Sant Tulsidas Autobiography | गोस्वामी तुलसीदास का जीवन परिचय : एक हिंदू कवि-संत थे जो हिंदी, भारतीय और विश्व साहित्य में सबसे महान कवियों में गिने जाते थे।
तुलसीदास एक हिंदू कवि-संत थे जो हिंदी, भारतीय और विश्व साहित्य में सबसे महान कवियों में गिने जाते थे। वह भक्ति काल के रामभक्ति शाखा के महान कवि भी थे। वह भगवान राम की भक्ति के लिए मशहूर थे और वे ‘रामचरितमानस’ महाकाव्य के लेखक के रूप में हनुमान चालीसा के रचयिता के रूप में भी जाने जाते थे उन्होनें रामचरित मानस में भगवान राम का जीवन एक मर्यादा की डोर पर बांधा है।
तुलसीदास जी के बारेमें – Tulsidas Information in Hindi
पूरा नाम (Name) | गोस्वामी तुलसीदास |
जन्म (Birthday) | सवंत 1589 |
जन्मस्थान (Birthplace) | राजापुर, बाँदा, उत्तर प्रदेश |
माता (Mother Name) | हुलसी देवी |
पिता (Father Name) | आत्माराम दुबे |
शिक्षा (Education) | बचपन से ही वेद, पुराण एवं उपनिषदों की शिक्षा मिली थी। |
विवाह (Wife Name) | रत्नावली के साथ। |
बच्चे (Son Name) | तारक |
धर्म | हिन्दू धर्म |
प्रसिद्ध | कवि और संत |
गुरु / शिक्षक (Guru) | नरहरिदास |
खिताब/सम्मान (Achievements) | गोस्वामी, अभिनववाल्मीकि, इत्यादि |
साहित्यिक कार्य (Rachnaye) | रामचरितमानस, विनयपत्रिका, दोहावली, कवितावली, हनुमान चालीसा, वैराग्य सन्दीपनी, जानकी मंगल, पार्वती मंगल, इत्यादि |
कथन (Quotes) | सीयराममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥ |
तुलसीदास जी का जीवन परिचय – Tulsidas ki Kahani
Tulsidas – तुलसीदास के जन्म और प्रारंभिक जीवन के आस-पास के विवरण अस्पष्ट हैं। Tulsidas – तुलसीदास के जन्म के वर्ष के बारे में मतभेद है हालांकि कहा जाता हैं की उनका जन्म संवत 1589 में हुआ है। इनके जन्म के सम्बन्ध में नीचे लिखा कहा दोहा प्रसिद्ध है।
तुलसीदास का जीवन
तुलसीदास जी का नाम पूरे जग में उनकी भक्ति के लिए प्रसिद्ध है। हर कोई जानता है कि राम-नाम जपते हुए तुलसीदास जी ने अपने रग-रग में राम जी को बसा लिया था। यदि आपने कभी उनके जन्म की कथा सुनी हो तो आप हैरान रह जाएंगे।
जन्म कथा
कहा जाता है कि तुलसीदास जब पैदा हुए तो रोते हुए पैदा नहीं हुए। यह तो प्रकृति का नियम है, हर बच्चा रोता हुआ जन्म लेता है लेकिन तुलसीदास अलग थे। इतना ही नहीं, पैदा होने के साथ ही उनके मुंह में पुरे के पुरे बत्तीस दांत भी थे।
राम नाम
कुछ बड़ा होने पर उनके मुख से पहला शब्द जो निकला वह था ‘राम’। इसलिए उनके परिवार वालों ने उनका नाम ‘रामबोला’ रख दिया। उनके पिता का नाम था आत्मा राम माता का नाम हुलसी।
रामबेला का विवाह
रामबेला का विवाह रत्नावली (बुद्धिमती) के साथ हुआ जिनसे उन्हें एक पुत्र, तारक की प्राप्ति हुई। कहा जाता है कि रामबेला अपनी पत्नी की ओर बेहद आकर्षित थे। उन्हें अपनी पत्नी के अलावा कभी कुछ और सूझता ही नहीं था। दिन रात बस उसी में खोए रहते थे।
पत्नी ने लिया फैसला
इसी बात से परेशान होकर एक दिन रामबेला की पत्नी उन्हें छोड़ अपने मायके चली गई। वह रामबेला की इन बातों से तंग आ गई थी, वह चाहती थी कि रामबेला जीवन में उन्नति पाने के लिए कुछ करे लेकिन पत्नी के मोह ने तो उन्हें बावला-सा बना दिया था।
छोड़ कर चली गयी
जिस दिन उनकी पत्नी उन्हें छोड़ अपने मायके गई, उसी रात रामबेला भी वहां पहुंच गए। तब उनकी पत्नी ने गुरु के जैसे ऐसे वचन कहे की उनका वैराग्य जाग गया और वे तुरंत श्रीराम की खोज में निकल गए।
उनका वनवास
रामबेला 14 वर्षों के वनवास पर निकल गए, सत्य की खोज में। वे अपने प्रभु श्रीराम को पाना चाहते थे। इसी दौरान रामबेला, तुलसीदास बन गए। 14 वर्ष संघर्ष करने के बाद भी उन्हें ऐसा कोई समाधान प्राप्त नहीं हो रहा था, जिससे वे आपने प्रभु श्रीराम को पा सकें।
राम की खोज में
आखिरकार एक दिन उन्होंने अपने हिम्मत तोड़ डाली। अपनी इस लंबी यात्रा के दौरान उन्होंने जिस जल को इकट्ठा किया था उसे गुस्से में आकर एक पेड़ की जड़ों में फेंक गए। लेकिन उनकी ये हरकत रंग लाई।
गुस्से में किया ये काम
दरअसल जिस पेड़ की जड़ में उन्होंने जल फेंका था उसमें एक आत्मा का वास था, को एक श्राप के कारण वहां फंसी हुई थी। पवित्र जल गिरते ही उसे मुक्ति मिल गई। उसने तुलसीदास का शुक्रिया अदा किया और उनसे उनकी चिंता का कारण पूछा।
निकली एक आत्मा
पूछने पर तुलसीदास ने बताया कि वह श्रीराम की खोज में निकले हैं। लेकिन तमाम प्रयासों के बाद भी वे अभी तक अपने प्रभु के दर्शन पाने में अक्षम साबित हुए हैं। तभी उस मुक्त हो चुकी आत्मा ने उन्हें पास ही स्थित हनुमान जी के एक मंदिर के बारे में बताया।
दिया वरदान
उसने कहा कि उस मंदिर में रोजाना रामायण का पाठ सुनाया जाता है, जिसे सुनने के लिए स्वयं भगवान हनुमान एक कोढ़ी के वेश में वहां आते हैं। तुम वहां जाओ और हनुमान जी को पहचानकर उनके पांव पकड़ लो। वे अवश्य तुम्हें श्रीराम के दर्शन पाने का मार्ग दिखाएंगे।
हनुमान जी मिलेंगे
यह सुन तुलसीदास अगले ही दिन मंदिर गए। मंदिर में पहुंचने के कुछ समय के बाद ही रामायण का पाठ आरंभ हो गया। लेकिन तुलसीदास की नजर मंदिर में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति पर ही टिकी थी। तभी उन्होंने एक भक्तों की भीड़ से थोड़ा अलग बैठे हुए एक कोढ़ी को देखा, जो पाठ में बेहद मगन था।
तुलसीदास ने पहचान राम भक्त हनुमान को
तुलसीदास समझ गए कि हो ना हो ये रामभक्त हनुमान ही हैं, वे फौरन आगे बढ़े और कोढ़ी के वेश में बैठे हनुमान जी के पांव पकड़ लिए। हनुमान जी ने उन्हें अपने असली रूप में आकर दर्शन दिए और कहा कि ‘जल्द ही उनकी भेंट श्री राम जी से होगी’।
फिर इंतजार किया श्रीराम का
इसी आशा में तुलसीदास ने अपनी यात्रा जारी रखी और इस इंतजार में आने वाले दिन काटे कि श्रीरम उन्हें जरूर मिलने आएंगे। और वह दिन करीब ही था जो प्रभु ने उन्हें दर्शन दिए।
तब आये श्रीराम
एक दिन जब चित्रकूट के घाट पर तुलसीदास भगवान श्री राम की प्रतिमा के तिलक के लिए चन्दन कूट रहे थे तब स्वयं श्री राम ने उन्हें दर्शन दिए तथा अपने हाथों से तुलसीदास को तिलक किया। भगवान श्री राम के दर्शन पाकर तुलसी दास प्रसन्न हो गए थे।
फिर लिखी रामायण
कहा जाता है कि श्रीराम के दर्शन पाने के बाद ही तुलसीदास ने रामायण सहित 12 पुस्तकें लिख डाली। यह श्रीराम की ही तुलसीदास पर कृपा थी, जो वे महान ग्रंथों के रचयिता बन सके। लेकिन इससे भी अधिक एक अन्य रोचक वाकया तुलसीदास के जीवन से जुड़ा है।
एक अन्य कहानी
एक समय की बात है, जब तुलसीदास नदी के किनारे स्नान करने को गए तब कुछ चोरों ने उनकी लिखी पुस्तकें चुरा लीं। परन्तु पुस्तकें चुराने के बाद वे चोर जैसे ही तुलसीदास के आश्रम से कुछ ही दूरी पर गए होंगे, तो उन्होंने देखा कि एक सांवले रंग का व्यक्ति, हाथ में धनुष बाण पकड़े उनका पीछा कर रहा है।
वे थे श्रीराम
वे जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए, वह व्यक्ति उनके पीछे ही आता रहा। तमाम कोशिशों के बावजूद भी वे उस व्यक्ति से पीछा ना छुड़ा सके। अंत में उन चोरों ने डर से सभी पुस्तकें तुलसीदास को वापस कर दी और उन्हें भी ये वाकया सुनाया। तब तुलसीदास समझ गए कि वे प्रभु राम ही हैं, जो पल-पल उनकी रक्षा कर रहे हैं।
भगवान श्री राम जी से भेंट
कुछ काल राजापुर रहने के बाद वे पुन: काशी चले गये और वहाँ की जनता को राम-कथा सुनाने लगे। कथा के दौरान उन्हें एक दिन मनुष्य के वेष में एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान जी का पता बतलाया। हनुमान जी से मिलकर तुलसीदास ने उनसे श्रीरघुनाथजी का दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान्जी ने कहा- “तुम्हें चित्रकूट में रघुनाथजी दर्शन होंगें।” इस पर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े।
चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि यकायक मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदास उन्हें देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके। तभी पीछे से हनुमान जी ने आकर जब उन्हें सारा भेद बताया तो वे पश्चाताप करने लगे। इस पर हनुमान जी ने उन्हें सात्वना दी और कहा प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे।
संवत् 1607 की मौनी अमावस्या को बुधवार के दिन उनके सामने भगवान श्री राम जी पुनः प्रकट हुए। उन्होंने बालक रूप में आकर तुलसीदास से कहा-“बाबा! हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं?” हनुमान जी ने सोचा, कहीं वे इस बार भी धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा:
चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर।
तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥
तुलसीदास भगवान श्री राम जी की उस अद्भुत छवि को निहार कर अपने शरीर की सुध-बुध ही भूल गये। अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गये।
संस्कृत में पद्य-रचना
संवत् १६२८ में वह हनुमान जी की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े। उन दिनों प्रयाग में माघ मेला लगा हुआ था। वे वहाँ कुछ दिन के लिये ठहर गये। पर्व के छः दिन बाद एक वटवृक्ष के नीचे उन्हें भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए। वहाँ उस समय वही कथा हो रही थी, जो उन्होने सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी। माघ मेला समाप्त होते ही तुलसीदास जी प्रयाग से पुन: वापस काशी आ गये और वहाँ के प्रह्लादघाट पर एक ब्राह्मण के घर निवास किया। वहीं रहते हुए उनके अन्दर कवित्व-शक्ति का प्रस्फुरण हुआ और वे संस्कृत में पद्य-रचना करने लगे। परन्तु दिन में वे जितने पद्य रचते, रात्रि में वे सब लुप्त हो जाते। यह घटना रोज घटती। आठवें दिन तुलसीदास जी को स्वप्न हुआ। भगवान शंकर ने उन्हें आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो। तुलसीदास जी की नींद उचट गयी। वे उठकर बैठ गये। उसी समय भगवान शिव और पार्वती उनके सामने प्रकट हुए। तुलसीदास जी ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। इस पर प्रसन्न होकर शिव जी ने कहा- “तुम अयोध्या में जाकर रहो और हिन्दी में काव्य-रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी।” इतना कहकर गौरीशंकर अन्तर्धान हो गये। तुलसीदास जी उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर काशी से सीधे अयोध्या चले गये।
रामचरितमानस की रचना
संवत् १६३१ का प्रारम्भ हुआ। दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस दिन प्रातःकाल तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रन्थ सम्पन्न हुआ। संवत् १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।
इसके बाद भगवान की आज्ञा से तुलसीदास जी काशी चले आये। वहाँ उन्होंने भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया। रात को पुस्तक विश्वनाथ-मन्दिर में रख दी गयी। प्रात:काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो पुस्तक पर लिखा हुआ पाया गया-सत्यं शिवं सुन्दरम् जिसके नीचे भगवान शंकर की सही (पुष्टि) थी। उस समय वहाँ उपस्थित लोगों ने “सत्यं शिवं सुन्दरम्” की आवाज भी कानों से सुनी।
इधर काशी के पण्डितों को जब यह बात पता चली तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे दल बनाकर तुलसीदास जी की निन्दा और उस पुस्तक को नष्ट करने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भी भेजे। चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो युवक धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं। दोनों युवक बड़े ही सुन्दर क्रमश: श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन करते ही चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भगवान के भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया और पुस्तक अपने मित्र टोडरमल (अकबर के नौरत्नों में एक) के यहाँ रखवा दी। इसके बाद उन्होंने अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति से एक दूसरी प्रति लिखी। उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की गयीं और पुस्तक का प्रचार दिनों-दिन बढ़ने लगा।
इधर काशी के पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्री मधुसूदन सरस्वती नाम के महापण्डित को उस पुस्तक को देखकर अपनी सम्मति देने की प्रार्थना की। मधुसूदन सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर अपनी ओर से यह टिप्पणी लिख दी-
आनन्दकानने ह्यास्मिंजंगमस्तुलसीतरुः।
कवितामंजरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥
इसका हिन्दी में अर्थ इस प्रकार है-“काशी के आनन्द-वन में तुलसीदास साक्षात तुलसी का पौधा है। उसकी काव्य-मंजरी बड़ी ही मनोहर है, जिस पर श्रीराम रूपी भँवरा सदा मँडराता रहता है।”
पण्डितों को उनकी इस टिप्पणी पर भी संतोष नहीं हुआ। तब पुस्तक की परीक्षा का एक अन्य उपाय सोचा गया। काशी के विश्वनाथ-मन्दिर में भगवान विश्वनाथ के सामने सबसे ऊपर वेद, उनके नीचे शास्त्र, शास्त्रों के नीचे पुराण और सबके नीचे रामचरितमानस रख दिया गया। प्रातःकाल जब मन्दिर खोला गया तो लोगों ने देखा कि श्रीरामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है। अब तो सभी पण्डित बड़े लज्जित हुए। उन्होंने तुलसीदास जी से क्षमा माँगी और भक्ति-भाव से उनका चरणोदक लिया।
मृत्यु
तुलसीदास जी जब काशी के विख्यात् घाट असीघाट पर रहने लगे तो एक रात कलियुग मूर्त रूप धारण कर उनके पास आया और उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान जी का ध्यान किया। हनुमान जी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा, इसके पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम कृति विनय-पत्रिका लिखी और उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया। श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया।