शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता प्रथम-सृष्टिखण्ड – अध्याय 3 || Shiv Mahapuran Dvitiy Rudra Samhita Pratham Srishti Khanda Adhyay 3

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इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय 02 पढ़ा, अब शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 03 तीसरा अध्याय मायानिर्मित नगर में शीलनिधि की कन्या पर मोहित हुए नारदजी का भगवान् विष्णु से उनका रूप माँगना, भगवान् का अपने रूप के साथ वानरका-सा मुँह देना, कन्या का भगवान् को वरण करना और कुपित हुए नारद का शिवगणों को शाप देना ।

शिवपुराणम्/संहिता २ (रुद्रसंहिता)/खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)/अध्यायः ०३

शिवपुराणम्‎ | संहिता २ (रुद्रसंहिता)‎ | खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)

शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [ प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय 03

ऋषय ऊचुः ।।

सूतसूत महाभाग व्यासशिष्य नमोऽस्तु ते ।।

अद्भुतेयं कथा तात वर्णिता कृपया हि नः ।। १ ।।

ऋषिगण बोले — हे सूत ! हे सूत ! हे महाभाग ! हे व्यासशिष्य ! आपको नमस्कार है । हे तात ! कृपापूर्वक आपने हम सभी को जो कथा सुनायी है, यह निश्चित ही आश्चर्यजनक है ॥ १ ॥

मुनौ गते हरिस्तात किं चकार ततः परम्।।

नारदोपि गतः कुत्र तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ।।२।।

हे तात ! मुनि के चले जाने के पश्चात् भगवान् विष्णु ने क्या किया और नारदजी कहाँ गये ? वह सब आप हमलोगों को बतायें ॥ २ ॥

व्यास उवाच ।।

इत्याकर्ण्य वचस्तेषां सूतः पौराणिकोत्तमः ।।

प्रत्युवाच शिवं स्मृत्वा नानासूतिकरं बुधः।।३।।

व्यासजी बोले — उन ऋषियों की बात सुनकर पौराणिकों में श्रेष्ठ तथा बुद्धिमान् सूतजी नाना प्रकार की सृष्टि करनेवाले शिव का स्मरण करके कहने लगे — ॥ ३ ॥

सूत उवाच ।।

मुनौ यदृच्छया विष्णुर्गते तस्मिन्हि नारदे।।

शिवेच्छया चकाराशु माया मायाविशारदः ।। ४ ।।

सूतजी बोले — [हे महर्षियो !] उन नारदमुनि के इच्छानुसार वहाँ से चले जाने पर भगवान् शिव की इच्छा से मायाविशारद श्रीहरि ने तत्काल अपनी माया प्रकट की ॥ ४ ॥

मुनिमार्गस्य मध्ये तु विरेचे नगरं महत् ।।

शतयोजनविस्तारमद्भुतं सुमनोहरम्।।५।।

उन्होंने मुनि के मार्ग में एक विशाल, सौ योजन विस्तारवाले, अद्भुत तथा अत्यन्त मनोहर नगर की रचना की ॥ ५ ॥

स्वलोकादधिकं रम्यं नानावस्तुविराजितम् ।।

नरनारीविहाराढ्यं चतुर्वर्णाकुलं परम् ।।६।।

भगवान् ने उसे अपने वैकुण्ठलोक से भी अधिक रमणीय बनाया था । नाना प्रकार की वस्तुएँ उस नगर की शोभा बढ़ाती थीं । वहाँ स्त्रियों और पुरुषों के लिये बहुत-से विहारस्थल थे । वह नगर चारों वर्णों के लोगों से युक्त था ॥ ६ ॥

तत्र राजा शीलनिर्धिर्नामैश्वर्यसमन्वितः ।।

सुतास्वयम्वरोद्युक्तो महोत्सवसमन्वितः ।।७।।

चतुर्दिग्भ्यः समायातैस्संयुतं नृपनन्दतैः ।।

नानावेषैस्सुशोभैश्च तत्कन्यावरणोत्सुकैः ।।८।।

वहाँ शीलनिधि नामक ऐश्वर्यशाली राजा राज्य करते थे । वे अपनी पुत्री का स्वयंवर करने के लिये उद्यत थे । अतः उन्होंने महान् उत्सव का आयोजन किया था । उनकी कन्या का वरण करने के लिये उत्सुक हो चारों दिशाओं से बहुत-से राजकुमार आये थे, जो नाना प्रकार की वेशभूषा तथा सुन्दर शोभा से प्रकाशित हो रहे थे । उन राजकुमारों से वह नगर भरा-पूरा दिखायी देता था ॥ ७-८ ॥

एतादृशम्पुरं दृष्ट्वा मोहम्प्राप्तोऽथ नारदः ।।

कौतुकी तन्नृपद्वारं जगाम मदनेधितः ।।९।।

ऐसे राजनगर को देख नारदजी मोहित हो गये । वे कौतुकी कामासक्त नारद राजा शीलनिधि के द्वार पर गये ॥ ९ ॥

आगतं मुनिवर्यं तं दृष्ट्वा शीलनिधिर्नृपः ।।

उपवेश्यार्चयांचक्रे रत्नसिंहासने वरे ।।१०।।

मुनिश्रेष्ठ नारद को आया देखकर राजा शीलनिधि ने उन्हें श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बिठाकर उनका पूजन किया ॥ १० ॥

अथ राजा स्वतनयां नामतश्श्रीमतीं वराम् ।।

समानीय नारदस्य पादयोस्समपातयत् ।।११।।

तत्पश्चात् राजा ने श्रीमती नामक अपनी सुन्दरी कन्या को बुलवाकर उससे नारदजी के चरणों में प्रणाम करवाया ॥ ११ ॥

तत्कन्यां प्रेक्ष्य स मुनिर्नारदः प्राह विस्मितः ।।

केयं राजन्महाभागा कन्या सुरसुतोपमा ।। १२ ।।

उस कन्या को देखकर नारदमुनि चकित हो गये और बोले — हे राजन् ! यह देवकन्या के समान सुन्दरी तथा महाभाग्यशालिनी कन्या कौन है ?॥ १२ ॥

तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राजा प्राह कृतांजलिः ।।

दुहितेयं मम मुने श्रीमती नाम नामतः ।। १३ ।।

उनकी यह बात सुनकर राजा ने हाथ जोड़कर कहा — हे मुने ! यह मेरी पुत्री है, इसका नाम श्रीमती है ॥ १३ ॥

प्रदानसमयं प्राप्ता वरमन्वेषती शुभम् ।।

सा स्वयंवरसंप्राप्ता सर्वलक्षणलक्षिता ।। १४ ।।

अब इसके विवाह का समय आ गया है । यह अपने लिये सुन्दर वर चुनने के निमित्त स्वयंवर में जानेवाली है । इसमें सब प्रकार के शुभ लक्षण लक्षित होते हैं ॥ १४ ॥

अस्या भाग्यं वद मुने सर्वं जातकमादरात्।।

कीदृशं तनयेयं मे वरमाप्स्यति तद्वद ।।१५।।

हे महर्षे ! आप जन्मस्थ जातक ग्रहों के अनुसार इसका सम्पूर्ण भाग्य बतायें और यह मेरी पुत्री कैसा वर प्राप्त करेगी, यह भी कहें’ ॥ १५ ॥

इत्युक्तो मुनिशार्दूलस्तामिच्छुः कामविह्वलः।।

समाभाष्य स राजानं नारदो वाक्यमब्रवीत् ।।१६।।

राजा के इस प्रकार पूछने पर काम से विह्वल हुए मुनिश्रेष्ठ नारद उस कन्या को प्राप्त करने की इच्छा मन में लिये राजा को सम्बोधित करके यह वाक्य बोले — ॥ १६ ॥

सुतेयं तव भूपाल सर्वलक्षणलक्षिता।।

महाभाग्यवती धन्या लक्ष्मीरिव गुणालया ।।१७।।

सर्वेश्वरोऽजितो वीरो गिरीशसदृशो विभुः ।।

अस्याः पतिर्ध्रुवं भावी कामजित्सुरसत्तमः ।।१८।।

‘हे भूपाल ! आपकी यह पुत्री समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न, परम सौभाग्यवती, धन्य और साक्षात् लक्ष्मी की भाँति समस्त गुणों की आगार है । इसका पति निश्चय ही भगवान् शंकर के समान वैभवशाली, सर्वेश्वर, किसी से पराजित न होनेवाला, वीर, कामविजयी तथा सम्पूर्ण देवताओं में श्रेष्ठ होगा’ ॥ १७-१८ ॥

इत्युक्त्वा नृपमामंत्र्य ययौ यादृच्छिको मुनिः।।

बभूव कामविवशश्शिवमाया विमोहितः।।१९।।

ऐसा कहकर राजा से विदा लेकर इच्छानुसार विचरनेवाले नारदमुनि वहाँ से चल दिये । वे काम के वशीभूत हो गये थे । शिव की माया ने उन्हें विशेष मोह में डाल दिया था ॥ १९ ॥

चित्ते विचिन्त्य स मुनिराप्नुयां कथमेनकाम्।।

स्वयंवरे नृपालानामेकं मां वृणुयात्कथम्।।२०।।

वे मुनि मन-ही-मन सोचने लगे कि मैं इस राजकुमारी को कैसे प्राप्त करूँ ! स्वयंवर में आये हुए नरेशों में से सबको छोड़कर यह एकमात्र मेरा ही वरण कैसे करे ! ॥ २० ॥

सौन्दर्यं सर्वनारीणां प्रियं भवति सर्वथा।।

तद्दृष्ट्वैव प्रसन्ना सा स्ववशा नात्र संशयः।।२१।।

विधायेत्थं विष्णुरूपं ग्रहीतुं मुनिसत्तमः ।।

विष्णुलोकं जगामाशु नारदः स्मरविह्वलः।।२२।।

समस्त नारियों को सौन्दर्य सर्वथा प्रिय होता है । सौन्दर्य को देखकर ही वह प्रसन्नतापूर्वक मेरे अधीन हो सकती है, इसमें संशय नहीं है । ऐसा विचारकर काम से विह्वल हुए मुनिवर नारद भगवान् विष्णु का रूप ग्रहण करने के लिये तत्काल उनके लोक में जा पहुँचे ॥ २१-२२ ॥

प्रणिपत्य हृषीकेशं वाक्यमेतदुवाच ह।।

रहसि त्वां प्रवक्ष्यामि स्ववृत्तान्तमशेषतः ।।२३।।

वहाँ भगवान् विष्णु को प्रणाम करके वे यह वचन बोले — [हे भगवन् !] मैं एकान्त में आपसे अपना सारा वृत्तान्त कहूँगा ॥ २३ ॥

तथेत्युक्ते तथा भूते शिवेच्छा कार्यकर्त हि ।।

ब्रूहीत्युक्तवति श्रीशे मुनिराह च केशवम्।।२४।।

तब बहुत अच्छा’ — यह कहकर शिव-इच्छित कर्म करनेवाले लक्ष्मीपति श्रीहरि नारदजी के साथ एकान्त में जा बैठे और बोले — हे मुने ! अब आप अपनी बात कहिये, तब केशव से मुनि नारदजी ने कहा ॥ २४ ॥

नारद उवाच।।

त्वदीयो भूपतिः शीलनिधिस्स वृषतत्परः।।

तस्य कन्या विशालाक्षी श्रीमतीवरवर्णिनी ।।२५।।

नारदजी बोले — हे भगवन ! आपके भक्त जो राजा शीलनिधि हैं, वे सदा धर्मपालन में तत्पर रहते हैं । उनकी एक विशाललोचना कन्या है, जो बहुत ही सुन्दरी है । उसका नाम श्रीमती है ॥ २५ ॥

जगन्मोहिन्यभिख्याता त्रैलोक्येप्यति सुन्दरी ।।

परिणेतुमहं विष्णो तामिच्छाम्यद्य मा चिरम्।।२६।।

वह जगन्मोहिनी के रूप में विख्यात है और तीनों लोकों में सबसे अधिक सुन्दरी है । हे विष्णो ! आज मैं शीघ्र ही उस कन्या से विवाह करना चाहता हूँ ॥ २६ ॥

स्वयंवरं चकरासौ भूपतिस्तनयेच्छया।।

चतुर्दिग्भ्यः समायाता राजपुत्रास्सहस्रशः ।।२७।।

यदि दास्यसि रूपं मे तदा तां प्राप्नुयां ध्रुवम् ।।

त्वद्रूपं सा विना कंठे जयमालां न धास्यति ।।२८।।

राजा शीलनिधि ने अपनी पुत्री की इच्छा से स्वयंवर रचाया है, इसलिये चारों दिशाओं से वहाँ हजारों राजकुमार आये हुए हैं । यदि आप अपना रूप मुझे दे दें, तो मैं उसे निश्चित ही प्राप्त कर लूँगा । आपके रूप के बिना वह मेरे कण्ठ में जयमाला नहीं डालेगी ॥ २७-२८ ॥

स्वरूपं देहि मे नाथ सेवकोऽहं प्रियस्तव ।।

वृणुयान्मां यथा सा वै श्रीमती क्षितिपात्मजा।। २९ ।।

हे नाथ ! मैं आपका प्रिय सेवक हूँ, अतः आप मुझे अपना स्वरूप दे दीजिये, जिससे वह राजकुमारी श्रीमती निश्चय ही मुझे वरण कर ले ॥ २९ ॥

सुत उवाच ।।

वचः श्रुत्वा मुनेरित्थं विहस्य मधुसूदनः ।।

शांकरीं प्रभुतां बुद्ध्वा प्रत्युवाच दयापरः।।३०।।

सूतजी बोले — हे महर्षियो ! नारदमुनि की ऐसी बात सुनकर भगवान् मधुसूदन हँस पड़े और शंकर के प्रभाव का अनुभव करके उन दयालु प्रभु ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया ॥ ३० ॥

विष्णुरुवाच ।।

स्वेष्टदेशं मुने गच्छ करिष्यामि हितं तव।।

भिषग्वरो यथार्त्तस्य यतः प्रियतरोऽसि मे।।३१।।

विष्णु बोले — हे मुने ! आप अपने अभीष्ट स्थान को जाइये, मैं उसी तरह आपका हितसाधन करूँगा, जैसे श्रेष्ठ वैद्य [अत्यन्त] पीड़ित रोगी का हित करता है; क्योंकि आप मुझे विशेष प्रिय हैं ॥ ३१ ॥

इत्युक्त्वा मुनये तस्मै ददौ विष्णुर्मुखं हरे।।

स्वरूपमनुगृह्यास्य तिरोधानं जगाम सः।।३२।।

ऐसा कहकर भगवान् विष्णु ने नारदमुनि को मुख तो वानर का दे दिया और शेष अंगों में अपने-जैसा स्वरूप देकर वे वहाँ से अन्तर्धान हो गये ॥ ३२ ॥

एवमुक्तो मुनिर्हृष्टः स्वरूपं प्राप्य वै हरेः।।

मेने कृतार्थमात्मानं तद्यत्नं न बुबोध सः ।।३३।।

भगवान् की पूर्वोक्त बात सुनकर और उनका मनोहर रूप प्राप्त हो गया-समझकर नारद मुनि को बड़ा हर्ष हुआ । वे अपने को कृतकृत्य मानने लगे, किंतु भगवान् के प्रयत्न को वे समझ न सके ॥ ३३ ॥

अथ तत्र गतः शीघ्रन्नारदो मुनिसत्तमः।।

चक्रे स्वयम्वरं यत्र राजपुत्रैस्समाकुलम् ।। ३४ ।।

तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ नारद शीघ्र ही उस स्थान पर जा पहुँचे, जहाँ राजा शीलनिधि ने राजकुमारों से भरी हुई स्वयंवरसभा का आयोजन किया था ॥ ३४ ॥

स्वयम्वरसभा दिव्या राजपुत्रसमावृता।।

शुशुभेऽतीव विप्रेन्द्रा यथा शक्रस भा परा ।।३५।।

हे विप्रवरो ! राजपुत्रों से घिरी हुई वह दिव्य स्वयंवरसभा दूसरी इन्द्रसभा के समान अत्यन्त शोभा पा रही थी ॥ ३५ ॥

तस्यां नृपसभायां वै नारदः समुपाविशत् ।।

स्थित्वा तत्र विचिन्त्येति प्रीतियुक्तेन चेतसा ।।३६।।

मां वरिष्यति नान्यं सा विष्णुरूपधरन्ध्रुवम् ।।

आननस्य कुरूपत्वं न वेद मुनिसत्तमः ।। ३७ ।।

नारदजी उस राजसभा में जा बैठे और वहाँ बैठकर प्रसन्न मन से बार-बार यही सोचने लगे । मैं भगवान् विष्णु के समान रूप धारण किये हूँ, अतः वह राजकुमारी अवश्य मेरा ही वरण करेगी, दूसरे का नहीं । मुनिश्रेष्ठ नारद को यह ज्ञात नहीं था कि मेरा मुँह कुरूप है ॥ ३६-३७ ॥

पूर्वरूपं मुनिं सर्वे ददृशुऽस्तत्र मानवाः।

तद्भेदं बुबुधुस्ते न राजपुत्रादयो द्विजाः ।। ३८ ।।

हे विप्रो ! उस सभा में बैठे हुए सभी मनुष्यों ने मुनि को उनके पूर्वरूप में ही देखा । राजकुमार आदि कोई भी उनके रूपपरिवर्तन के रहस्य को न जान सके ॥ ३८ ॥

तत्र रुद्रगणौ द्वौ तद्रक्षणार्थं समागतौ ।।

विप्ररूपधरौ गूढौ तत्रेदं जज्ञतुः परम्।।३९।।

मूढ मत्वा मुनिं तौ तन्निकटं जग्मतुर्गणौ ।।

कुरुतस्तत्प्रहासं वै भाषमाणौ परस्परम् ।।४० ।।

वहाँ नारदजी की रक्षा के लिये भगवान् रुद्र के दो गण आये थे, जो ब्राह्मण का रूप धारण करके गूढभाव से वहाँ बैठे थे । वे ही नारदजी के रूपपरिवर्तन के उत्तम भेद को जानते थे । मुनि को कामावेश से मूढ़ हुआ जानकर वे दोनों गण उनके निकट गये और आपस में बातचीत करते हुए उनकी हँसी उड़ाने लगे ॥ ३९-४० ॥

पश्य नारद रूपं हि विष्णोरिव महोत्तमम् ।।

मुखं तु वानरस्येव विकटं च भयंकरम् ।। ४१ ।।

इच्छत्ययं नृपसुता वृथैव स्मरमोहितः ।।

इत्युक्त्वा सच्छलं वाक्यमुपहासं प्रचक्रतुः ।। ४२ ।।

‘देखो, नारद का रूप तो निश्चित ही भगवान् विष्णु के समान श्रेष्ठ है, किंतु मुख वानर के समान विकट और महाभयंकर । काममोहित ये व्यर्थ में ही राजपुत्री को प्राप्त करने की इच्छा कर रहे हैं ।’ इस प्रकार की कपटपूर्ण बातें कहकर वे नारद का उपहास करने लगे ॥ ४१-४२ ॥

न शुश्राव यथार्थं तु तद्वाक्यं स्मरविह्वलः ।।

पर्यैक्षच्छ्रीमतीं तां वै तल्लिप्सुर्मोहितो मुनिः ।। ४३ ।।

मुनि तो काम से विह्वल थे, अतः उन्होंने उनकी यथार्थ बात भी अनसुनी कर दी । वे मोहित हो उस ‘श्रीमती’ को प्राप्त करने की इच्छा से उसके आगमन की प्रतीक्षा करने लगे ॥ ४३ ॥

एतस्मिन्नंतरे भूपकन्या चांतःपुरात्तु सा ।।

स्त्रीभिस्समावृता तत्राजगाम वरवर्णिनी ।। ४४ ।।

मालां हिरण्मयीं रम्यामादाय शुभ क्षणा ।।

तत्र स्वयम्बरे रेजे स्थिता मध्ये रमेव सा ।। ४५ ।।

इसी बीच स्त्रियों से घिरी हुई वह सुन्दरी राजकन्या अन्तःपुर से वहाँ आयी । अपने हाथ में सोने की सुन्दर माला लिये हुए वह शुभलक्षणा राजकुमारी स्वयंवर के मध्यभाग में लक्ष्मी के समान खड़ी हुई अपूर्व शोभा पा रही थी ॥ ४४-४५ ॥

बभ्राम सा सभां सर्वां मालामादाय सुव्रता ।।

वरमन्वेषती तत्र स्वात्माभीष्टं नृपात्मजा ।। ४६ ।।

उत्तम व्रत का पालन करनेवाली वह भूपकन्या हाथ में माला लेकर अपने मन के अनुरूप वर का अन्वेषण करती हुई सारी सभा में भ्रमण करने लगी ॥ ४६ ॥

वानरास्यं विष्णुतनुं मुनिं दृष्ट्वा चुकोप सा ।।

दृष्टिं निवार्य च ततः प्रस्थिता प्रीतमानसा ।। ४७ ।।

नारदमुनि का भगवान् विष्णु के समान शरीर और वानर जैसा मुँह देखकर वह कुपित हो गयी और उनकी ओर से दृष्टि हटाकर प्रसन्न मन से दूसरी ओर चली गयी ॥ ४७ ॥

न दृष्ट्वा स्ववरं तत्र त्रस्तासीन्मनसेप्सितम् ।।

अंतस्सभास्थिता कस्मिन्नर्पयामास न स्रजम् ।। ४८ ।।

स्वयंवरसभा में अपने मनोवांछित वर को न देखकर वह दुःखित हो गयी । राजकुमारी उस सभा के भीतर चुपचाप खड़ी रह गयी और उसने किसी के गले में जयमाला नहीं डाली ॥ ४८ ॥

एतस्मिन्नंतरे विष्णुराजगाम नृपाकृतिः ।।

न दृष्टः कैश्चिदपरैः केवलं सा ददर्श हि ।। ४९ ।।

इतने में राजा के समान वेशभूषा धारण किये हुए भगवान् विष्णु वहाँ आ पहुँचे । किन्हीं दूसरे लोगों ने उनको वहाँ नहीं देखा, केवल उस कन्या ने ही उन्हें देखा ॥ ४९ ॥

अथ सा तं समालोक्य प्रसन्नवदनाम्बुजा ।।

अर्पयामास तत्कण्ठे तां मालां वरवर्णिनी ।। ५० ।।

भगवान् को देखते ही उस परमसुन्दरी राजकुमारी का मुख प्रसन्नता से खिल उठा । उसने तत्काल ही उनके कण्ठ में वह माला पहना दी ॥ ५० ॥

तामादाय ततो विष्णू राजरूपधरः प्रभुः ।।

अंतर्धानमगात्सद्यस्स्वस्थानं प्रययौ किल ।।५१।।

राजा का रूप धारण करनेवाले भगवान् विष्णु उस राजकुमारी को साथ लेकर तुरंत अदृश्य हो गये और अपने धाम में जा पहुँचे ॥ ५१ ॥

सर्वे राजकुमाराश्च निराशाः श्रीमतीम्प्रति।।

मुनिस्तु विह्वलोऽतीव बभूव मदनातुरः।।५२।।

इधर, सब राजकुमार श्रीमती की ओर से निराश हो गये । नारदमुनि तो कामवेदना से आतुर हो रहे थे, इसलिये वे अत्यन्त विह्वल हो उठे ॥ ५२ ॥

तदा तावूचतुस्सद्यो नारदं स्वरविह्वलम् ।।

विप्ररूपधरौ रुद्रगणौ ज्ञानविशारदौ ।।५३।।

तब वे दोनों विप्ररूपधारी ज्ञानविशारद रुद्रगण कामविह्वल नारदजी से कहने लगे — ॥ ५३ ॥

गणावूचतुः ।।

हे नारदमुने त्वं हि वृथा मदनमोहितः ।।

तल्लिप्सुस्स्वमुखं पश्य वानरस्येव गर्हितम्।।५४।।

गण बोले — हे नारद ! हे मुने ! आप व्यर्थ ही काम से मोहित हो रहे हैं और [सौन्दर्य के बल से] राजकुमारी को पाना चाहते हैं । वानर के समान अपना घृणित मुँह तो देख लीजिये ॥ ५४ ॥

सूत उवाच।।

इत्याकर्ण्य तयोर्वाक्यं नारदो विस्मितोऽभवत् ।।

मुखं ददर्श मुकुरे शिवमायाविमोहितः ।।५५।।

सूतजी बोले — हे महर्षियो ! उन रुद्रगणों का यह वचन सुनकर नारदजी को बड़ा विस्मय हुआ । वे शिव की माया से मोहित थे । उन्होंने दर्पण में अपना मुँह देखा ॥ ५५ ॥

स्वमुखं वानरस्येव दृष्ट्वा चुक्रोध सत्वरम्।।

शापन्ददौ तयोस्तत्र गणयोर्मोहितो मुनिः ।।५६।।

युवां ममोपहासं वै चक्रतुर्ब्राह्मणस्य हि।।

भवेतां राक्षसौ विप्रवीर्यजौ वै तदाकृती।।५७।।

वानर के समान अपना मुँह देखकर वे तुरंत ही कुपित हो उठे और माया से मोहित होने के कारण उन दोनों शिवगणों को वहाँ यह शाप दे दिया — तुम दोनों ने मुझ ब्राह्मण का उपहास किया है, अतः तुम दोनों ब्राह्मण के वीर्य से उत्पन्न राक्षस हो जाओ । [ब्राह्मण की सन्तान होने पर भी] तुम्हारे आकार राक्षस के समान ही होंगे ॥ ५६-५७ ॥

श्रुत्वा हरगणावित्थं स्वशापं ज्ञानिसत्तमौ।।

न किंचिदूचतुस्तौ हि मुनिमाज्ञाय मोहितम् ।।५८।।

इस प्रकार अपने लिये शाप सुनकर ज्ञानियों में श्रेष्ठ वे दोनों शिवगण मुनि को मोहित जानकर कुछ नहीं बोले ॥ ५८ ॥

स्वस्थानं जग्मतुर्विप्रा उदासीनौ शिवस्तुतिम्।।

चक्रतुर्मन्यमानौ वै शिवेच्छां सकलां सदा ।।५९।।

इति श्रीशिव महापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथमखंडे सृष्ट्युपाख्याने नारदमोहवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ।। ३ ।।

हे ब्राह्मणो ! वे सदा सब घटनाओं में भगवान् शिव की इच्छा मानते थे, अतः उदासीन भाव से अपने स्थान को चले गये और भगवान् शिव की स्तुति करने लगे ॥ ५९ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के सृष्टिखण्ड में नारदमोहवर्णन नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥

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