श्रीसीता जी के जीवन चरित्र की आदर्श शिक्षा और कहानी पढ़िए Sita’s biography in hindi. Read the ideal Lesson and Story

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राम की भार्या यानि पत्नी  श्रीसीता क्यूँ इतनी प्रसिद्द है ?  क्यूँ श्रीराम की पत्नी हिन्दू  धर्म में इतनी अधिक लोकप्रिय कैसे हुई??  सीता की जीवनी हिंदी में. और क्यूँ सीता को पवित्रता की देवी का उदहारण दिया जाता है.

श्रीसीता जी के जीवन चरित्र की आदर्श शिक्षा और कहानी पढ़िए  Sita’s biography in hindi.

यह कहना अत्युक्ति नहीं होगा कि अखिल विश्व के स्त्री- चरित्रोंमें श्रीरामप्रिया जगज्जननी जानकीजीका चरित्र सबसे उत्कृष्ट है। रामायणके समस्त स्त्री-चरित्रोंमें तो सीताजीका चरित्र सर्वोत्तम, सर्वथा आदर्श और पद-पदपर अनुकरण करनेयोग्य है ही। भारत-ललनाओंके लिये सीताजीका चरित्र सन्मार्गपर चलनेके लिये पूर्ण मार्गदर्शक है।

सीताजीके असाधारण पातिव्रत्य, त्याग, शील, अभय, शान्ति, क्षमा, सहनशीलता, धर्म- परायणता, नम्रता, सेवा, संयम, सद्व्यवहार, साहस, शौर्य आदि गुण एक साथ जगत्की विरली ही महिलामें मिल सकते हैं। श्रीसीताके पवित्र जीवन और अप्रतिम पातिव्रत्यधर्मके सदृश उदाहरण रामायणमें तो क्या जगत्के किसी भी इतिहासमें मिलने कठिन हैं। आरम्भसे लेकर अन्ततक सीताके जीवनकी सभी बातें – केवल एक प्रसंगको छोड़कर – पवित्र और आदर्श हैं।

ऐसी कोई बात नहीं है, जिससे हमारी माँ-बहिनोंको सत्-शिक्षा न मिले। संसारमें अबतक जितनी स्त्रियाँ हो चुकी हैं, श्रीसीताको पातिव्रत्य-धर्ममें सर्वशिरोमणि कहा जा सकता है। किसी भी ऊँची-से-ऊँची स्त्रीके चरित्रकी सूक्ष्म आलोचना करनेसे ऐसी एक-न-एक बात मिल ही सकती है जो अनुकरणके योग्य न हो, परन्तु सीताका ऐसा कोई भी आचरण नहीं मिलता।

जिस एक प्रसंगको सीताके जीवनमें दोषयुक्त समझा जाता है वह है मायामृगको पकड़नेके लिये श्रीरामके चले जाने और मारीचके मरते समय ‘हा सीते! हा लक्ष्मण!” को पुकार करनेपर सीताजीका घबड़ाकर लक्ष्मणके प्रति यह कहना कि ‘मैं समझती हूँ कि तू मुझे पानेके लिये अपने बड़े भाईकी मृत्यु देखना चाहता है। मेरे लोभसे ही तू अपने भाईकी रक्षा करनेको नहीं जाता।’ इस बर्तावके लिये सीताने आगे चलकर बहुत पश्चात्ताप किया। साधारण स्त्री-चरित्रमें सीताजीका यह बर्ताव कोई विशेष दोषयुक्त नहीं है। स्वामीको संकटमें पड़े हुए समझकर आतुरता और प्रेमकी बाहुल्यतासे सीताजी यहाँ पर नीतिका उल्लंघन कर गयी थीं। श्रीराम-सीताका अवतार मर्यादाकी रक्षाके लिये था, इसीसे सीताजीकी यह एक गलती समझी गयी और इसीलिये सीताजीने पश्चात्ताप किया था।

नैहर में प्रेम-व्यवहार

जनकपुर में पिता के घर सीताजीका सबके साथ बड़े प्रेमका बर्ताव था। छोटे-बड़े सभी स्त्री-पुरुष सीताजीको हृदयसे चाहते थे। सीताजी आरम्भसे ही सलज्जा थीं। लज्जा ही स्त्रियोंका भूषण है। वे प्रतिदिन माता-पिताके चरणोंमें प्रणाम किया करती थीं, घरके नौकर-चाकरतक उनके व्यवहारसे परम प्रसन्न थे। सीताजीके प्रेमके बर्तावका कुछ दिग्दर्शन उस समयके वर्णनसे मिलता है, जिस समय वे ससुरालके लिये विदा हो रही हैं- पुनि धीरजु धरि कुॲरि हँकारीं । बार बार भेटहिं महतारीं ॥ पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी। बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी ॥ पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई ॥

पति-सेवाके लिये प्रेमाग्रह

“प्रेम बिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु । मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु”

“सुक सारिका जानकी ज्याए । कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए ॥ ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही । सुनि धीरजु परिहरइ न केही ॥ भए बिकल खग मृग एहि भाँती । मनुज दसा कैसें कहि जाती ॥ बंधु समेत जनकु तब आए । प्रेम उमगि लोचन जल छाए॥ सीय बिलोकि धीरता भागी । रहे कहावत परम बिरागी ॥ लीन्हि रायँ उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की ॥”

जहाँ ज्ञानियोंके आचार्य जनकके ज्ञानकी मर्यादा मिट जाती है और पिंजरेके पखेरू तथा पशु-पक्षी भी ‘सीता! सीता !!’ पुकारकर व्याकुल हो उठते हैं, वहाँ कितना प्रेम है, इस बातका अनुमान पाठक कर लें ! सीताके इस चरित्रसे स्त्रियोंको यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये कि स्त्रीको नैहरमें छोटे-बड़े सभीके साथ ऐसा बर्ताव करना उचित है जो सभीको प्रिय हो ।

माता-पिताका आज्ञा-पालन

सीता अपने माता-पिताकी आज्ञा-पालन करनेमें कभी नहीं चूकती थी। माता-पितासे उसे जो कुछ शिक्षा मिलती, उसपर वह बड़ा अमल करती थी। मिथिलासे विदा होते समय और चित्रकूटमें सीताजीको माता-पितासे जो कुछ शिक्षा मिली है, वह स्त्रीमात्रके लिये पालनीय है-

“होएहु संतत पियहि पिआरी । चिरु अहिबात असीस हमारी ॥ सासु ससुर गुर सेवा करेहू । पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू ॥” 

पति-सेवाके लिये प्रेमाग्रह श्रीरामको राज्याभिषेकके बदले यकायक वनवास हो गया।

सीताजीने यह समाचार सुनते ही तुरन्त अपना कर्तव्य निश्चय कर लिया। नैहर-ससुराल, गहने-कपड़े, राज्य-परिवार, महल- बाग, दास-दासी और भोग-राग आदिसे कुछ मतलब नहीं। छायाकी तरह पतिके साथ रहना ही पत्नीका एकमात्र कर्तव्य है। इस निश्चयपर आकर सीताने श्रीरामके साथ वनगमनके लिये जैसा कुछ व्यवहार किया है, वह परम उज्ज्वल और अनुकरणीय है। श्रीसीताजीने प्रेमपूर्ण विनय और हठसे वनगमनके लिये पूरी कोशिश की। साम, दाम, नीति- सभी वैध उपायोंका अवलम्बन किया और अन्तमें वह अपने प्रयत्नमें सफल हुईं। उनका ध्येय था किसी भी उपायसे वनमें पतिके साथ रहकर पतिकी सेवा करना। उसीको वह परम धर्म समझती थीं। इसीमें उन्हें परम आनन्दकी प्राप्ति होती थी। वे कहती हैं-

मातु पिता भगिनी प्रिय भाई । प्रिय परिवारु सुहृद समुदाई ॥ सासु ससुर गुर सजन सहाई । सुत सुंदर सुसील सुखदाई ॥ जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते । पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते ॥ तनु धनु धामु धरनि पुर राजू । पति बिहीन सबु सोक समाजू ॥ भोग रोगसम भूषन भारू । जम जातना सरिस संसारू ॥”

वनके नाना क्लेशों और कुटुम्बके साथ रहनेके नाना प्रलोभनोंको सुनकर भी सीता अपने निश्चयपर अडिग रहती हैं। वे पति-सेवाके सामने सब कुछ तुच्छ समझती हैं। “नाथ सकल सुख साथ तुम्हारें। सरद बिमल बिधु बदनु निहारें ॥”

यहाँपर यह सिद्ध होता है कि सीताजीने एक बार प्राप्त हुई पति-आज्ञाको बतलाकर दूसरी बार अपने मनोनुकूल आज्ञा प्राप्त करनेके लिये प्रेमाग्रह किया। यहाँतक कि जब भगवान् पति-सेवाके लिये प्रेमाग्रह श्रीराम किसी प्रकार भी नहीं माने तो हृदय विदीर्ण हो जानेतकका संकेत कर दिया-

“ऐसेउ बचन कठोर सुनि जौं न हृदउ बिलगान । तौ प्रभु बिषम बियोग दुख सहिहहिं पावर प्रान ।।” अध्यात्मरामायणके अनुसार तो श्रीसीताजीने यहाँतक स्पष्ट कह दिया कि- “रामायणानि बहुश: श्रुतानि बहुभिर्द्विजैः ॥ सीतां विना वनं रामो गतः किं कुत्रचिद्वद । अतस्त्वया गमिष्यामि सर्वथा त्वत्सहायिनी ॥ यदि गच्छसि मां त्यक्त्वा प्राणांस्त्यक्ष्यामि तेऽग्रतः ।”

‘मैंने भी ब्राह्मणोंके द्वारा रामायणकी अनेक कथाएँ सुनी हैं। कहीं भी ऐसा कहा गया हो तो बतलाइये कि किसी भी रामावतारमें श्रीराम सीताको अयोध्यामें छोड़कर वन गये हैं। इस बार ही यह नयी बात क्यों होती है ? मैं आपकी सेविका बनकर साथ चलूँगी। यदि किसी तरह भी आप मुझे नहीं ले चलेंगे तो मैं आपके सामने ही प्राण त्याग दूँगी।’ पतिसेवाकी कामनासे सीताने इस प्रकार स्पष्टरूपसे अवतार-विषयक अपनी बड़ाईके शब्द भी कह डाले ।

वाल्मीकिरामायणके अनुसार सीताजीके अनेक रोने, गिड़गिड़ाने, विविध प्रार्थना करने और प्राणत्यागपूर्वक परलोकमें पुनः मिलन होनेका निश्चय बतलानेपर भी जब श्रीराम उन्हें साथ ले जानेको राजी नहीं हुए तब उनको बड़ा दुःख हुआ और वे प्रेमकोपमें आँखोंसे गर्म-गर्म आँसुओंकी धारा बहाती हुई नीतिके नाते इस प्रकार कुछ कठोर वचन भी कह गयीं कि – ‘हे देव !

आप- सरीखे आर्य पुरुष मुझ जैसी अनुरक्त, भक्त, दीन और सुख-दुःखको समान समझनेवाली सहधर्मिणीको अकेली छोड़कर जानेका विचार करें यह आपको शोभा नहीं देता। मेरे पिताने आपको पराक्रमी और मेरी रक्षा करनेमें समर्थ समझकर ही अपना दामाद बनाया था।’ इस कथनसे यह भी सिद्ध होता है कि श्रीराम लड़कपनसे अत्यन्त श्रेष्ठ पराक्रमी समझे जाते थे। इस प्रसंगमें श्रीवाल्मीकिजी और गोस्वामी तुलसीदासजीने सीता-रामके सम्वादमें जो कुछ कहा है सो प्रत्येक स्त्री-पुरुषके ध्यानपूर्वक पढ़ने और मनन करनेयोग्य है।

सीताजीके प्रेमकी विजय हुई, श्रीरामने उन्हें साथ ले चलना स्वीकार किया। इस कथानकसे यह सिद्ध होता है कि पत्नीको पतिसेवाके लिये-अपने सुखके लिये नहीं-पतिकी आज्ञाको दुहरानेका अधिकार है। वह प्रेमसे पति-सुखके लिये ऐसा कर सकती है। सीताने तो यहाँतक कह दिया था ‘यदि आप आज्ञा नहीं देंगे तब भी मैं तो साथ चलूँगी।’ सीताजीके इस प्रेमाग्रहकी आजतक कोई भी निन्दा नहीं करता, क्योंकि सीता केवल पतिप्रेम और पति-सेवाहीके लिये समस्त सुखोंको तिलांजलि देकर वन जानेको तैयार हुई थी, किसी इन्द्रिय-सुखरूप स्वार्थ- साधनके लिये नहीं ! इससे यह नहीं समझना चाहिये कि सीताका व्यवहार अनुचित या पातिव्रत धर्मसे विरुद्ध था । स्त्रीको धर्मके लिये ही ऐसा व्यवहार करनेका अधिकार है। इससे पुरुषोंको भी यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये कि सहधर्मिणी पतिव्रता पत्नीकी बिना इच्छा उसे त्यागकर अन्यत्र चले जाना अनुचित है। इसी प्रकार स्त्रीको भी पति-सेवा और पति-सुखके लिये उसके साथ सास-सेवा ही रहना चाहिये। पतिके विरोध करनेपर भी कष्ट और आपत्तिके समय पति सेवाके लिये स्त्रीको उसके साथ रहना उचित है। अवश्य ही अवस्था देखकर कार्य करना चाहिये। सभी स्थितियोंमें सबके लिये एक-सी व्यवस्था नहीं हो सकती । सीताने भी अपनी साधुताके कारण सभी समय इस अधिकारका उपयोग नहीं किया था।

पति-सेवामें सुख

वनमें जाकर सीता पति-सेवामें सब कुछ भूलकर सब तरह सुखी रहती है ! उसे राज-पाट, महल-बगीचे, धन-दौलत और दास-दासियोंकी कुछ भी स्मृति नहीं होती। रामको वनमें छोड़कर लौटा हुआ सुमन्त सीताके लिये विलाप करती हुई माता कौसल्यासे कहता है- ‘सीता निर्जन वनमें घरकी भाँति निर्भय होकर रहती है, वह श्रीराममें मन लगाकर उनका प्रेम प्राप्त कर रही है। वनवाससे सीताको कुछ भी दुःख नहीं हुआ, मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि (श्रीरामके साथ) सीता वनवासके सर्वथा योग्य है। चन्द्रानना सती सीता जैसे पहले यहाँ बगीचोंमें जाकर खेलती थी, वैसे ही वहाँ निर्जन वनमें भी वह श्रीरामके साथ बालिकाके समान खेलती है। सीताका मन राममें है, उसका जीवन श्रीरामके अधीन है, अ श्रीरामके साथ सीताके लिये वन ही अयोध्या है और श्रीरामके बिना अयोध्या ही वन है।’ धन्य पातिव्रत्य ! धन्य !

सेवा सास-

सीता पति-सेवाके लिये वन गयी; परन्तु उसको इस बातका बड़ा क्षोभ रहा कि सासुओंकी सेवासे उसे अलग होना पड़ रहा है। सीता सासके पैर छूकर सच्चे मनसे रोती हुई कहती है-

“सुनिअ माय मैं परम अभागी ॥ सेवा समय दैअँ बनु दीन्हा। मोर मनोरथु सफल न कीन्हा ॥ तजब छोभु जनि छाड़िअ छोहू । करमु कठिन कछु दोसु न मोहू ।।”

सास-पतोहूका यह व्यवहार आदर्श है। भारतीय ललनाएँ यदि आज कौसल्या और सीताका-सा व्यवहार करना सीख जायँ तो भारतीय गृहस्थ सब प्रकारसे सुखी हो जायँ । सास अपनी बधुओंको सुखी देखनेके लिये व्याकुल रहें और बहुएँ सासकी सेवाके लिये छटपटावें तो दोनों ओर ही सुखका साम्राज्य स्थापित हो सकता है।

सहिष्णुता सीताकी सहिष्णुताका एक उदाहरण देखिये । वनगमनके समय जब कैकेयी सीताको वनवासके योग्य वस्त्र पहननेके लिये कहती है तब वसिष्ठ-सरीखे महर्षिका मन भी क्षुब्ध हो उठता है, परन्तु सीता इस कथनको केवल चुपचाप सुन ही नहीं लेती, आज्ञानुसार वह वस्त्र धारण भी कर लेती है। इस प्रसंगसे भी यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये कि सास या उसके समान नातेमें अपनेसे बड़ी कोई भी स्त्री जो कुछ कहे या बर्ताव करे, उसको खुशीके साथ सहन करना चाहिये और कभी पतिके साथ विदेश जाना पड़े तो सच्चे हृदयसे सासुओंको प्रणाम कर, उन्हें सन्तोष करवाकर सेवासे वंचित होनेके लिये हार्दिक पश्चात्ताप करते हुए जाना चाहिये। इससे बधुओंको सासुओंका आशीर्वाद आप ही प्राप्त होगा।

निरभिमानता

सीता अपने समयमें लोकप्रसिद्ध पतिव्रता थीं, उन्हें कोई गुरुजन-सेवा और मर्यादा पातिव्रत्यका क्या उपदेश करता ? परन्तु सीताको अपने पातिव्रत्यका कोई अभिमान नहीं था। अनसूयाजीके द्वारा किया हुआ पातिव्रत्यधर्मका उपदेश सीता बड़े आदरके साथ सुनती हैं। और उनके चरणों में प्रणाम करती हैं। उनके मनमें यह भाव नहीं आता कि मैं सब कुछ जानती हूँ। बल्कि अनसूयाजी ही उनसे कहती हैं-

सुनु सीता तव नाम सुमिरि नारि पतिब्रत करहिं । तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित ॥”  इससे यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये कि अपनेसे बड़े-बूढ़े जो कुछ उपदेश दें उसे अभिमान छोड़कर आदर और सम्मानके साथ सुनना चाहिये एवं यथासाध्य उसके अनुसार चलना चाहिये।

गुरुजन-सेवा और मर्यादा

बड़ोंकी सेवा और मर्यादामें सीताका मन कितना लगा रहता था, इस बातको समझनेके लिये महाराज जनककी चित्रकूट- यात्राके प्रसंगको याद कीजिये। भरतके वन जानेपर राजा जनक भी रामसे मिलनेके लिये चित्रकूट पहुँचते हैं। सीताकी माता श्रीरामकी माताओंसे – सीताकी सासुओंसे मिलती हैं और सीताको साथ लेकर अपने डेरेपर आती हैं। सीताको तपस्विनीके वेषमें देखकर सबको विषाद होता है, पर महाराज जनक अपनी पुत्रीके इस आचरणपर बड़े ही सन्तुष्ट होते हैं और कहते हैं- “पुत्रि पबित्र किए कुल दोऊ । सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ ॥”

माता-पिता बड़े प्रेमसे हृदयसे लगाकर अनेक प्रकारकी सीख और आसीस देते हैं। बात करते-करते रात अधिक हो जाती है। सीता मनमें सोचती है कि सासुओंकी सेवा छोड़ इस अवस्थामें रातको यहाँ रहना अनुचित है, किन्तु स्वभावसे ही लज्जाशीला सीता संकोचवश मनकी बात माँ-बापसे नहीं सकती- “कहति न सीय सकुचि मन माहीं । इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं ॥”

चतुर माता सीताके मनका भाव जान लेती है और सीताके शील-स्वभावकी मन-ही-मन सराहना करते हुए माता-पिता सीताको कौसल्याके डेरेमें भेज देते हैं। इस प्रसंगसे भी स्त्रियोंको सेवा और मर्यादाकी शिक्षा लेनी चाहिये।

निर्भयता

सीताका तेज और उसकी निर्भयता देखिये। जिस दुर्दान्त रावणका नाम सुनकर देवता भी काँपते थे, उसीको सीता निर्भयताके साथ कैसे-कैसे वचन कहती थी। रावणके हाथोंमें पड़ी हुई सीता अति क्रोधसे उसका तिरस्कार करती हुई कहती है—’अरे दुष्ट निशाचर ! तेरी आयु पूरी हो गयी है, अरे मूर्ख ! तू श्रीरामचन्द्रकी सहधर्मिणीको हरणकर प्रज्वलित अग्निके साथ कपड़ा बाँधकर चलना चाहता है। तुझमें और रामचन्द्रमें उतना ही अन्तर है जितना सिंह और सियारमें, समुद्र और नालेमें, अमृत और काँजीमें, सोने और लोहेमें, चन्दन और कीचड़ में, हाथी और बिलावमें, गरुड़ और कौवेमें तथा हंस और गीधमें होता है। मेरे अमित प्रभाववाले स्वामीके रहते हुए तू मुझे हरण करेगा तो जैसे मक्खी घीके पीते ही मृत्युके वश हो जाती है, वैसे ही तू भी कालके गालमें चला जायगा।’ इससे यह सीखना चाहिये कि परमात्माके बलपर किसी भी अवस्थामें मनुष्यको डरना उचित नहीं । अन्यायका प्रतिवाद निर्भयताके साथ करना

धर्मके लिये प्राण त्यागकी तैयारी चाहिये। परमात्माके बलका सच्चा भरोसा होगा रावणका वध करके सीताको उसके चंगुलसे छुड़ानेकी भाँति भगवान् हमें भी विपत्तिसे छुड़ा लेंगे।

धर्मके लिये प्राण त्यागकी तैयारी

विपत्तिमें पड़कर भी कभी धर्मका त्याग नहीं करना चाहिये । इस विषयमें सीताका उदाहरण सर्वोत्तम है। लंकाकी अशोक- वाटिकामें सीताका धर्म नाश करनेके लिये दुष्ट रावणकी ओर से कम चेष्टाएँ नहीं हुईं। राक्षसियोंने सीताको भय और प्रलोभन दिखलाकर बहुत ही तंग किया, परन्तु सीता तो सीता ही थी । धर्मत्यागका प्रश्न तो वहाँ उठ ही नहीं सकता, सीताने तो छलसे भी अपने बाहरी बर्तावमें भी विपत्तिसे बचनेके हेतु कभी दोष नहीं आने दिया। उसके निर्मल और धर्मसे परिपूर्ण मनमें कभी बुरी स्फुरणा ही नहीं आ सकी। अपने धर्मपर अटल रहती हुई सीता दुष्ट रावणका सदा तीव्र और नीतियुक्त शब्दोंमें तिरस्कार ही करती रही।

एक बार रावणके वाग्बाणोंको न सह सकनेके समय और रावणके द्वारा मायासे श्रीराम-लक्ष्मणको मरे हुए दिखला देनेके कारण वह मरनेको तैयार हो गयीं, परन्तु धर्मसे डिगनेकी भावना स्वप्नमें भी कभी उनके मनमें नहीं उठी। वे दिन-रात भगवान् श्रीरामके चरणोंके ध्यानमें लगी रहती थीं। सीताने श्रीरामको हनुमान्के द्वारा जो सन्देश कहलाया, उससे पता लग सकता है कि उसकी कैसी पवित्र स्थिति थी-

“नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट । लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥”  इससे स्त्रियोंको यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये कि

पतिके वियोग में भीषण आपत्तियाँ आनेपर भी पतिके चरणोंका ध्यान रहे। मनमें भगवान्के बलपर पूरी वीरता, धीरता और तेज रहे। स्वधर्मके पालनमें प्राणोंकी भी आहुति देनेको सदा तैयार रहे। धर्म जाकर प्राण रहनेमें कोई लाभ नहीं, परन्तु प्राण जाकर धर्म रहनेमें ही कल्याण है—‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः ।’

सावधानी

सीताजीकी सावधानी देखिये। जब हनुमान्जी अशोक- वाटिकामें सीताके पास जाते हैं, तब सीता अपने बुद्धि-कौशलसे सब प्रकार उनकी परीक्षा करती है। जबतक उसे यह विश्वास नहीं हो जाता कि हनुमान् वास्तवमें श्रीरामचन्द्रके दूत हैं, शक्तिसम्पन्न हैं और मेरी खोजमें ही यहाँ आये हैं तबतक खुलकर बात नहीं करती है।

दाम्पत्य-प्रेम

जब पूरा विश्वास हो जाता है तब पहले स्वामी और देवरकी कुशल पूछती है, फिर आँसू बहाती हुई करुणापूर्ण शब्दोंमें कहती है— ‘हनुमन् ! रघुनाथजीका चित्त तो बड़ा ही कोमल है। कृपा करना तो उनका स्वभाव ही है। फिर मुझसे वह इतनी निष्ठुरता क्यों कर रहे हैं? वह तो स्वभावसे ही सेवकको सुख देनेवाले हैं, फिर मुझे उन्होंने क्यों बिसार दिया है? क्या श्रीरघुनाथजी कभी मुझे याद भी करते हैं? हे भाई! कभी उस श्यामसुन्दरके कोमल मुखकमलको देखकर मेरी ये आँखें शीतल होंगी ? अहो ! नाथने मुझको बिलकुल भुला दिया!’ इतना कहकर सीता रोने लगी, उसकी वाणी रुक गयी !!

“बचनु न आव नयन भरे बारी । अहह नाथ हौं निपट बिसारी ॥”

पर-पुरुषसे परहेज इसके बाद हनुमानजीने जब श्रीरामका प्रेम-सन्देश सुनाते हुए यह कहा कि माता! श्रीरामका प्रेम तुमसे दुगुना है। उन्होंने कहलवाया है— तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा । जानत प्रिया एकु मनु मोरा ॥ सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं । जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं ॥

‘तब यह सुनकर सीता गद्गद हो जाती हैं। श्रीसीता-रामका परस्पर कैसा आदर्श प्रेम है ! जगत्के स्त्री-पुरुष यदि इस प्रेमको आदर्श बनाकर परस्पर ऐसा ही प्रेम करने लगें तो गृहस्थ सुखमय बन जाय ।

पर-पुरुषसे परहेज

सीताजीने जयन्तकी घटना याद दिलाते हुए कहा कि- ‘हे कपिवर! तू ही बता, मैं इस अवस्थामें कैसे जी सकती हूँ? शत्रुको तपानेवाले श्रीराम-लक्ष्मण समर्थ होनेपर भी मेरी सुधि नहीं लेते, इससे मालूम होता है अभी मेरा दुःखभोग शेष नहीं हुआ है।’ यों कहते-कहते जब सीताके नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बहने लगी, तब हनुमान्ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा कि- ‘माता! कुछ दिन धीरज रखो। शत्रुओंके संहार करनेवाले कृतात्मा श्रीराम और लक्ष्मण थोड़े ही समयमें यहाँ आकर रावणका वध कर तुम्हें अवधपुरीमें ले जायँगे। तुम चिन्ता न करो। यदि तुम्हारी विशेष इच्छा हो और मुझे आज्ञा दो तो मैं भगवान् श्रीरामकी और तुम्हारी दयासे रावणका वध कर और लंकाको नष्टकर तुमको प्रभु श्रीरामचन्द्रके समीप ले जा सकता हूँ। अथवा हे देवि! तुम मेरी पीठपर बैठ जाओ, मैं आकाशमार्गसे होकर महासागरको लाँघ जाऊँगा। यहाँके राक्षस मुझे नहीं पकड़ सकेंगे। मैं शीघ्र ही तुम्हें प्रभु श्रीरामचन्द्रके समीप ले जाऊँगा।’ हनुमान्के वचन सुनकर उनके बल पराक्रमकी परीक्षा लेनेके बाद सीता कहने लगी- ‘हे वानरश्रेष्ठ ! पति- भक्तिका सम्यक् पालन करनेवाली मैं अपने स्वामी श्रीरामचन्द्रको छोड़कर स्वेच्छासे किसी भी अन्य पुरुषके अंगका स्पर्श करना नहीं चाहती-

भर्तुर्भक्तिं पुरस्कृत्य रामादन्यस्य वानर ।

नाहं स्प्रष्टुं स्वतो गात्रमिच्छेयं वानरोत्तम ॥

‘दुष्ट रावणने बलात् हरण करनेके समय मुझको स्पर्श किया था, उस समय तो मैं पराधीन थी, मेरा कुछ भी वश नहीं चलता था। अब तो श्रीराम स्वयं यहाँ आवें और राक्षसोंसहित रावणका वध करके मुझे अपने साथ ले जायँ, तभी उनकी ज्वलन्त कीर्तिकी शोभा है।’

भला विचारिये, हनुमान् – सरीखा सेवक, जो सीताजीको सच्चे हृदयसे मातासे बढ़कर समझता है और सीता-रामकी भक्ति करना ही अपने जीवनका परम ध्येय मानता है, सीता पातिव्रत्यधर्मकी रक्षाके लिये, इतने घोर विपत्तिकालमें अपने स्वामीके पास जानेके लिये भी उसका स्पर्श नहीं करना चाहती। कैसा अद्भुत धर्मका आग्रह है । इससे यह सीखना चाहिये कि भारी आपत्तिके समय भी स्त्रीको यथासाध्य परपुरुषके अंगोंका स्पर्श नहीं करना चाहिये।

वियोगमें व्याकुलता

भगवान् श्रीराममें सीताका कितना प्रेम था और उनसे मिलने के वियोगमें व्याकुलता लिये उसके हृदयमें कितनी अधिक व्याकुलता थी, इस बातका कुछ पता हरणके समयसे लेकर लंका विजयतकके सीताके विविध वचनोंसे लगता है, उस प्रसंगको पढ़ते-पढ़ते ऐसा कौन है जिसका हृदय करुणासे न भर जाय ? परंतु सीताजीकी सच्ची व्याकुलताका सबसे बढ़कर प्रमाण तो यह है कि श्रीरघुनाथजी महाराज उसके लिये विरहव्याकुल स्त्रैण मनुष्यकी भाँति विह्वल होकर उन्मत्तवत् रोते और विलाप करते हुए ऋषिकुमारों, सूर्य, पवन, पशु-पक्षी, जड वृक्ष-लताओंसे सीताका पता पूछते फिरते हैं— आदित्य भो लोककृताकृतज्ञ लोकस्य सत्यानृतकर्मसाक्षिन् । मम प्रिया सा क्व गता हृता वा शंसस्व मे शोकहतस्य सर्वम् ॥ लोकेषु सर्वेषु न नास्ति किञ्चिद्यत्ते न नित्यं विदितं भवेत्तत् । शंसस्व वायो कुलपालिनीं तां मृता हृता वा पथि वर्तते वा ॥

‘लोकोंके कृत्याकृत्यको जाननेवाले हे सूर्यदेव ! तू सत्य और असत्य कर्मोंका साक्षी है। मेरी प्रियाको कोई हर ले गया है या वह कहीं चली गयी है, इस बातको तू भलीभाँति जानता है। अतएव मुझ शोकपीड़ितको सारा हाल बतला । हे वायुदेव ! तीनों लोकोंमें तुझसे कुछ भी छिपा नहीं है, तेरी सर्वत्र गति है। हमारे कुलकी मर्यादाकी रक्षा करनेवाली सीता मर गयी, हरी गयी या कहीं मार्गमें भटक रही है, जो कुछ हो सो यथार्थ कह।’ हा गुन खानि जानकी सीता । रूप सील ब्रत नेम पुनीता ॥

“लछिमन समुझाए बहु भाँती । पूछत चले लता तरु पाँती ॥  हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी । तुम्ह देखी सीता मृगनैनी ॥”

“एहि बिधि खोजत बिलपत स्वामी । मनहुँ महा बिरही अति कामी ॥” इससे यह नहीं समझना चाहिये कि भगवान् श्रीराम ‘महाविरही और अतिकामी’ थे। सीताजीका श्रीरामके प्रति प्रेम था और वह उनके लिये इतनी व्याकुल थीं कि श्रीरामको भी वैसा ही बर्ताव करना पड़ा। भगवान्‌का यह प्रण है—

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।

श्रीरामने ‘महाविरही और अतिकामी’ के सदृश लीलाकर इस सिद्धान्तको चरितार्थ कर दिया। इससे यह शिक्षा लेनी चाहिये कि यदि हम भगवान्‌को पानेके लिये व्याकुल होंगे तो भगवान् भी हमारे लिये वैसे ही व्याकुल होंगे। अतएव हम सबको परमात्माके लिये इसी प्रकार व्याकुल होना चाहिये।

अग्नि परीक्षा

रावणका वध हो गया, प्रभु श्रीरामकी आज्ञासे सीताको स्नान करवाकर और वस्त्राभूषण पहनाकर विभीषण श्रीराम के पास लाते हैं। बहुत दिनोंके बाद प्रिय पति श्रीरघुवीरके पूर्णिमाके चन्द्रसदृश मुखको देखकर सीताका सारा दुःख नाश हो गया और उसका मुख निर्मल चन्द्रमाकी भाँति चमक उठा। परन्तु श्रीरामने यह स्पष्ट कह दिया- ‘मैंने अपने कर्तव्यका पालन किया। रावणका वधकर तुझको दुष्टके चंगुलसे छुड़ाया, परन्तु तू रावणके घरमें रह चुकी है, रावणने तुझको बुरी नजरसे देखा है, अतएव अब मुझे तेरी आवश्यकता नहीं। तू अपने इच्छानुसार चाहे जहाँ चली जा। मैं तुझे ग्रहण नहीं कर सकता।’

“नास्ति मे त्वय्यभिष्वङ्गो यथेष्टं गम्यतामिति ।”

अग्नि परीक्षा श्रीरामके इन अश्रुतपूर्व कठोर और भयंकर वचनों को सुनकर दिव्य सती सीताकी जो कुछ दशा हुई उसका वर्णन नहीं हो सकता। स्वामीके वचन-बाणोंसे सीताके समस्त अंगोंमें भीषण घाव हो गये। वह फूट-फूटकर रोने लगी। फिर करुणाको भी करुणा-सागरमें डुबो देनेवाले शब्दोंमें उसने धीरे-धीरे गद्गद वाणीसे कहा-

‘हे स्वामी ! आप साधारण मनुष्योंकी भाँति मुझे क्यों ऐसे कठोर और अनुचित शब्द कहते हैं? मैं अपने शीलकी शपथ करके कहती हूँ कि आप मुझपर विश्वास रखें। हे प्राणनाथ ! रावणने हरण करनेके समय जब मेरे शरीरका स्पर्श किया था, तब मैं परवश थी। इसमें तो दैवका ही दोष है। यदि आपको यही करना था तो हनुमान्को जब मेरे पास भेजा था तभी मेरा त्याग कर दिये होते तो अबतक मैं अपने प्राण ही छोड़ देती !’ श्रीसीताजीने बहुत-सी बातें कहीं, परन्तु श्रीरामने कोई जवाब नहीं दिया, तब वे दीनता और चिन्तासे भरे हुए लक्ष्मणसे बोलीं- ‘हे सौमित्रे ! ऐसे मिथ्यापवादसे कलंकित होकर मैं जीना नहीं चाहती। मेरे दुःखकी निवृत्तिके लिये तुम यहीं अग्नि- चिता तैयार कर दो।

मेरे प्रिय पतिने मेरे गुणोंसे अप्रसन्न होकर जनसमुदायके मध्य मेरा त्याग किया है, अब मैं अग्निप्रवेश करके इस जीवनका अन्त करना चाहती हूँ।’ वैदेही सीताके वचन सुनकर लक्ष्मणने कोपभरी लाल-लाल आँखोंसे एक बार श्रीरामचन्द्रकी ओर देखा, परन्तु रामकी रुचिके अधीन रहनेवाले लक्ष्मणने आकार और संकेतसे श्रीरामका रुख समझकर उनके इच्छानुसार चिता तैयार कर दी। सीताने प्रज्वलित अग्निके पास जाकर

देवता और ब्राह्मणोंको प्रणामकर दोनों हाथ जोड़कर कहा- “यथा मे हृदयं नित्यं नापसर्पति राघवात् । तथा लोकस्य साक्षी मां सर्वतः पातु पावकः ॥ यथा मां शुद्धचारित्रां दुष्टां जानाति राघवः । तथा लोकस्य साक्षी मां सर्वतः पातु पावकः ॥”

‘हे अग्निदेव ! यदि मेरा मन कभी भी श्रीरामचन्द्रजीसे चलायमान न हुआ हो तो तुम मेरी सब प्रकारसे रक्षा करो। श्रीरघुनाथजी महाराज मुझ शुद्ध चरित्रवाली या दुष्टाको जिस प्रकार यथार्थ जान सकें वैसे ही मेरी सब प्रकारसे रक्षा करो, क्योंकि तुम सब लोकोंके साक्षी हो।’ इतना कहकर अग्निकी प्रदक्षिणा कर सीता निःशंक हृदयसे अग्निमें प्रवेश कर गयीं। सब ओर हाहाकार मच गया। ब्रह्मा, शिव, कुबेर, इन्द्र, यमराज और वरुण आदि देवता आकर श्रीरामको समझाने लगे। ब्रह्माजीने बहुत कुछ रहस्यकी बातें कहीं।

इतनेमें सर्वलोकोंके साक्षी भगवान् अग्निदेव सीताको गोदमें लेकर अकस्मात् प्रकट हो गये और वैदेहीको श्रीरामके प्रति अर्पण करते हुए बोले-

एषा ते राम वैदेही पापमस्यां न विद्यते ॥ नैव वाचा न मनसा नैव बुद्ध्या न चक्षुषा । सुवृत्ता वृत्तशौटीर्यं न त्वामत्यचरच्छुभा॥ रावणेनापनीतैषा वीर्योत्सिक्तेन रक्षसा । त्वया विरहिता दीना विवशा निर्जने सती ॥ क्रुद्धा चान्तःपुरे गुप्ता त्वच्चित्ता त्वत्परायणा ।

अग्नि परीक्षा

रक्षिता राक्षसीभिश्च घोराभिर्घोरबुद्धिभिः ॥ प्रलोभ्यमाना विविधं तर्ज्यमाना च मैथिली । नाचिन्तयत तद्रक्षस्त्वद्गतेनान्तरात्मना ॥ विशुद्धभावां निष्पापां प्रतिगृह्णीष्व मैथिलीम् । न किञ्चिदभिधातव्या अहमाज्ञापयामि ते ॥

‘हे राम ! इस अपनी वैदेही सीताको ग्रहण करो। इसमें कोई भी पाप नहीं है। हे चरित्राभिमानी राम ! इस शुभलक्षणा सीताने वाणी, मन, बुद्धि या नेत्रोंसे कभी तुम्हारा उल्लंघन नहीं किया। निर्जन वनमें जब तुम इसके पास नहीं थे, तब यह बेचारी निरुपाय और विवश थी। इसीसे बलगर्वित रावण इसे बलात् हर ले गया था। यद्यपि इसको अन्तःपुरमें रखा गया था और क्रूर- से-क्रूर स्वभाववाली राक्षसियाँ पहरा देती थीं, अनेक प्रकारके प्रलोभन दिये जाते थे और तिरस्कार भी किया जाता था, परन्तु तुम्हारेमें मन लगानेवाली, तुम्हारे परायण हुई सीताने तुम्हारे सिवा दूसरेका कभी मनसे विचार ही नहीं किया। इसका अन्त:करण शुद्ध है, यह निष्पाप है, मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ, तुम किसी प्रकारकी भी शंका न करके इसको ग्रहण करो । ‘

अग्निदेवके वचन सुनकर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम बहुत प्रसन्न हुए, उनके नेत्र हर्षसे भर आये और उन्होंने कहा-

‘हे अग्निदेव ! इस प्रकार सीताकी शुद्धि आवश्यक थी, मैं यों ही ग्रहण कर लेता तो लोग कहते कि दशरथपुत्र राम मूर्ख और कामी है। (कुछ लोग सीताके शीलपर भी सन्देह करते, जिससे उसका गौरव घटता, आज इस अग्निपरीक्षासे सीताका और मेरा दोनोंका मुख उज्ज्वल हो गया है) मैं जानता हूँ कि जनकनन्दिनी सीता अनन्यहृदया और सर्वदा मेरे इच्छानुसार चलनेवाली है। जैसे समुद्र अपनी मर्यादाका त्याग नहीं कर सकता, उसी प्रकार यह भी अपने तेजसे मर्यादामें रहनेवाली है। दुष्टात्मा रावण प्रदीप्त अग्निकी ज्वालाके समान अप्राप्तइ सीताका स्पर्श नहीं कर सकता था। सूर्य-कान्तिसदृश सीता मुझसे अभिन्न है। जैसे आत्मवान् पुरुष कीर्तिका त्याग नहीं कर सकता, उसी प्रकार मैं भी तीनों लोकोंमें विशुद्ध इस सीताका वास्तवमें कभी त्याग नहीं कर सकता।’

इतना कहकर भगवान् श्रीराम प्रिया सती सीताको ग्रहणकर आनन्दमें निमग्न हो गये। इस प्रसंगसे यह सीखना चाहिये कि स्त्री किसी भी हालतमें पतिपर नाराज न हो और उसे संतोष करानेके लिये न्याययुक्त उचित चेष्टा करे ।

 गृहस्थ-धर्म

सीता अपने स्वामी और देवरके साथ अयोध्या लौट आती है। बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों और सभी सासुओंके चरणोंमें प्रणाम करती है। सब ओर सुख छा जाता है। अब सीता अपनी सासुओंकी सेवामें लगती है और उनकी ऐसी सेवा करती है कि सबको मुग्ध हो जाना पड़ता है। सीताजी गृहस्थका सारा काम सुचारुरूपसे करती हैं जिससे सभी सन्तुष्ट हैं। इससे यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये कि विदेशसे लौटते ही सास और सभी बड़ी-बूढ़ी स्त्रियोंको प्रणाम करना और सास आदिकी सच्चे मनसे सेवा करनी चाहिये एवं गृहस्थीका सारा कार्य सुचारुरूपसे करना चाहिये।

समान व्यवहार

श्रीसीताजी भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न-इन देवरोंके साथ

सीता – परित्याग

पुत्रवत् बर्ताव करती थीं और खान-पान आदिमें किसी प्रकारका भी भेद नहीं रखती थीं। स्वामी श्रीरामके लिये जैसा भोजन बनता था ठीक वैसा ही सीताजी अपने देवरोंके लिये बनाती थीं। देखनेमें यह बात छोटी-सी मालूम होती है किन्तु इसी बर्तावमें दोष आ जानेके कारण केवल खानेकी वस्तुओंमें भेद रखनेसे आज भारतमें हजारों सम्मिलित कुटुम्बोंकी बुरी दशा हो रही है। सीताजीके इस बर्तावसे स्त्रियोंको खान-पानमें समान व्यवहार रखनेकी शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये ।

सीता – परित्याग

एक समय भगवान् राम गुप्तचरोंके द्वारा सीताके सम्बन्धमें लोकापवाद सुनकर बहुत ही शोक करते हुए लक्ष्मणसे कहने लगे कि ‘भाई! मैं जानता हूँ कि सीता पवित्र और यशस्विनी है, लंकामें उसने तेरे सामने जलती हुई अग्निमें प्रवेश करके अपनी परीक्षा दी थी और सर्वलोकसाक्षी अग्निदेवने स्वयं प्रकट होकर समस्त देवता और ऋषियोंके सामने सीताके पापरहित होनेकी घोषणा की थी तथापि इस लोकापवादके कारण मैंने सीताके त्यागका निश्चय कर लिया है। इसलिये तू कल प्रातःकाल ही सुमन्त सारथिके रथमें बैठाकर सीताको गंगाके उस पार तमसा नदीके तीरपर महात्मा वाल्मीकिके आश्रमके पास निर्जन वनमें छोड़कर चला आ । तुझे मेरे चरणोंकी और जीवनकी शपथ है, इस सम्बन्धमें तू मुझसे कुछ भी न कहना। सीतासे भी अभी कुछ न कहना।’ लक्ष्मणने दुःखभरे हृदयसे मौन होकर आज्ञा स्वीकार की और प्रात:काल ही सुमन्तसे कहकर रथ जुड़वा लिया। सीताजीने एक बार मुनियोंके आश्रमोंमें जानेके लिये

श्रीरामसे प्रार्थना की थी, अतएव लक्ष्मणके द्वारा वन जानेकी बात सुनकर सीताजीने यही समझा कि स्वामीने ऋषियोंके आश्रमों में जानेकी आज्ञा दी है और वह ऋषिपत्नियोंको बाँटनेके लिये बहुमूल्य गहने-कपड़े और विविध प्रकारकी वस्तुएँ लेकर वनके लिये विदा हो गयी। मार्गमें अपशकुन होते देखकर सीताने लक्ष्मणसे पूछा—’भाई! अपने नगर और घरमें सब प्रसन्न तो हैँ न ?’ लक्ष्मणने कहा—’सब कुशल है।’ यहाँतक तो लक्ष्मणने सहन किया, परन्तु गंगाके तीरपर पहुँचते ही मर्मवेदनासे लक्ष्मणका हृदय भर आया और वह दीनकी भाँति फूट-फूटकर रोने लगा। संयमशील धर्मज्ञ लक्ष्मणको रोते देखकर सीता कहने लगी- ‘ भाई ! तुम रोते क्यों हो? हमलोग गंगातीर ऋषियोंके आश्रमोंके समीप आ गये हैं, यहाँ तो हर्ष होना चाहिये, तुम उलटा खेद कर रहे हो। तुम तो रात-दिन श्रीरामचन्द्रजीके पास ही रहते हो, क्या दो रात्रिके वियोगमें ही शोक करने लगे ? हे पुरुषश्रेष्ठ! मुझको भी राम प्राणाधिक प्रिय हैं, पर मैं तो शोक नहीं करती, इस लड़कपनको छोड़ो और गंगाके उस पार चलकर मुझे तपस्वियोंके दर्शन कराओ। महात्माओंको भिन्न-भिन्न वस्तुएँ बाँटकर और यथायोग्य उनकी पूजाकर एक ही रात रह हमलोग वापस लौट आयेंगे। मेरा मन भी कमलनेत्र, सिंहसदृश वक्षःस्थलवाले, आनन्ददाताओंमें श्रेष्ठ श्रीरामको देखनेके लिये उतावला हो रहा है।’

लक्ष्मणने इन वचनोंका कोई उत्तर नहीं दिया और सीताके साथ नौकापर सवार हो गंगाके उस पार पहुँचकर फिर उच्च स्वरसे रोना शुरू कर दिया। सीताजीके बारम्बार पूछने और

सीता परित्याग

आज्ञा देनेपर लक्ष्मणने सिर नीचा करके गद्गद वाणीसे लोकापवादका प्रसंग वर्णन करते हुए कहा- ‘देवि ! आप निर्दोष हैं, किन्तु श्रीरामने आपको त्याग दिया है। अब आप श्रीरामको हृदयमें धारण करके पातिव्रत्य धर्मका पालन करती हुई वाल्मीकि मुनिके आश्रम में रहें ।’

लक्ष्मणके इन दारुण वचनोंको सुनते ही सीता मूच्छित सी होकर गिर पड़ी। थोड़ी देर बाद होश आनेपर रोकर विलाप करने लगी और बोली- ‘हे लक्ष्मण! विधाताने मेरे शरीरको दुःख भोगनेके लिये रचा है। मालूम नहीं, मैंने कितनी जोड़ियोंको बिछुड़ाया था; जिससे आज मैं शुद्ध आचरणवाली सती होनेपर भी धर्मात्मा प्रिय पति रामके द्वारा त्यागी जाती हूँ । हे लक्ष्मण ! पूर्वकालमें जब मैं वनमें थी तब तो स्वामीकी सेवाका सौभाग्य मिलनेके कारण वनके दुःखोंमें भी सुख मानती थी, परन्तु हे सौम्य ! अब प्रियतमके वियोगमें मैं आश्रममें कैसे रह सकूँगी ? जन्म-दु:खिनी मैं अपना दुखड़ा किसको सुनाऊँगी ? हे प्रभो ! महात्मा, ऋषि, मुनि जब मुझसे यह पूछेंगे कि तुझको श्रीरघुनाथजीने क्यों त्याग दिया, क्या तुमने कोई बुरा कर्म किया था ? तो मैं क्या जवाब दूँगी। हे सौमित्रे! मैं आज ही इस भागीरथीमें डूबकर अपना प्राण दे देती, परन्तु मेरे अन्दर श्रीरामका वंश-बीज है, यदि मैं डूब मरूँ तो मेरे स्वामीका वंश नाश हो जायगा । इसलिये मैं मर भी नहीं सकती। हे लक्ष्मण ! तुमको राजाज्ञा है तो तुम मुझ अभागिनीको यहीं छोड़कर चले जाओ, परन्तु मेरी कुछ बातें सुनते जाओ।

‘मेरी ओरसे मेरी सारी सासुओंका हाथ जोड़कर चरणवन्दन करना और फिर महाराजको मेरा प्रणाम कहकर कुशल पूछना। हे लक्ष्मण! सबके सामने सिर नवाकर मेरा प्रणाम कहना और धर्ममें सदा सावधान रहनेवाले महाराजसे मेरी ओरसे यह निवेदन करना-

“जानासि च यथा शुद्धा सीता तत्त्वेन राघव । भक्त्या च परया युक्ता हिता च तव नित्यशः ॥” अहं त्यक्ता च ते वीर अयशोभीरुणा जने । यच्च ते वचनीयं स्यादपवादः समुत्थितः ॥ मया च परिहर्तव्यं त्वं हि मे परमा गतिः । वक्तव्यश्चैव नृपतिधर्मेण सुसमाहितः ॥ यथा भ्रातृषु वर्तेथास्तथा पौरेषु नित्यदा । परमो ह्येष धर्मस्ते तस्मात्कीर्तिरनुत्तमा ॥ यत्तु पौरजने राजन् धर्मेण समवाप्नुयात् । अहं तु नानुशोचामि स्वशरीरं नरर्षभ ॥ यथापवादं पौराणां तथैव रघुनन्दन । पतिर्हि देवता नार्याः पतिर्बन्धुः पतिर्गुरुः ॥ प्राणैरपि प्रियं तस्माद् भर्तुः कार्यं विशेषतः ।”

‘हे राघव ! आप जिस प्रकार मुझको तत्त्वसे शुद्ध समझते हैं, उसी प्रकार नित्य अपनेमें भक्तिवाली और अनुरक्त चित्तवाली भी समझियेगा। हे वीर ! मैं जानती हूँ कि आपने लोकापवादको दूर करने और अपने कुलकी कीर्ति कायम रखनेके लिये ही मुझको त्याग दिया है, परन्तु मेरे तो आप ही परमगति हैं। हे महाराज ! आप जिस प्रकार अपने भाइयोंके साथ बर्ताव करते

सीता परित्याग

हैं, प्रजाके साथ भी वही बर्ताव कीजियेगा। हे राघव ! यही आपका परम धर्म है और इसीसे उत्तम कीर्ति मिलती है। हे स्वामिन्! प्रजापर धर्मयुक्त शासन करनेसे ही पुण्य प्राप्त होता है। अतएव ऐसा कोई बर्ताव न कीजियेगा जिससे प्रजामें अपवाद हो। हे रघुनन्दन ! मुझे अपने शरीरके लिये तनिक भी शोक नहीं है, क्योंकि स्त्रीके लिये पति ही परम देवता है, पति ही परम बन्धु है और पति ही परम गुरु है। नित्य प्राणाधिक प्रिय पतिका प्रिय कार्य करना और उसीमें प्रसन्न रहना, स्त्रीका यह स्वाभाविक धर्म ही है।’ क्या ही मार्मिक शब्द हैं ! धन्य सती सीता, धन्य धर्मप्रेम और प्रजावत्सलता ! धन्य भारतका सती- धर्म !! धन्य भारतीय देवियोंका अपूर्व त्याग !!!

सीताजी कहने लगीं-हे लक्ष्मण ! मेरा यह सन्देश महाराजसे कह देना। भाई ! एक बात और है, मैं इस समय गर्भवती हूँ, तुम मेरी ओर देखकर इस बातका निश्चय करते जाओ, कहीं संसारमें लोग यह अपवाद न करें कि सीता वनमें जाकर सन्तान प्रसव करती है।’

सीताके इन वचनोंको सुनकर दीनचित्त लक्ष्मण व्याकुल हो उठे और सिर झुकाकर सीताके पैरोंमें गिर फुफकार मारकर जोर-जोरसे रोने लगे। फिर उठकर सीताजीकी प्रदक्षिणा की और दो घड़ीतक ध्यान करनेके बाद बोले- ‘माता ! हे निष्पाप पतिव्रते ! आप यह क्या कह रही हैं? मैंने आजतक आपके चरणोंका ही दर्शन किया है, कभी स्वरूप नहीं देखा। आज भगवान् रामके परोक्ष मैं आपकी ओर कैसे ताक सकता हूँ ?’ तदनन्तर प्रणाम करके वह रोते हुए नावपर सवार होकर लौट गये और इधर सीता–दुःख-भारसे पीड़ित आदर्श पतिव्रता सती सीता-अरण्यमें गला फाड़कर रोने लगीं। सीताजीके रुदनको सुनकर वाल्मीकिजी उनको अपने आश्रममें ले गये।

इस प्रसंगसे जो कुछ सीखा जा सकता है वही भारतीय देवियोंका परम धर्म है। सीताजीके उपर्युक्त शब्दोंका नित्य पाठ करना चाहिये और उनके रहस्यको अपने जीवनमें उतारना चाहिये। लक्ष्मणके बर्तावसे भी हमलोगोंको यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये कि पदमें माताके समान होनेपर भी पुरुष किसी भी स्त्रीके अंग न देखे। इसी प्रकार स्त्रियाँ भी अपने अंग किसीको न दिखायें। वाल्मीकिजी के आश्रममें सीता ऋषिकी आज्ञा से अन्तः पुरमें ऋषिपत्नीके पास रही, इससे यह सीखना चाहिये कि यदि कभी दूसरोंके घर रहनेका अवसर आवे तो स्त्रियोंको अन्तः पुरमें रहना चाहिये और इसी प्रकार किसी दूसरी स्त्रीको अपने यहाँ रखना हो तो स्त्रियोंके साथ अन्तःपुरमें ही रखना चाहिये।

 पाताल- प्रवेश

जो स्त्री अपने धर्मका प्राणपणसे पालन करती है, अन्तमें उसका परिणाम अच्छा ही होता है। जब भगवान् श्रीरामचन्द्र अश्वमेध-: -यज्ञ करते हैं और लव-कुशके द्वारा रामायणका गान सुनकर मुग्ध हो जाते हैं तब लव-कुशकी पहचान होती है और श्रीरामकी आज्ञासे सीता वहाँ बुलायी जाती है। सीता श्रीरामका ध्यान करती हुई सिर नीचा किये हाथ जोड़कर वाल्मीकि ऋषिके पीछे-पीछे रोती हुई आ रही है। वाल्मीकि मुनि सभामें आकर जो कुछ कहते हैं उससे सारा लोकापवाद मिट जाता है और सारा देश सीतारामके जय-जयकारसे ध्वनित हो उठता है। वाल्मीकिने पाताल प्रवेश सीताके निष्पाप होनेकी बात कहते हुए यहाँतक कह डाला कि ‘मैंने हजारों वर्षोंतक तप किया है, मैं उस तपकी शपथ खाकर कहता हूँ कि यदि सीता दुष्ट आचरणवाली हो तो मेरे तपके सारे फल नष्ट हो जायँ।

मैं अपनी दिव्यदृष्टि और ज्ञानदृष्टिद्वारा विश्वास दिलाता हूँ कि सीता परम शुद्धा है।’ वाल्मीकि की प्रतिज्ञाको सुनकर और सीताको सभामें आयी हुई देखकर भगवान् श्रीराम गद्गद हो गये और कहने लगे कि ‘हे महाभाग ! मैं जानता हूँ कि जानकी शुद्धा है, लव-कुश मेरे ही पुत्र हैं, मैं राजधर्म-पालनके लिये ही प्रिया सीताका त्याग करनेको बाध्य हुआ था। अतएव आप मुझे क्षमा करें।’

उस सभामें ब्रह्मा, आदित्य, वसु, रुद्र, विश्वेदेव, वायु, साध्य, महर्षि, नाग, सुपर्ण और सिद्ध आदि बैठे हुए हैं, उन सबके सामने राम फिर यह कहते हैं कि ‘इस जगत्में वैदेही शुद्ध है और इसपर मेरा पूर्ण प्रेम है, ‘-

शुद्धायां जगतो मध्ये मैथिल्यां प्रीतिरस्तु मे ॥

इतने में काषायवस्त्र धारण किये हुए सती सीता नीची गर्दन कर श्रीरामका ध्यान करती हुई भूमिकी ओर देखने लगीं और बोलीं-

“यथाहं राघवादन्यं मनसापि न चिन्तये । तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति ॥ मनसा कर्मणा वाचा यथा रामं समर्चये । तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति ॥ यथैतत्सत्यमुक्तं मे वेद्मि रामात्परं न च। तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति ॥”

‘यदि मैंने रामको छोड़कर किसी दूसरेका कभी मनसे भी चिन्तन न किया हो तो हे माधवी देवी! तू मुझे अपनेमें ले ले, हे पृथ्वी माता! मुझे मार्ग दे। यदि मैंने मन, कर्म और वाणीसे केवल रामका ही पूजन किया हो तो हे माधवी देवी! मुझे अपनेमें ले ले, हे पृथ्वी माता! मुझे मार्ग दे। यदि मैं रामके सिवा और किसीको भी न जानती होऊँ यानी केवल रामको ही भजनेवाली हूँ, यह सत्य हो तो हे माधवी देवी! मुझे अपनेमें स्थान दे और हे पृथ्वी माता! मुझे मार्ग दे।’

इन तीनों शपथके करते ही अकस्मात् धरती फट गयी, उसमेंसे एक उत्तम और दिव्य सिंहासन निकला, दिव्य सिंहासनको दिव्य देह और दिव्य वस्त्राभूषणधारी नागने अपने मस्तकपर उठा रखा था और उसपर पृथ्वी देवी बैठी हुई थीं। पृथ्वी देवीने सीताका दोनों हाथोंसे आलिंगन किया और ‘हे पुत्री! तेरा कल्याण हो’ कहकर उसे गोदमें बैठा लिया। इतनेमें सबके देखते-देखते सिंहासन रसातलमें प्रवेश कर गया। सती सीताके जय-जयकारसे त्रिभुवन भर गया। सीता-परित्यागके हेतु

यहाँ यह प्रश्न होता है कि ‘भगवान् श्रीराम बड़े दयालु और न्यायकारी थे, उन्होंने निर्दोष जानकर भी सीताका त्याग क्यों किया ?’ इसमें प्रधानतः निम्नलिखित पाँच कारण हैं, इन कारणोंपर ध्यान देनेसे सिद्ध हो जायगा कि रामका यह कार्य सर्वथा उचित था-

१- रामके समीप इस प्रकारकी बात आयी थी- अस्माकमपि दारेषु सहनीयं भविष्यति । यथा हि कुरुते राजा प्रजास् तमनुवर्तते ॥”

सीता परित्यागके हेतु  – कि ‘रामने रावणके घरमें रहकर आयी हुई सीताको घरमें रख लिया, इसलिये अब यदि हमारी स्त्रियाँ भी दूसरोंके यहाँ रह आवेंगी तो हम भी इस बातको सह लेंगे, क्योंकि राजा जो कुछ करता है प्रजा उसीका अनुसरण करती है।’ प्रजाकी इस भावनासे भगवान्ने यह सोचा कि सीताका निर्दोष होना मेरी बुद्धिमें है । साधारण लोग इस बातको नहीं जानते । तो इससे यही शिक्षा लेंगे कि परपुरुषके घर बिना बाधा स्त्री रह सकती हैं, ऐसा होनेसे स्त्री – धर्म बिलकुल बिगड़ जायगा, प्रजामें वर्णसंकरताकी वृद्धि होगी, अतएव प्रजाके धर्मकी रक्षाके लिये प्राणाधिका सीताका त्याग कर देना चाहिये। सीताके त्यागमें रामको बड़ा दुःख था, उनका हृदय विदीर्ण हो रहा था।

उनके हृदयकी दशाका पूरा अनुभव तो कोई कर ही नहीं सकता, किन्तु वाल्मीकि-रामायण और उत्तररामचरितको पढ़नेसे किंचित् दिग्दर्शन हो सकता है। श्रीरामने यहाँ प्रजाधर्मकी रक्षाके लिये व्यक्तिधर्मका बलिदान कर दिया। प्रजारंजनके यज्ञानलमें आत्मस्वरूपा सीताकी आहुति दे डाली। इससे उनके प्रजाप्रेमका पता लगता है। सीता राम हैं और राम सीता हैं, शक्ति और शक्तिमान् मिलकर ही जगत्का नियन्त्रण करते हैं, अतएव सीताके त्यागमें कोई आपत्ति नहीं। इस लोकसंग्रहके हेतुसे भी सीताका त्याग उचित है।

२– चाहे थोड़ी ही संख्यामें हो सीताका झूठा अपवाद करनेवाले लोग थे। यह अपवाद त्यागके बिना मिट नहीं सकता था और यदि सीता वाल्मीकिके आश्रममें रहकर उनके द्वारा प्रतिज्ञाके साथ शुद्ध न कही जाती और पृथ्वीमें न समाती तो शायद यह अपवाद मिटता भी नहीं, सम्भव है और बढ़ जाता और सीताका नाम आज जिस भावसे लिया जाता है शायद वैसे न लिया जाता। इस हेतुसे भी सीताका त्याग उचित है।

३–सीता श्रीरामकी परम भक्ता थी, उनकी आश्रिता थी, उनकी परम प्यारी अर्द्धांगिनी थी, ऐसी परम पुनीता सीताको निष्ठुरताके साथ त्यागनेका दोष भगवान् श्रीरामने अपने ऊपर इसीलिये ले लिया कि इससे सीताके गौरवकी वृद्धि हुई, सीताका झूठा कलंक भी मिट गया और सीता जगत्पूज्या बन गयी। भगवान् अपने भक्तोंका गौरव बढ़ानेके लिये अपने ऊपर दोष ले लिया करते हैं और यही यहाँपर भी हुआ।

४- अवतारका लीलाकार्य प्रायः समाप्त हो चुका था, देवतागण सीताजीको इस बातका संकेत कर गये थे। अध्यात्म- रामायणमें लिखा है कि ‘दस हजार वर्षतक मायामनुष्यरूपधारी भगवान् विधिपूर्वक राज्य करते रहे और सब लोग उनके चरण- कमलोंको पूजते रहे। भगवान् श्रीराम राजर्षि परम पवित्र एकपत्नीव्रती थे और लोकसंग्रहके लिये गृहस्थके सब धर्मोंका यथाविधि पालन करते थे। पतिप्राणा सीताजी प्रेम, अनुकूल आचरण, नम्रता, इन्द्रियोंका दमन, लज्जा और प्रतिकूल आचरणमें भय आदि गुणोंके द्वारा भगवान्‌का भाव समझकर उनके मनको प्रसन्न करती थीं। एक समय श्रीराम पुष्प वाटिकामें बैठे हुए और सीताजी उनके कोमल चरणोंको दबा रही थीं। सीताजीने एकान्त देखकर भगवान्से कहा कि ‘हे देवदेव ! आप जगत्के स्वामी, परमात्मा, सनातन सच्चिदानन्दघन और आदि मध्यान्तरहित तथा सबके कारण हैं। हे देव ! उस दिन इन्द्रादि देवताओंने मेरे पास आकर स्तुति करते हुए यह कहा कि ‘हे जगन्माता ! तुम सीता परित्यागके हेतु भगवान्‌की चित्-शक्ति हो, तुम पहले वैकुण्ठ पधारनेकी कृपा करो तो भगवान् राम भी वैकुण्ठ पधारकर हमलोगोंको सनाथ करेंगे।’ देवताओंने जो कुछ कहा था सो मैंने निवेदन कर दिया है। मैं कोई आज्ञा नहीं करती, आप जैसा उचित समझें वैसा करें।’ क्षणभर सोचकर भगवान्ने कहा कि-

“देवि जानामि सकलं तत्रोपायं वदामि ते । कल्पयित्वा मिषं देवि लोकवादं त्वदाश्रयम् ॥ त्यजामि त्वां वने लोकवादाद्भीत इवापरः । भविष्यतः कुमारौ द्वौ वाल्मीकेराश्रमान्तिके ॥ इदानीं दृश्यते गर्भः पुनरागत्य मेऽन्तिकम् । लोकानां प्रत्ययार्थं त्वं कृत्वा शपथमादरात् ॥ भूमेर्विवरमात्रेण वैकुण्ठं यास्यसि द्रुतम्। पश्चादहं गमिष्यामि एष एव सुनिश्चयः ॥”

‘हे देवि ! मैं सब कुछ जानता हूँ और तुमको एक उपाय बतलाता हूँ। हे सीते ! मैं तुम्हारे लोकापवादका बहाना रचकर साधारण मनुष्यकी तरह लोकापवादके भयसे तुमको वनमें त्याग दूँगा। वहाँ वाल्मीकिके आश्रममें तुम्हारे दो पुत्र होंगे, क्योंकि इस समय तुम्हारे गर्भ है। तदनन्तर तुम मेरे पास आ लोगोंको विश्वास दिलानेके लिये बड़े आदरसे – शपथ खा पृथ्वीके विवरमें प्रवेश कर तुरन्त वैकुण्ठको चली जाओगी और पीछेसे मैं भी आ जाऊँगा। यही निश्चय है।’ यह भी सीताके त्यागका एक कारण है।

५ – पूर्वकालमें एक समय युद्धमें देवताओंसे हारकर भागे हुए दैत्य भृगुजीकी स्त्रीके आश्रममें चले गये और ऋषि पत्नीसे अभय प्राप्तकर निर्भय हो वहाँ रहने लगे। ‘दैत्योंको भृगुपत्नीने आश्रय दिया।’ इस बातसे कुपित होकर भगवान् विष्णुने उसका चक्रसे सिर काट डाला था। पत्नीको इस प्रकार मारे जाते देखकर भृगु- ऋषिने क्रोधमें हतज्ञान होकर भगवान्‌को शाप दिया था कि ‘हे जनार्दन ! आपने कुपित होकर मेरी अवध्य पत्नीको मार डाला, इसलिये आपको मनुष्यलोकमें जन्म लेना होगा और दीर्घकालतक पत्नी वियोग सहना पड़ेगा।’ भगवान्ने लोकहितके लिये इस शापको स्वीकार किया और उसी शापको सत्य करनेके लिये अपनी अभिन्न शक्ति सीताको लीलासे ही वनमें भेज दिया।

इत्यादि अनेक कारणोंसे सीताका निर्वासन रामके लिये उचित ही था। असली बात तो यह है कि भगवान् राम और सीता साक्षात् नारायण और शक्ति हैं। एक ही महान् तत्त्वके दो रूप हैं। उनकी लीला वे ही जानें, हमलोगोंको आलोचना करनेका कोई अधिकार नहीं। हमें तो चाहिये कि उनकी दिव्य लीलाओंसे लाभ उठावें और अपने मनुष्य-जीवनको पवित्र करें।

मानव-लीलामें श्रीसीताजी इस बातको प्रमाणित कर गयीं कि बिना दोष भी यदि स्वामी स्त्रीको त्याग दे तो स्त्रीका कर्तव्य है कि इस विपत्तिमें दुःखमय जीवन बिताकर भी अपने पातिव्रत्य- धर्मकी रक्षा करे, परिणाम उसका कल्याण ही होगा।

उपसंहार

सत्य और न्याय अन्तमें अवश्य ही शुभ फल देंगे, सीताने अपने जीवनमें कठोर परीक्षाएँ देकर स्त्रीमात्रके लिये यह मर्यादा स्थापित कर दी कि जो स्त्री आपत्तिकालमें सीताकी भाँति धर्मका पालन करेगी, उसकी कीर्ति संसारमें सदाके लिये प्रकाशित हो जायगी। सीतामें पतिभक्ति, सीताका भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्नके साथ निर्दोष वात्सल्य-प्रेम, सासुओंके प्रति सेवाभाव, सेवकोंके उपसंहार साथ प्रेमका बर्ताव, नैहर और ससुरालमें सबके साथ आदर्श प्रीति और सबके सम्मान करनेकी चेष्टा, ऋषियोंकी सेवा, लव-कुश- जैसे वीर पुत्रोंका मातृत्व, उनको शिक्षा देनेकी पटुता, साहस, धैर्य, तप, वीरत्व और आदर्श धर्म-परायणता आदि सभी गुण पूर्ण विकसित और सर्वथा अनुकरणीय हैं।

हमारी जो माताएँ और बहिनें प्रमाद, मोह और आसक्तिको त्यागकर सीताके चरित्रका अनुकरण करेंगी, उनके अपने कल्याणमें तो शंका ही क्या है, वे अपने पति और पुत्रोंको भी तार सकती हैं। अधिक क्या, जिसपर उनकी दया हो जायगी उसका भी कल्याण होना सम्भव है। ऐसी सती-शिरोमणि पतिव्रता स्त्री दर्शन और पूजनके योग्य है। मनुष्योंके द्वारा ही नहीं बल्कि देवताओंके द्वारा भी वह पूजनीय है और अपने चरित्रसे त्रिलोकीको पवित्र करनेवाली है।

यद्यपि श्रीसीताजी साक्षात् भगवती और परमात्माकी शक्ति थीं तथापि उन्होंने अपने मनुष्य-जीवनमें लोकशिक्षाके लिये जो चरित्र किया है वे सब ऐसे हैं कि जिनका अनुकरण सभी स्त्रियाँ कर सकती हैं। संसारकी मर्यादाके लिये ही सीता-रामका अवतार था। अतएव उनके चरित्र और उपदेश अलौकिक न होकर ऐसे व्यावहारिक थे कि जिनको काममें लाकर हमलोग लाभ उठा सकते हैं। जो स्त्री या पुरुष यह कहकर कर्तव्यसे छूटना चाहते हैं कि ‘श्रीसीता-राम साक्षात् शक्ति और ईश्वर थे, हम उनके चरित्रोंका अनुकरण नहीं कर सकते।’ वे कायर और अभक्त हैं, वे श्रीरामको ईश्वरका अवतार केवल कथनभरके लिये ही मानते हैं। सच्चे भक्तोंको तो श्रीराम-सीताके चरित्रका यथार्थ अनुकरण ही करना चाहिये।

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