भीष्म पितामह की कथा | Story of Bhishma Pitamah in hindi | Mahabharat Jivani भीष्म पितामह जीवनी

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महाभारत काल में ऐसे अनेक योध्धा हुए। जिनके प्रताप से पूरा ब्रह्मांड कॉप उठता था। महाभारत काल के यह वॉरियर्स सामान्य इंसान नहीं थे। बल्कि यह पृथ्वी पर अवतार लेने वाले देवता थे। महाभारत के समय में भगवान श्रीकृष्ण ने भी मानव अवतार में जन्म लेकर संसार को अपने होने का एहसास करवाया था।

महाभारत की कहानी सम्पूर्ण भीष्म पितामह की जीवनी, कहानी – Bhishma Pitamah Mahabharata Story in Hindi

आज हम आपको महाभारत काल के सबसे बड़े योद्धा भीष्म पितामह के बारे में संपूर्ण जानकारी देने वाले हैं।

भीष्म पितामह कौन थे

भीष्म पितामह का नाम क्या था                        : देवव्रत

भीष्म पितामह का असली नाम                        : देवव्रत

भीष्म पितामह के उपनाम                               : भीष्म, गंगापुत्र, गाँगेय, शांतनव, नदीज, तालकेतु

भीष्म पितामह के माता पिता का नाम              : माँ का नाम गंगा और पिता का नाम शांतनु

भीष्म पितामह का जन्म की तिथि                     : जन्म माघ कृष्णपक्ष की नौमी

भीष्म पितामह का पूर्व जन्म                             : घौ नामक वशु

भीष्म पितामह का गुरु कौन था                        : भगवान परशुराम

भीष्म पितामह की आयु                                   : 150 वर्ष के करीब थी

भीष्म सरसैया पर कितने दिन पड़े रहे?            : 58 दिन तक रहे

भीष्म पितामह की मृत्यु की तिथि                      : माघ महीने का शुक्ल पक्ष, उत्तरायण के दिन

देवव्रत का नाम भीष्म कैसे पड़ा?

भीष्म का नाम भीष्म उनकी एक कठोर प्रतिज्ञा के कारण पड़ा था। उनकी इस प्रतिज्ञा ने उन्हें द्रोपदी के चीर हरण को देखने का पाप करवाया था। और उनकी यह भीष्म प्रतिज्ञा ही उनकी मौत का कारण भी बनी थी। अपनी इसी प्रतिज्ञा के कारण भीष्म ने युद्ध में कौरवों का साथ दिया था।

जहां महाभारत के युद्ध में श्री कृष्ण ने प्रण लिया था कि वह शस्त्र नहीं उठाएंगे, वहीं भीष्म ने भी प्रण लिया था कि वह भगवान कृष्ण को शस्त्र उठाने के लिए विवश कर देंगे।

आइए जानते हैं महाभारत के सबसे बड़े योद्धा भीष्म पितामह के बारे में

भीष्म का पूर्व जन्म का श्राप

आदि पर्व के अनुसार एक बार वशु अपनी पत्नियों के साथ मेरु पर्वत पर भ्रमण के लिए गए। इन वशुओ में घौ नाम का एक वशु भी था। इसी पर्वत पर ऋषि वशिष्ठ का आश्रम भी था।  ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में नंदिनी नाम की बड़ी सुंदर गाय बंधी थी। जिसे देख कर घौ वशु की पत्नी उस गाय को लेने की जिद करने लगी। अपनी पत्नी की बात मानकर उस वशु ने उस गाय को चुरा लिया।

जब महर्षि वशिष्ठजी आश्रम में वापस आए तो उन्होंने देखा कि उनकी गाय उनके आश्रम में नहीं है। तब वशिष्ठ जी ने दिव्य दृष्टि से सारी घटना को देख लिया। वशुओ के द्वारा इस प्रकार गाए चुराने से वशिष्ठ जी क्रोधित हो गए, और उन्होंने वशुओ को मनुष्य रूप में जन्म लेने का श्राप दिया।

इस पर सभी वशु महर्षि वशिष्ठ जी से माफी मांगने लगे, तब वशिष्ठ जी ने बाकी वशुओ को माफ कर दिया। लेकिन उन्होंने कहा कि घौ नाम के इस वशु को पृथ्वी पर मानव रूप में जन्म लेना होगा, और लंबी आयु तक जीवित रहकर संसार के दुख भोगने पड़ेंगे।

इस तरह वही घौ नाम का वशु राजा शांतनु के घर भीष्म के रूप में जन्म लेता है। वशिष्ठजी के श्राप के कारण ही उन्हें लंबी आयु तक पृथ्वी पर रहना पड़ा और उन्होंने अपनी इच्छा से मृत्यु प्राप्त की,

भीष्म पितामह का जन्म-भीष्म पितामह की कहानी, 

भीष्म ने राजा शांतनु की संतान के रूप में जन्म लिया था। उनका नाम भीष्म भी बाद में उनकी भीष्म प्रतिज्ञा के कारण ही पड़ा था।

एक बार राजा शांतनु शिकार खेलते हुए गंगा के तट पर पहुंच गए। गंगा के तट पर उन्होंने एक सुंदर स्त्री को देखा, और वो उस स्त्री पर मोहित हो गए। राजा शांतनु ने उस सुंदर स्त्री के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। उस स्त्री ने विवाह का प्रस्ताव मानने की एक शर्त रखी, कि “वह चाहे कुछ भी करें शांतनु उससे उसका कारण नहीं पूछेंगे और नाही उसे रोकेंगे।“

राजा शांतनु का जीवन उस स्त्री के साथ सुख पूर्ण बीतने लगा। लेकिन जैसे ही उस स्त्री की कोख से संतान जन्म लेती वह उसे गंगा नदी में प्रवाहित कर देती थी।

इस तरह राजा शांतनु के घर सात पुत्रों ने जन्म लिया और सभी को उस स्त्री ने गंगा में प्रवाहित कर दिया। राजा शांतनु अपने सात पुत्रों को खोकर भी उस स्त्री को रोक नहीं पा रहे थे। और ना ही उसे अपने पुत्रों को गंगा में प्रवाहित करने का कारण पूछ पा रहे थे, क्योंकि वह वचन में बंधे हुए थे।

राजा शांतनु की व्यथा – Bhishma Pitamah ki Jivani

इसके बाद शांतनु के घर एक और पुत्र ने जन्म लिया, लेकिन अब शांतनु अपने पुत्र को खोना नहीं चाहते थे। जब वह स्त्री आठवीं पुत्र को भी गंगा में बहाने के लिए जा रही थी, तो राजा शांतनु ने उसे रोका, और उससे ऐसा करने का कारण पूछा?

तब उस स्त्री ने बताया कि मैं देवनदी गंगा हूं आपके जिन पुत्रों को मैंने गंगा में प्रवाहित कर दिया वह सभी वशु थे। जिन्हें ऋषि वशिष्ठ के श्राप के कारण मनुष्य रूप में जन्म लेना पड़ा था। और मैंने उन्हें नदी में बहाकर उन्हें श्राप से मुक्ति दी है।

क्योंकि तुमने मुझे वचन दिया था कि तुम मुझसे कभी मेरे द्वारा किए गए कार्यों का कारण नहीं पूछोगे, पर अब तुमने अपना वचन तोड़ दिया है। इसलिए मैं तुम्हें छोड़ कर जा रही हूं, इस तरह गंगा उस आठवें पुत्र को साथ लेकर वहां से चली गई।

राजा शांतनु और गंगा का यह आठवां पुत्र देवव्रत ही बाद में भीष्म पितामह के नाम से जाना गया।

भीष्म से शांतनु की दोबारा मुलाकात

अपने 8 पुत्र और अपनी पत्नी को इस तरह से खोकर राजा शांतनु बहुत उदास हो गए। उनका एकमात्र पुत्र जो जीवित था उसे भी गंगा अपने साथ ले गई थी।

एक दिन राजा शांतनु गंगा के तट पर विचरण कर रहे थे। तभी उन्होंने वहां एक हैरान करने वाला नजारा देखा, उन्होंने देखा कि गंगा की धारा रुक गई है, और जल नहीं बह रहा है। जब उन्होंने आगे जाकर देखा तो पाया कि एक छोटे से बालक ने अपने बाणों से गंगा की धारा को रोक दिया है। इस बालक का पराक्रम देखके राजा शांतनु बहुत प्रभावित हुए।

उन्होंने उस बालक से पूछा कि वह कौन है? तभी वहां पर गंगा प्रकट होती है। गंगा शांतनु को बताती है कि वह उनका पुत्र देवव्रत है। गंगा कहती है कि यह एक महान धनुर्धर है, जिसने परशुराम से अस्त्र शस्त्रों की विद्या ग्रहण की है। साथी गुरु वशिष्ट जी से वेदों की शिक्षा भी ली है

राजा शांतनु अपने पुत्र को देखकर बहुत खुश होते हैं। इसके बाद गंगा देवव्रत को राजा शांतनु को सौंप कर वहां से चली जाती है। देवव्रत शांतनु की संतान थी इसलिए राजा शांतनु उसे हस्तिनापुर का युवराज घोषित कर देते हैं। देवव्रत भी वेदों के ज्ञाता और कुशल धनुर्धर थे।

उनके मुख पर इन्द्र के समान तेज था। सारी प्रजा उन्हें स्नेह लगती है और वह खुशी से हस्तिनापुर का सिन्हासन संभाल लेते हैं।

भीष्म की भीष्म प्रतिज्ञा

देवव्रत शांतनु के राज्य को संभाल रहे थे। लेकिन एक दिन राजा शांतनु नदी के तट पर घूम रहे थे। तभी वहां एक सुंदर कन्या दिखाई देती है।

वह कन्या निषाद पुत्री सत्यवती थी। सत्यवती का रूप बहुत मनमोहक था। जिसे देखकर राजा शांतनु उस पर मोहित हो गए। राजा शांतनु उस कन्या पर इतने मोहित हुए कि वह विवाह का प्रस्ताव लेकर उसके पिता के पास पहुंच गए। निषादराज ने अपनी कन्या का विवाह करने की एक शर्त रखी। शर्त यह थी कि उसकी पुत्री से जो भी संतान होगी उसे ही राजा शांतनु अपना उत्तरा अधिकारी बनाएंगे।

किन्तु राजा शांतनु पहले से ही देवव्रत को अपने राज्य का उत्तरा अधिकारी घोषित कर चुके थे। इसलिए उन्होंने इस विवाह से मना कर दिया।

लेकिन राजा शांतनु निषाद कन्या सत्यवती से प्रेम कर बैठे थे। जिस कारण वह बहुत उदास रहने लगे। किन्तु  उन्होंने देवव्रत को इस घटना के बारे में नहीं बताया।

जब देवव्रत को इस घटना के बारे में पता चला तो वह निषादराज के पास उस कन्या को लेने पहुंच गए। निषादराज ने देवव्रत के सामने भी वही शर्त रखी, कि अगर उस कन्या की संतान को राज्य का उत्तराधिकारी बनाएंगे तब ही वो अपनी पुत्री का विवाह राजा शांतनु से करेंगे।

तब देवव्रत ने निषादराज के समक्ष यह प्रतिज्ञा ली थी कि “वह निषाद पुत्र की गर्भ से पैदा होने वाली संतान को ही हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी बनाएंगे।“

किंतु निषादराज इससे भी संतुष्ट नहीं हुए। निषाद राज ने संदेह प्रकट किया कि अगर देवव्रत की संतान ने उसकी पुत्री के गर्भ से जन्म में संतान का वध करके राज्य पर अधिकार कर लिया तो क्या होगा?

ऐसे में देवव्रत ने धरती, आकाश और चारों दिशाओं को साक्षी मानकर भीष्म प्रतिज्ञा की थी, कि वह आजीवन विवाह नहीं करेंगे। और ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे।

इस कठोर और (भीष्म) प्रतिज्ञा लेने के पश्चात देवव्रत नाम के बाद भीष्म के नाम से जाना गया।

कैसे विचित्रवीर्य बना हस्तिनापुर नरेश

भीष्म अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार ही विवाह नहीं करते। शांतनु निषाद कन्या सत्यवती से विभाग कर लेते हैं। शांतनु देवव्रत की अपनी प्रति इस निष्ठा से बहुत खुश होते हैं।  और एक ऐसा वरदान देते है की जब खुद चाहे तब ही मार सके (“इच्छा मृत्यु”) ऐसा वरदान देते हैं।

भीष्म ने किया था राजकुमारियों का हरण

विचित्रवीर्य मदिरापान करता था।  वह उस तरह का राजा नहीं था, जैसे उसके पिता और बड़े भाई थे। विचित्रवीर्य की आयु विवाह योग्य हो गई थी। काशी नरेश ने अपनी पुत्रियों के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन किया किंतु काशी नरेश ने हस्तिनापुर को न्योता नहीं भेजा। जिसे भीष्म ने हस्तिनापुर का अपमान समझा और भीष्म स्वयं उस स्वयंवर में जा पहुंचे। भीष्म ने उस स्वयंवर में मौजूद सभी राजाओं को हराकर काशी नरेश की तीनों कन्याओ अंबाअंबिका और अंबालिका का हरण कर लिया था।

काशी नरेश की पुत्री अंबा मन ही मन राजा शाल्व को प्रेम करती थी। अंबा ने भीष्म को अपने प्रेम के बारे में बताया जिसके बाद भीष्म ने उसे राजा शाल्व के पास जाने की अनुमति दे दी। और काशी नरेश की बाकी दोनों पुत्रियों अंबिका और अंबालिका का विवाह विचित्रवीर्य से कर दिया।

राजा शाल्व

अंबा बड़ी प्रसन्न होकर राजा शाल्व के पास पहुंची, लेकिन राजा शाल्व ने अपहरण कर ले जाई गई कन्या को अपनाने से इंकार कर दिया। इसके बाद अंबा फिर से भीष्म के पास आई और कहा कि आपने मेरा हरण किया है अब आप ही मुझसे विवाह करें। लेकिन भीष्म ने कहा कि उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा की है, इसलिए वह उससे विवाह नहीं कर सकते।

परंतु अंबा भीष्म से विवाह करने की जिद पर अड़ी रही और भीष्म को मनाने के लिए परशुराम जी के पास जा पहुंची। परशुराम ने ही भीष्म को शस्त्र विद्या सिखाई थी। वह भीष्म के गुरु थे। उन्होंने भी भीष्म से कहा कि वह अंबा से विवाह कर ले, लेकिन भीष्म की प्रतिज्ञा अडिग थी। वह अपनी प्रतिज्ञा को किसी भी कीमत पर नहीं तोड़ सकते थे।

भीष्म पितामह युध्ध – Mahabharat Bhishma Pitamah Story in Hindi

भीष्म और परशुराम में इस बात को लेकर भयंकर युद्ध हुआ। दोनों ही एक से बढ़कर एक थे। दोनों के बीच युद्ध 23 दिन तक चला था। दोनों के युद्ध के कारण भारी विनाश हुआ। अंत में देवताओं ने इस युद्ध को बंद करवाया, युद्ध समाप्त हो गया किंतु अंबा की इच्छा अभी अधूरी थी।

उसके पास कोई विकल्प नहीं था, अंबा ने अपनी इस हालत के लिए भीष्म को जिम्मेदार ठहराया और भीष्म को श्राप दिया कि “जिस तरह मेरा अपमान हुआ है उसी तरह तुम्हारे कुल की एक स्त्री का अपमान होगा। और तुम अपनी इशी प्रतिज्ञा के कारण कुछ नहीं कर पाओगे।

भीष्म की मृत्यु का कारण

इसके बाद अंबा ने भीष्म से प्रतिशोध लेने के लिए तपस्या करना शुरू कर दिया। तप करते-करते अंबा ने अपनी देह त्याग दिया। और अगले जन्म में वत्स देश की पुत्री के रूप में जन्म पाया। अंबा को इस वर्तमानकाल में भी अपने अगले जन्म का सब कुछ मनमे था। इसलिए उसने फिर से तपस्या करना शुरू किया, और उसकी तपस्या से भगवान शिव प्रसन्न हो गए। अंबा ने भगवान शिव से वरदान मांगा कि वह भीष्म की मृत्यु का कारण बने।

भगवान शिव ने अंबा को वरदान दे दिया। किन्तु अंबा ने पूछा की वह स्त्री रूप में भीष्मवध का कारण कैसे बन सकती है। तब भगवान शिव ने कहा कि वह अगले जन्म में पूण्य कन्या के रूप में जन्म लेगी। किन्तु युवा अवस्था में वह पुरुष बन जाएगी। और भीष्म की मृत्यु का कारण बनेगी।

भगवान शिव से ये वरदान मांगकर अंबा ने  खुद को अग्नि में समर्पित कर दिया और अपने प्राण को त्याग कर दिया।

शिखंडी जो भीष्म पितामह की मृत्यु का कारन – Mahabharat Bhishma Pitamah Story in Hindi

अगले जन्म में इसी कन्या ने राजा द्रुपद के घर द्रोपदी की बहन शिखंडी के रूप में जन्म लिया। जो आगे चलकर भीष्म की मृत्यु का कारण बनी। द्रोपदी का चीर हरण कौरवो ने पांडवो को जुए में हराकर सारे पांडवों को अपना दास बना लिया।

उन्होंने द्रोपदी को भी पांडवों से जीत लिया और भरी सभा में द्रोपदी का अपमान किया। भारत वंश के सबसे बड़े योद्धा की पुत्रवधू का भरी सभा में चीरहरण हो रहा था। किंतु वह योद्धा चुप था। वह कुछ नहीं बोल सका क्योंकि भीष्म ने हस्तिनापुर के राज्य का दास बनके रहने की प्रतिज्ञा की थी।

अंबा के श्राप के कारण भीष्म को अपने कुल की पुत्रवधू द्रौपदी का अपमान देखना पड़ा। द्रोपदी उस सभा में मौजूद द्रोणाचार्य, क्रिपाचार्य, भीष्म और धृतराष्ट्र सबसे उसे दुशासन से छुड़वाने की गुहार लगाती रही। किंतु किसी ने उसे बचाने की हिम्मत नहीं दिखाई। अंत में द्रोपदी ने भगवान श्रीकृष्ण को याद किया इसके बाद स्वयं भगवान कृष्ण ने उसकी लाज बचाई।

भीम की प्रतिज्ञा, Mahabharat Bhishma Pitamah Story in Hindi

इसी सभा में भीम ने प्रतिज्ञा की थी कि वह दुशासन की छाती को फाड़कर उसका रक्त पिएगा। द्रोपदी का चीर हरण महाभारत के युद्ध का सबसे बड़ा कारण बना। महाभारत का युद्ध महाभारत के युद्ध में भीष्मद्रोणाचार्यअश्वत्थामा जैसे बड़े बड़े योद्धा कौरवो की ओर थे। जबकि पांडवों की तरफ भगवान श्री कृष्ण थे। कौरवों और पांडवों  दोनों ने ही श्री कृष्ण से सहायता मांगी थी। तब भगवान श्रीकृष्ण ने कौरवों को अपनी नारायणी सेना दे दी थी और खुद पांडवों की तरफ हो गए थे।

भगवान कृष्ण ने यह प्रतिज्ञा की थी कि वह युद्ध में शस्त्र नहीं उठाएंगे।  इसमें भगवान श्री कृष्ण अर्जुन के सारथी बनते हैं। भीष्म युद्ध में कौरवों के सेनापति थे। भीष्म पांडवों से स्नेह करते थे इसलिए वह पांडवों को क्षति नहीं पहुंचाना चाहते थे। युद्ध में कुछ दिन बीत जाने के बाद दुर्योधन ने भीष्म से कहा अगर वह अर्जुन का वध नहीं कर सकते तो वह सेनापति का पद छोड़ दें। तब भीष्म ने युद्ध में भारी तबाही मचाई और अर्जुन से युद्ध करने लगे। धर्म युद्ध में पांडवों को हारता देख और अर्जुन को भीष्म के सामने सफल होता ना देखकर भगवान श्री कृष्ण स्वयं रणभूमि में उतर गए। भगवान श्री कृष्ण भीष्म का वध करने वाले थे की अर्जुन ने उन्हें रोक लिया। अर्जुन ने कहा कि हे केशव मेरे लिए आप अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़े।

मृत्यु का राज पांडवो को बताया

इस तरह भीष्म ने श्री कृष्ण को शस्त्र उठाने के लिए मजबूर कर दिया था। पांडवों के पास ऐसा कोई योध्धा नहीं था जो भीष्म से टक्कर ले सके।

इश पर भीष्म ने स्वयं अपनी मृत्यु का राज पांडवो को बताया। भीष्म ने बताया कि युद्ध भूमि में शिखंडी को मेरे सामने ले आना उसके बाद मैं अपने शस्त्र त्याग दूंगा, क्योंकि मैं किसी स्त्री के समक्ष शस्त्र नहीं उठा सकता। शिखंडी जो की पूर्व जन्म में अंबा थी। इस जन्म में युवा अवस्था में आने के बाद भगवान शिव के वरदान से पुरुष बन गई थी।

किंतु भीष्म उसे स्त्री ही मानते थे। पांडवों ने ऐसा ही किया उस शिखंडी को युद्ध भूमि में भीष्म के सामने ले आए। शिखंडी को सामने देखकर भीष्म ने अपने शस्त्र त्याग दिए। भीष्म के शस्त्र त्याग ते ही अर्जुन ने अपने बाणों से भीष्म को बाणों की शैया पर लेटा दिया।

भीष्म पितामह – Bhishm Pitamah in Hindi

भीष्म एक वीर और वचन का पक्का योध्धा था। जो की धर्म की तरफ था। कौरवो और पांडवों का भीष्म पितामह  बाणों पर लेटा हुआ था। परंतु भीष्म प्राण नहीं त्याग रहे थे। भीष्म को बहोत अधिक पीड़ा हो रही थी। लेकिन उन्हें अपने पिता से इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। भीष्म पितामह 58 दिन तक बाणों पर सोते रहे. और सूर्य उत्तरायण हुआ तब ही इन्होने अपनी इच्छा से मृत्यु को पाया | वह चाहते थे कि हस्तिनापुर सुरक्षित हाथों में पहुंच जाए फिर वह प्राण त्याग करेगे। महाभारत के युद्ध की समाप्ति के बाद भीष्म ने अपने प्राण त्यागे। लेकिन प्राण त्यागने से पहले उन्होंने युधिष्ठिर को धर्म पर चलते हुए शासन करने का आशीर्वाद दिया।

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