद्धमन्त्रप्रकरणे भैरवीभैरवसंवादे सप्तविंशः पटलः ॥२७॥
॥ श्रीरुद्रयामल के उत्तरतन्त्र में महातन्त्रोद्दीपन में भावनिर्णय में पाशवकल्प में षट्चक्रसारसङ्केत में सिद्धमन्त्रप्रकरण में भैरवी भैरव संवाद के मध्य सत्ताईसवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीयकृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ २७ ॥