शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता प्रथम-सृष्टिखण्ड – अध्याय 6 || Shiv Mahapuran Dvitiy Rudra Samhita Pratham Srishti Khanda Adhyay 6

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इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय 05 पढ़ा, अब शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 06 छठा अध्याय महाप्रलयकाल में केवल सब्रह्म की सत्ता का प्रतिपादन, उस निर्गुण-निराकार ब्रह्म से ईश्वरमूर्ति ( सदाशिव)-का प्राकट्य, सदाशिव द्वारा स्वरूपभूत शक्ति ( अम्बिका)-का प्रकटीकरण, उन दोनों के द्वारा उत्तम क्षेत्र ( काशी या आनन्दवन)-का प्रादुर्भाव, शिव के वामांग से परम पुरुष (विष्णु)-का आविर्भाव तथा उनके सकाश से प्राकृत तत्त्वों की क्रमशः उत्पत्ति का वर्णन।

शिवपुराणम्/संहिता २ (रुद्रसंहिता)/खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)/अध्यायः ०६

शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय 06

शिवपुराणम्‎ | संहिता २ (रुद्रसंहिता)‎ | खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)

।।ब्रह्मोवाच।।

भो ब्रह्मन्साधु पृष्टोऽहं त्वया विबुधसत्तम ।।

लोकोपकारिणा नित्यं लोकानां हितकाम्यया ।। १ ।।

ब्रह्माजी बोले — हे ब्रह्मन् ! हे देवशिरोमणे ! आप सदा समस्त जगत् के उपकार में ही लगे रहते हैं । आपने लोगों के हित की कामना से यह बहुत उत्तम बात पूछी है ॥ १ ॥

यच्छ्रुत्वा सर्वलोकानां सर्वपापक्षयो भवेत् ।।

तदहं ते प्रवक्ष्यामि शिवतत्त्वमनामयम् ।।२।।

जिसके सुनने से सम्पूर्ण लोकों के समस्त पापों का क्षय हो जाता है, उस अनामय शिव-तत्त्व का मैं आपसे वर्णन करता हूँ ॥ २ ॥

शिवतत्त्वं मया नैव विष्णुनापि यथार्थतः ।।

ज्ञातश्च परमं रूपमद्भुतं च परेण न ।।३।।

शिवतत्त्व का स्वरूप बड़ा ही उत्कृष्ट और अद्भुत है, जिसे यथार्थरूप से न मैं जान पाया हूँ, न विष्णु ही जान पाये और न अन्य कोई दूसरा ही जान पाया है ॥ ३ ॥

महाप्रलयकाले च नष्टे स्थावरजंगमे ।।

आसीत्तमोमयं सर्वमनर्कग्रहतारकम् ।।४।।

जिस समय यह प्रलयकाल हुआ, उस समय समस्त चराचर जगत् नष्ट हो गया, सर्वत्र केवल अन्धकार-ही-अन्धकार था । न सूर्य ही दिखायी देते थे और अन्यान्य ग्रहों तथा नक्षत्रों का भी पता नहीं था ॥ ४ ॥

अचन्द्रमनहोरात्रमनग्न्यनिलभूजलम् ।।

अप्रधानं वियच्छून्यमन्यतेजोविवर्जितम् ।।५।।

न चन्द्र था, न दिन होता था, न रात ही थी; अग्नि, पृथ्वी, वायु और जल की भी सत्ता नहीं थी । [उस समय] प्रधान तत्त्व (अव्याकृत प्रकृति)-से रहित सूना आकाशमात्र शेष था, दूसरे किसी तेज की उपलब्धि नहीं होती थी ॥ ५ ॥

अदृष्टत्वादिरहितं शब्दस्पर्शसमुज्झितम् ।।

अव्यक्तगंधरूपं च रसत्यक्तमदिङ्मुखम् ।। ६ ।।

अदृष्ट आदि का भी अस्तित्व नहीं था, शब्द और स्पर्श भी साथ छोड़ चुके थे, गन्ध और रूप की भी अभिव्यक्ति नहीं होती थी । रस का भी अभाव हो गया था और दिशाओं का भी भान नहीं होता था ॥ ६ ॥

इत्थं सत्यंधतमसे सूचीभेद्यं निरंतरे ।।

तत्सद्ब्रह्मेति यच्छ्रुत्वा सदेकं प्रतिपद्यते ।। ७ ।।

इस प्रकार सब ओर निरन्तर सूचीभेद्य घोर अन्धकार फैला हुआ था । उस समय ‘तत्सद्ब्रह्म’-इस श्रुति में जो ‘सत्’ सुना जाता है, एकमात्र वही शेष था ॥ ७ ॥

इतीदृशं यदा नासीद्यत्तत्सदसदात्मकम् ।।

योगिनोंतर्हिताकाशे यत्पश्यंति निरंतरम् ।।८।।

जब ‘यह’, ‘वह’, ‘ऐसा’, ‘जो’ इत्यादि रूप से निर्दिष्ट होनेवाला भावाभावात्मक जगत् नहीं था, उस समय एकमात्र वह ‘सत्’ ही शेष था, जिसे योगीजन अपने हृदयाकाश के भीतर निरन्तर देखते हैं ॥ ८ ॥

अमनोगोचरम्वाचां विषयन्न कदाचन ।।

अनामरूपवर्णं च न च स्थूलं न यत्कृशम्।।९।।

अह्रस्वदीर्घमलघुगुरुत्वपरिवर्जितम् ।।

न यत्रोपचयः कश्चित्तथा नापचयोऽपि च ।। १०।।

वह सत्तत्त्व मन का विषय नहीं है । वाणी की भी वहाँ तक कभी पहुँच नहीं होती । वह नाम तथा रूपरंग से भी शून्य है । वह न स्थूल है, न कृश है, न ह्रस्व है, न दीर्घ है, न लघु है और न गुरु ही है । उसमें न कभी वृद्धि होती है और न ह्रास ही होता है ॥ ९-१० ॥

अभिधत्ते स चकितं यदस्तीति श्रुतिः पुनः ।।

सत्यं ज्ञानमनंतं च परानंदम्परम्महः ।। १ १।।

अप्रमेयमनाधारमविकारमनाकृति ।।

निर्गुणं योगिगम्यञ्च सर्वव्याप्येककारकम् ।।१२।।

निर्विकल्पं निरारंभं निर्मायं निरुपद्रवम् ।।

अद्वितीयमनाद्यन्तमविकाशं चिदात्मकम् ।।१३।।

श्रुति भी उसके विषय में चकितभाव से ‘है’ — इतना ही कहती है [अर्थात् उसकी सत्तामात्र का ही निरूपण कर पाती है, उसका कोई विशेष विवरण देने में असमर्थ हो जाती है]। वह सत्य, ज्ञानस्वरूप, अनन्त, परमानन्दमय, परम ज्योतिःस्वरूप, अप्रमेय, आधाररहित, निर्विकार, निराकार, निर्गुण, योगिगम्य, सर्वव्यापी, सबका एकमात्र कारण, निर्विकल्प, निरारम्भ, मायाशून्य, उपद्रवरहित, अद्वितीय, अनादि, अनन्त, संकोच-विकास से शून्य तथा चिन्मय है ॥ ११-१३ ॥

यस्येत्थं संविकल्पंते संज्ञासंज्ञोक्तितः स्म वै ।।

कियता चैव कालेन द्वितीयेच्छाऽभवत्किल ।। १४ ।।

जिस परब्रह्म के विषय में ज्ञान और अज्ञान से पूर्ण उक्तियों द्वारा इस प्रकार [ऊपर बताये अनुसार] विकल्प किये जाते हैं, उसने कुछ काल के बाद [सृष्टि का समय आने पर] द्वितीय होने की इच्छा प्रकट की — उसके भीतर एक से अनेक होने का संकल्प उदित हुआ ॥ १४ ॥

अमूर्तेन स्वमूर्तिश्च तेनाकल्पि स्वलीलया ।।

सर्वैश्वर्यगुणोपेता सर्वज्ञानमयी शुभा ।। १५ ।।

सर्वगा सर्वरूपा च सर्वदृक्सर्वकारिणी ।।

सर्वेकवंद्या सर्वाद्या सर्वदा सर्वसंस्कृतिः ।। १६ ।।

तब उस निराकार परमात्मा ने अपनी लीलाशक्ति से अपने लिये मूर्ति (आकार)-की कल्पना की । वह मूर्ति सम्पूर्ण ऐश्वर्यगुणों से सम्पन्न, सर्वज्ञानमयी, शुभस्वरूपा, सर्वव्यापिनी, सर्वरूपा, सर्वदर्शिनी, सर्वकारिणी, सबकी एकमात्र वन्दनीया, सर्वाद्या, सब कुछ देनेवाली और सम्पूर्ण संस्कृतियों का केन्द्र थी ॥ १५-१६ ॥

परिकल्येति तां मूर्तिमैश्वरीं शुद्धरूपिणीम् ।।

अद्वितीयमनाद्यंतं सर्वाभासं चिदात्मकम् ।।

अंतर्दधे पराख्यं यद्ब्रह्म सर्वगमव्ययम् ।। १७ ।।

उस शुद्धरूपिणी ईश्वरमूर्ति की कल्पना करके वह अद्वितीय, अनादि, अनन्त, सर्वप्रकाशक, चिन्मय, सर्वव्यापी और अविनाशी परब्रह्म अन्तर्हित हो गया ॥ १७ ॥

अमूर्ते यत्पराख्यं वै तस्य मूर्तिस्सदाशिवः ।।

अर्वाचीनाः पराचीना ईश्वरं तं जगुर्बुधाः ।। ।। १८ ।।

जो मूर्तिरहित परमब्रह्म है, उसी की मूर्ति (चिन्मय आकार) भगवान् सदाशिव हैं । अर्वाचीन और प्राचीन विद्वान् उन्हीं को ईश्वर कहते हैं ॥ १८ ॥

शक्तिस्तदैकलेनापि स्वैरं विहरता तनुः ।।

स्वविग्रहात्स्वयं सृष्टा स्वशरीरानपायिनी ।। १९ ।।

उस समय एकाकी रहकर स्वेच्छानुसार विहार करनेवाले उन सदाशिव ने अपने विग्रह से स्वयं ही एक स्वरूपभूता शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने श्रीअंग से कभी अलग होनेवाली नहीं थी ॥ १९ ॥

प्रधानं प्रकृति तां च मायां गुणवतीं पराम् ।।

बुद्धितत्त्वस्य जननीमाहुर्विकृतिवर्जिताम् ।। २० ।।

उस पराशक्ति को प्रधान, प्रकृति, गुणवती, माया, बुद्धितत्त्व की जननी तथा विकाररहित बताया गया है ॥ २० ॥

सा शक्तिरम्बिका प्रोक्ता प्रकृतिस्सकलेश्वरी।।

त्रिदेवजननी नित्या मूलकारणमित्युत ।। २१ ।।

वह शक्ति अम्बिका कही गयी है । उसीको प्रकृति, सर्वेश्वरी, त्रिदेवजननी, नित्या और मूलकारण भी कहते हैं ॥ २१ ॥

अस्या अष्टौ भुजाश्चासन्विचित्रवदना शुभा ।।

राकाचन्द्रसहस्रस्य वदने भाश्च नित्यशः ।।२२।।

सदाशिव द्वारा प्रकट की गयी उस शक्ति की आठ भुजाएँ हैं । उस [शुभलक्षणा देवी]-के मुख की शोभा विचित्र है । वह अकेली ही अपने मुखमण्डल में सदा पूर्णिमा के एक सहस्र चन्द्रमाओं की कान्ति धारण करती है ॥ २२ ॥

नानाभरणसंयुक्ता नानागतिसमन्विता ।।

नानायुधधरा देवी फुल्लपंकजलोचना ।। २३ ।।

नाना प्रकार के आभूषण उसके श्रीअंगों की शोभा बढ़ाते हैं । वह देवी नाना प्रकार की गतियों से सम्पन्न है और अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण करती है । उसके नेत्र खिले हुए कमल के समान जान पड़ते हैं ॥ २३ ॥

अचिंत्यतेजसा युक्ता सर्वयोनिस्समुद्यता ।।

एकाकिनी यदा माया संयोगाच्चाप्यनेकिका ।। २४ ।।

वह अचिन्त्य तेज से जगमगाती रहती है । वह सबकी योनि है और सदा उद्यमशील रहती है । एकाकिनी होने पर भी वह माया संयोगवशात् अनेक हो जाती है ॥ २४ ॥

परः पुमानीश्वरस्स शिवश्शंभुरनीश्वरः ।।

शीर्षे मन्दाकिनीधारी भालचन्द्रस्त्रिलोचनः ।।२५।।

वे जो सदाशिव हैं, उन्हें परमपुरुष, ईश्वर, शिव, शम्भु और अनीश्वर कहते हैं । वे अपने मस्तक पर आकाश-गंगा को धारण करते हैं । उनके भालदेश में चन्द्रमा शोभा पाते हैं । उनके [पाँच मुख हैं और प्रत्येक मुख में] तीन नेत्र हैं ॥ २५ ॥

पंचवक्त्रः प्रसन्नात्मा दशबाहुस्त्रिशूलधृक् ।।

कर्पूरगौरसुसितो भस्मोद्धूलितविग्रहः ।।२६।।

[पाँच मुख होने के कारण] वे पंचमुख कहलाते हैं । उनका चित्त सदा प्रसन्न रहता है । वे दस भुजाओं से युक्त और त्रिशूलधारी हैं । उनके श्रीअंगों की प्रभा कर्पूर के समान श्वेत-गौर है । वे अपने सारे अंगों में भस्म रमाये रहते हैं ॥ २६ ॥

युगपच्च तया शक्त्या साकं कालस्वरूपिणा ।।

शिवलोकाभिधं क्षेत्रं निर्मितं तेन ब्रह्मणा।। २७ ।।

उन कालरूपी ब्रह्म ने एक ही समय शक्ति के साथ ‘शिवलोक’ नामक क्षेत्र का निर्माण किया था ॥ २७ ॥

तदेव काशिकेत्येतत्प्रोच्यते क्षेत्रमुत्तमम् ।।

परं निर्वाणसंख्यानं सर्वोपरि विराजितम् ।। २८ ।।

उस उत्तम क्षेत्र को ही काशी कहते हैं । वह परम निर्वाण या मोक्ष का स्थान है, जो सबके ऊपर विराजमान है ॥ २८ ॥

ताभ्यां च रममाणाभ्यां च तस्मिन्क्षेत्रे मनोरमे ।।

परमानंदरूपाभ्यां परमानन्दरूपिणी ।।२९।।

ये प्रिया-प्रियतमरूप शक्ति और शिव, जो परमानन्दस्वरूप हैं, उस मनोरम क्षेत्र में नित्य निवास करते हैं । वह [काशीपुरी] परमानन्दरूपिणी है ॥ २९ ॥

मुने प्रलयकालेपि न तत्क्षेत्रं कदाचन ।।

विमुक्तं हि शिवाभ्यां यदविमुक्तं ततो विदुः।।३०।।

हे मुने ! शिव और शिवा ने प्रलयकाल में भी कभी उस क्षेत्र को अपने सांनिध्य से मुक्त नहीं किया है । इसलिये विद्वान् पुरुष उसे ‘अविमुक्त क्षेत्र’ भी कहते हैं ॥ ३० ॥

अस्यानन्दवनं नाम पुराकारि पिनाकिना ।।

क्षेत्रस्यानंदहेतुत्वादविमुक्तमनंतरम्।।३१।।

वह क्षेत्र आनन्द का हेतु है, इसलिये पिनाकधारी शिव ने पहले उसका नाम ‘आनन्दवन’ रखा था । उसके बाद वह ‘अविमुक्त’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥ ३१ ॥

अथानन्दवने तस्मिञ्च्छिवयो रममाणयोः।।

इच्छेत्यभूत्सुरर्षे हि सृज्यः कोप्यपरः किल ।। ३२ ।।

यस्मिन्यस्य महाभारमावां स्वस्वैरचारिणौ ।।

निर्वाणधारणं कुर्वः केवलं काशिशायिनौ ।।३३।।

हे देवर्षे ! एक समय उस आनन्दवन में रमण करते हुए शिवा और शिव के मन में यह इच्छा हुई कि किसी दूसरे पुरुष की भी सृष्टि करनी चाहिये, जिसपर सृष्टि संचालन का महान् भार रखकर हम दोनों केवल काशी में रहकर इच्छानुसार विचरण करें और निर्वाण धारण करें ॥ ३२-३३ ॥

स एव सर्वं कुरुतां स एव परिपातु च ।।

स एव संवृणोत्वं ते मदनुग्रहतस्सदा ।।३४।।

वही पुरुष हमारे अनुग्रह से सदा सबकी सृष्टि करे, वही पालन करे और अन्त में वही सबका संहार भी करे ॥ ३४ ॥

चेतस्समुद्रमाकुंच्य चिंताकल्लोललोलितम् ।।

सत्त्वरत्नं तमोग्राहं रजोविद्रुमवल्लितम् ।।३५।।

यस्य प्रसादात्तिष्ठावस्सुखमानंदकानने।।

परिक्षिप्तमनोवृत्तौ बहिश्चिंतातुरे सुखम् ।।३६।।

यह चित्त एक समुद्र के समान है । इसमें चिन्ता की उत्ताल तरंगें उठ-उठकर इसे चंचल बनाये रहती हैं । इसमें सत्त्वगुणरूपी रत्न, तमोगुणरूपी ग्राह और रजोगुणरूपी मूँगे भरे हुए हैं । इस विशाल चित्त-समुद्र को संकुचित करके हम दोनों उस पुरुष के प्रसाद से आनन्दकानन (काशी)-में सुखपूर्वक निवास करें, [यह आनन्दवन वह स्थान है] जहाँ हमारी मनोवृत्ति सब ओर से सिमटकर इसी में लगी हुई है तथा जिसके बाहर का जगत् चिन्ता से आतुर प्रतीत होता है ॥ ३५-३६ ॥

संप्रधार्य्येति स विभुस्तया शक्त्या परेश्वरः ।।

सव्ये व्यापारयांचक्रे दशमेंऽगेसुधासवम् ।। ३७ ।।

ऐसा निश्चय करके शक्तिसहित सर्वव्यापी परमेश्वर शिव ने अपने वामभाग के दसवें अंग पर अमृत का सिंचन किया ॥ ३७ ॥

ततः पुमानाविरासीदेकस्त्रैलोक्यसुंदरः ।।

शांतस्सत्त्वगुणोद्रिक्तो गांभीर्य्यामितसागरः ।।३८।।

वहाँ उसी समय एक पुरुष प्रकट हुआ, जो तीनों लोकों में सबसे अधिक सुन्दर था । वह शान्त था । उसमें सत्त्वगुण की अधिकता थी तथा वह गम्भीरता का अथाह सागर था ॥ ३८ ॥

तथा च क्षमया युक्तो मुनेऽलब्धोपमो ऽभवत् ।।

इन्द्रनीलद्युतिः श्रीमान्पुण्डरीकोत्तमेक्षणः ।।३९ ।।

मुने ! क्षमा गुण से युक्त उस पुरुष के लिये हूँढ़ने पर भी कहीं कोई उपमा नहीं मिलती थी । उसकी कान्ति इन्द्रनील मणि के समान श्याम थी । उसके अंग-अंग से दिव्य शोभा छिटक रही थी और नेत्र प्रफुल्ल कमल के समान शोभा पा रहे थे ॥ ३९ ॥

सुवर्णकृतिभृच्छ्रेष्ठ दुकूलयुगलावृतः ।।

लसत्प्रचंडदोर्दण्डयुगलोह्यपराजितः ।।४०।।

उसके श्रीअंगों पर सुवर्णसदृश कान्तिवाले दो सुन्दर रेशमी पीताम्बर शोभा दे रहे थे । किसी से भी पराजित न होनेवाला वह वीर पुरुष अपने प्रचण्ड भुजदण्डों से सुशोभित हो रहा था ॥ ४० ॥

ततस्स पुरुषश्शंभुं प्रणम्य परमेश्वरम् ।।

नामानि कुरु मे स्वामिन्वद कर्मं जगाविति ।।४१।।

तदनन्तर उस पुरुष ने परमेश्वर शिव को प्रणाम करके कहा — हे स्वामिन् ! मेरे नाम निश्चित कीजिये और काम बताइये ॥ ४१ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनम्प्राह शंकरः प्रहसन्प्रभुः ।।

पुरुषं तं महेशानो वाचा मेघगभीरया।।४२।।

उस पुरुष की यह बात सुनकर महेश्वर भगवान् शंकर हँसते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी में उससे कहने लगे — ॥ ४२ ॥

शिव उवाच।।

विष्ण्वितिव्यापकत्वात्ते नाम ख्यातं भविष्यति।।

बहून्यन्यानि नामानि भक्तसौख्यकराणि ह ।।४३।।

शिवजी बोले — हे वत्स ! व्यापक होने के कारण तुम्हारा ‘विष्णु’ नाम विख्यात होगा । इसके अतिरिक्त और भी बहुत से नाम होंगे, जो भक्तों को सुख देनेवाले होंगे ॥ ४३ ॥

तपः कुरु दृढो भूत्वा परमं कार्यसाधनम् ।।

इत्युक्त्वा श्वासमार्गेण ददौ च निगमं ततः ।।४४।।

तुम सुस्थिर होकर उत्तम तप करो, क्योंकि वही समस्त कार्यों का साधन है ।’ ऐसा कहकर भगवान् शिव ने श्वासमार्ग से श्रीविष्णु को वेदों का ज्ञान प्रदान किया ॥ ४४ ॥

ततोऽच्युतश्शिवं नत्वा चकार विपुलं तपः ।।

अंतर्द्धानं गतश्शक्त्या सलोकः परमेश्वरः ।।४५।।

तदनन्तर अपनी महिमा से कभी च्युत न होनेवाले श्रीहरि भगवान् शिव को प्रणाम करके बहुत बड़ी तपस्या करने लगे और शक्तिसहित परमेश्वर शिव भी पार्षदगणों के साथ वहाँ से अदृश्य हो गये ॥ ४५ ॥

दिव्यं द्वादश साहस्रं वर्षं तप्त्वापि चाच्युतः ।।

न प्राप स्वाभिलषितं सर्वदं शंभुदर्शनम् ।। ४६ ।।

बारह हजार दिव्य वर्षों तक तपस्या करने के पश्चात् भी विष्णु अपने अभीष्ट फलस्वरूप, सर्वस्व देनेवाले भगवान् शिव का दर्शन प्राप्त न कर सके ॥ ४६ ॥

तत्तत्संशयमापन्नश्चिंतितं हृदि सादरम् ।।

मयाद्य किं प्रकर्तव्यमिति विष्णुश्शिवं स्मरन् ।। ४७ ।।

एतस्मिन्नंतरे वाणी समुत्पन्ना शिवाच्छुभा ।।

तपः पुनः प्रकर्त्तव्यं संशयस्यापनुत्तये ।। ४८ ।।

तब विष्णु को बड़ा सन्देह हुआ । उन्होंने हृदय में शिव का स्मरण करते हुए सोचा कि अब मुझे क्या करना चाहिये । इसी बीच शिव की मंगलमयी [आकाश] वाणी हुई कि सन्देह दूर करने के लिये पुनः तपस्या करनी चाहिये ॥ ४७-४८ ॥

ततस्तेन च तच्छ्रुत्वा तपस्तप्तं सुदारुणम् ।।

बहुकालं तदा ब्रह्मध्यानमार्गपरेण हि ।। ४९ ।।

[शिवकी] उस [वाणी]-को सुनकर विष्णु ने ब्रह्म में ध्यान को अवस्थितकर [पुनः] दीर्घकाल तक अत्यन्त कठिन तपस्या की ॥ ४९ ॥

ततस्स पुरुषो विष्णुः प्रबुद्धो ध्यानमार्गतः ।।

सुप्रीतो विस्मयं प्राप्तः किं यत्तव महा इति ।। ५० ।।

तदनन्तर ब्रह्म की ध्यानावस्था में ही विष्णु को बोध हो आया और वे प्रसन्न होकर यह सोचने लगे कि ‘अरे ! वह महान् तत्त्व है क्या ? ‘॥ ५० ॥

परिश्रमवतस्तस्य विष्णोः स्वाङ्गेभ्य एव च ।।

जलधारा हि संयाता विविधाश्शिवमायया ।।५१।।

उस समय शिव की इच्छा से तपस्या के परिश्रम में निरत विष्णु के अंगों से अनेक प्रकार की जलधाराएँ निकलने लगीं ॥ ५१ ॥

अभिव्याप्तं च सकलं शून्यं यत्तन्महामुने ।।

ब्रह्मरूपं जलमभूत्स्पर्शनात्पापनाशनम् ।। ५२ ।।

हे महामुने ! उस जल से सारा सूना आकाश व्याप्त हो गया । वह ब्रह्मरूप जल अपने स्पर्शमात्र से सब पापों का नाश करनेवाला सिद्ध हुआ ॥ ५२ ॥

तदा श्रांतश्च पुरुषो विष्णुस्तस्मिञ्जले स्वयम् ।।

सुष्वाप परम प्रीतो बहुकालं विमोहितः ।। ५३ ।।

उस समय थके हुए परम पुरुष विष्णु मोहित होकर दीर्घकाल तक बड़ी प्रसन्नता के साथ उसमें सोते रहे ॥ ५३ ॥

नारायणेति नामापि तस्यसीच्छ्रुतिसंमतम् ।।

नान्यत्किंचित्तदा ह्यासीत्प्राकृतं पुरुषं विना।।५४।।

नार अर्थात् जल में शयन करने के कारण ही उनका ‘नारायण’-यह श्रुतिसम्मत नाम प्रसिद्ध हुआ । उस समय उन परम पुरुष नारायण के अतिरिक्त दूसरी कोई प्राकृत वस्तु नहीं थी ॥ ५४ ॥

एतस्मिन्नन्तरे काले तत्त्वान्यासन्महात्मनः ।।

तत्प्रकारं शृणु प्राज्ञ गदतो मे महामते ।। ५५ ।।

उसके बाद ही उन महात्मा नारायणदेव से यथासमय सभी तत्त्व प्रकट हुए । हे महामते ! हे विद्वन् ! मैं उन तत्त्वों की उत्पत्ति का प्रकार बता रहा हूँ, सुनिये ॥ ५५ ॥

प्रकृतेश्च महानासीन्महतश्च गुणास्त्रयः ।।

अहंकारस्ततो जातस्त्रिविधो गुणभेदतः ।। ५६ ।।

तन्मात्राश्च ततो जातः पञ्चभूतानि वै तता ।।

तदैव तानीन्द्रियाणि ज्ञानकर्ममयानि च ।।५७।।

प्रकृति से महत्तत्त्व प्रकट हुआ और महत्तत्त्व से सत्त्वादि तीनों गुण । इन गुणों के भेद से ही त्रिविध अहंकार की उत्पत्ति हुई । अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ हुईं और उन तन्मात्राओं से पाँच भूत प्रकट हुए । उसी समय ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का भी प्रादुर्भाव हुआ ॥ ५६-५७ ॥

तत्त्वानामिति संख्यानमुक्तं ते ऋषिसत्तम ।।

जडात्मकञ्च तत्सर्वं प्रकृतेः पुरुषं विना ।।५८।।

हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार मैंने आपको तत्त्वों की संख्या बतायी है । इनमें से पुरुष को छोड़कर शेष सारे तत्त्व प्रकृति से प्रकट हुए हैं, इसलिये सब-के-सब जड़ हैं ॥ ५८ ॥

तत्तदैकीकृतं तत्त्वं चतुर्विंशतिसंख्यकम्।।

शिवेच्छया गृहीत्वा स सुष्वाप ब्रह्मरूपके ।।५९।।

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां सृष्टिव्याख्यने प्रथमखंडे विष्णूत्पत्तिवर्णनो नाम षष्ठोऽध्यायः ।।६।।

तत्त्वों की संख्या चौबीस है । उस समय एकाकार हुए चौबीस तत्त्वों को ग्रहण करके वे परम पुरुष नारायण भगवान् शिव की इच्छा से ब्रह्मरूप जल में सो गये ॥ ५९ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के प्रथम खण्ड में सृष्टि-उपाख्यान का विष्णु-उत्पत्ति-वर्णन नामक छठा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६ ॥

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