महाभारत के पात्र महर्षि वेदव्यास की कथा | Story of Maharishi Veda Vyasa in hindi | Mahabharat Jivani वेदव्यास जीवनी

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महर्षि वेदव्यास का जीवन परिचय

नाम कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास
अन्य नाम कृष्ण द्वैपायन, बादरायणि,
पाराशर्य
जन्म स्थल यमुना तट हस्तिनापुर
धर्म हिंदू धर्म
व्यवसाय वैदिक ऋषि
पत्नी वाटिका
पिता ऋषि पराशर
माता सत्यवती
भाई-बहन भीष्म, चित्रांगद और
विचित्रवीर्य सौतेले भाई
संतान शुका (पुत्र)
के लिए
जाना
जाता है 
महाभारत, भगवद गीता
और 18 पुराण
सम्मान गुरु पूर्णिमा का त्यौहार
वेद व्यास को समर्पित है,
इसलिए गुरु पूर्णिमा को
व्यास पूर्णिमा भी
कहा जाता है।

महर्षि वेदव्यास कौन थे?

महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास महाभारत ग्रंथ के रचयिता थे। कृष्णद्वैपायन वेदव्यास महर्षि पराशर और सत्यवती के पुत्र और भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों में से ईक्कसवें अवतार थे| महाभारत ग्रंथ का लेखन भगवान् गणेश ने महर्षि वेदव्यास से सुन सुनकर किया था। वेदव्यास महाभारत के रचयिता ही नहीं, बल्कि उन घटनाओं के साक्षी भी रहे हैं, जो क्रमानुसार घटित हुई हैं। अपने आश्रम से हस्तिनापुर की समस्त गतिविधियों की सूचना उन तक तो पहुंचती थी। वे उन घटनाओं पर अपना परामर्श भी देते थे। जब-जब अंतर्द्वंद्व और संकट की स्थिति आती थी, माता सत्यवती उनसे विचार-विमर्श के लिए कभी आश्रम पहुंचती, तो कभी हस्तिनापुर के राजभवन में आमंत्रित करती थी। प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं। पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य, चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए। इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए। इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया। ऐसा माना जाता है कि “वेद व्यास” नाम वास्तविक नाम के बजाय एक शीर्षक है। क्योंकि कृष्ण द्वैपायन ने चार वेदों को संकलित किया था। आज भी कुरुक्षेत्र के समीप व्यासपुर (बिलासपुर), यमुना नगर मे महर्षि वेदव्यास जी की तपस्वी स्थली, महर्षि वेदव्यास जी का मंदिर ओर पवित्र श्री व्यास सरोवर है जो माँ सरस्वती नदी के तट पर स्थित है जिसका वर्णन धार्मिक ग्रंथ महाभारत ओर संकद पुराण मे वर्णित है ।

प्राचीन ग्रंथों के अनुसार महर्षि वेदव्यास स्वयं ईश्वर के स्वरूप थे। निम्नोक्त श्लोकों से इसकी पुष्टि होती है।

नमोऽस्तु ते व्यास विशालबुद्धे फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्रः।

येन त्वया भारततैलपूर्णः प्रज्ज्वालितो ज्ञानमयप्रदीपः।।

अर्थात् – जिन्होंने महाभारत रूपी ज्ञान के दीप को प्रज्वलित किया ऐसे विशाल बुद्धि वाले महर्षि वेदव्यास को मेरा नमस्कार है।

व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे।

नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नम:।।

अर्थात् – व्यास विष्णु के रूप है तथा विष्णु ही व्यास है ऐसे वसिष्ठ-मुनि के वंशज का मैं नमन करता हूँ। (वसिष्ठ के पुत्र थे ‘शक्ति’; शक्ति के पुत्र पराशर, और पराशर के पुत्र व्यास

वेदव्यास के जन्म की कथा

पौराणिक कथाओं के अनुसार प्राचीन काल में सुधन्वा नाम के एक राजा थे। वे एक दिन आखेट के लिये वन गये। उनके जाने के बाद ही उनकी पत्नी रजस्वला हो गई। उसने इस समाचार को अपनी शिकारी पक्षी के माध्यम से राजा के पास भिजवाया। समाचार पाकर महाराज सुधन्वा ने एक दोने में अपना वीर्य निकाल कर पक्षी को दे दिया। पक्षी उस दोने को राजा की पत्नी के पास पहुँचाने आकाश में उड़ चला। मार्ग में उस शिकारी पक्षी को एक दूसरी शिकारी पक्षी मिल गया। दोनों पक्षियों में युद्ध होने लगा। युद्ध के दौरान वह दोना पक्षी के पंजे से छूट कर यमुना में जा गिरा। यमुना में ब्रह्मा के शाप से मछली बनी एक अप्सरा रहती थी। मछली रूपी अप्सरा दोने में बहते हुये वीर्य को निगल गई तथा उसके प्रभाव से वह गर्भवती हो गई। गर्भ पूर्ण होने पर एक निषाद ने उस मछली को अपने जाल में फँसा लिया। निषाद ने जब मछली को चीरा तो उसके पेट से एक बालक तथा एक बालिका निकली। निषाद उन शिशुओं को लेकर महाराज सुधन्वा के पास गया। महाराज सुधन्वा के पुत्र न होने के कारण उन्होंने बालक को अपने पास रख लिया जिसका नाम मत्स्यराज हुआ। बालिका निषाद के पास ही रह गई और उसका नाम मत्स्यगंधा रखा गया क्योंकि उसके अंगों से मछली की गंध निकलती थी। उस कन्या को सत्यवती के नाम से भी जाना जाता है। बड़ी होने पर वह नाव खेने का कार्य करने लगी एक बार पराशर मुनि को उसकी नाव पर बैठ कर यमुना पार करना पड़ा। पराशर मुनि सत्यवती रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले, “देवि! मैं तुम्हारे साथ सहवास करना चाहता हूँ।” सत्यवती ने कहा, “मुनिवर! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या। हमारा सहवास सम्भव नहीं है।” तब पराशर मुनि बोले, “बालिके! तुम चिन्ता मत करो। प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी।” इतना कह कर उन्होंने अपने योगबल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया और सत्यवती के साथ भोग किया। तत्पश्चात् उसे आशीर्वाद देते हुये कहा, तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जायेगी।”

समय आने पर सत्यवती गर्भ से वेद वेदांगों में पारंगत एक पुत्र हुआ। जन्म होते ही वह बालक बड़ा हो गया और अपनी माता से बोला, “माता! तू जब कभी भी विपत्ति में मुझे स्मरण करेगी, मैं उपस्थित हो जाउँगा।” इतना कह कर वे तपस्या करने के लिये द्वैपायन द्वीप चले गये। द्वैपायन द्वीप में तपस्या करने तथा उनके शरीर का रंग काला होने के कारण उन्हे कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा। आगे चल कर वेदों का विभाजन करने के कारण वे वेदव्यास के नाम से विख्यात हुये।

वेद व्यास के विद्वान शिष्य

  • पैल
  • जैमिन
  • वैशम्पायन
  • सुमन्तुमुनि
  • रोम हर्षण

वेद व्यास का योगदान

हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार महर्षि व्यास त्रिकालज्ञ थे तथा उन्होंने दिव्य दृष्टि से देख कर जान लिया कि कलियुग में धर्म क्षीण हो जायेगा। धर्म के क्षीण होने के कारण मनुष्य नास्तिक, कर्तव्यहीन और अल्पायु हो जायगा। एक विशाल वेद का सांगोपांग अध्ययन उनके सामर्थ्य से बाहर हो जायेगा। इसीलिये महर्षि व्यास ने वेद का चार भागों में विभाजन कर दिया जिससे कि कम बुद्धि एवं कम स्मरणशक्ति रखने वाले भी वेदों का अध्ययन कर सकें। व्यास जी ने उनका नाम रखा – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों का विभाजन करने के कारण ही व्यास जी वेद व्यास के नाम से विख्यात हुये। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को क्रमशः अपने शिष्य पैल, जैमिन, वैशम्पायन और सुमन्तुमुनि को पढ़ाया। वेद में निहित ज्ञान के अत्यन्त गूढ़ तथा शुष्क होने के कारण वेद व्यास ने पाँचवे वेद के रूप में पुराणों की रचना की जिनमें वेद के ज्ञान को रोचक कथाओं के रूप में बताया गया है।

पुराणों को उन्होंने अपने शिष्य रोम हर्षण को पढ़ाया। व्यास जी के शिष्योंने अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार उन वेदों की अनेक शाखाएँ और उप शाखाएँ बना दीं। व्यास जी ने महाभारत की रचना की।

पौराणिक-महाकाव्य युग की महान विभूति, महाभारत, अट्ठारह पुराण, श्रीमद्भागवत, ब्रह्मसूत्र, मीमांसा जैसे अद्वितीय साहित्य-दर्शन के प्रणेता वेदव्यास का जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को लगभग ३००० ई. पूर्व में हुआ था। वेदांत दर्शन, अद्वैतवाद के संस्थापक वेदव्यास ऋषि पराशर के पुत्र थे। पत्नी आरुणी से उत्पन्न इनके पुत्र थे महान बाल योगी शुकदेव। श्रीमद्भागवत गीता विश्व के सबसे बड़े महाकाव्य ‘महाभारत’ का ही अंश है। रामनगर के किले में और व्यास नगर में वेदव्यास का मंदिर है जहॉ माघ में प्रत्येक सोमवार मेला लगता है। गुरु पूर्णिमा का प्रसिद्ध पर्व व्यास जी की जयन्ती के उपलक्ष्य में मनाया जाता है।

पुराणों तथा महाभारत के रचयिता महर्षि का मन्दिर व्यासपुरी में विद्यमान है जो काशी से पाँच मील की दूरी पर स्थित है। महाराज काशी नरेश के रामनगर दुर्ग में भी पश्चिम भाग में व्यासेश्वर की मूर्ति विराजमान् है जिसे साधारण जनता छोटा वेदव्यास के नाम से जानती है। वास्तव में वेदव्यास की यह सब से प्राचीन मूर्ति है। व्यासजी द्वारा काशी को शाप देने के कारण विश्वेश्वर ने व्यासजी को काशी से निष्कासित कर दिया था। तब व्यासजी लोलार्क मंदिर के आग्नेय कोण में गंगाजी के पूर्वी तट पर स्थित हुए।

इस घटना का उल्लेख काशी खंड में इस प्रकार है-

लोलार्कादं अग्निदिग्भागे, स्वर्घुनी पूर्वरोधसि। स्थितो ह्यद्य्यापि पश्चेत्स: काशीप्रासाद राजिकाम्।। स्कंद पुराण, काशी खंड ९६/२०१

व्यासजी ने पुराणों तथा महाभारत की रचना करने के पश्चात् ब्रह्मसूत्रों की रचना भी यहाँ की थी। वाल्मीकि की ही तरह व्यास भी संस्कृत कवियों के लिये उपजीव्य हैं। महाभारत में उपाख्यानों का अनुसरण कर अनेक संस्कृत कवियों ने काव्य, नाटक आदि की सृष्टि की है। महाभारत के संबंध में स्वयं व्यासजी की ही उक्ति अधिक सटीक है- इस ग्रंथ में जो कुछ है, वह अन्यत्र है, पंरतु जो इसमें नहीं है, वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है।

कालपी में यमुना के किसी द्वीप में इनका जन्म हुआ था। व्यासजी कृष्ण द्वैपायन कहलाये क्योंकि उनका रंग श्याम था। वे पैदा होते ही माँ की आज्ञा से तपस्या करने चले गये थे और कह गये थे कि जब भी तुम स्मरण करोगी, मैं आ जाऊंगा। वे धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर के जन्मदाता ही नहीं, अपितु विपत्ति के समय वे छाया की तरह पाण्डवों का साथ भी देते थे। उन्होंने तीन वर्षों के अथक परिश्रम से महाभारत ग्रंथ की रचना की थी-

त्रिभिर्वर्षे: सदोत्थायी कृष्णद्वैपायनोमुनि:। महाभारतमाख्यानं कृतवादि मुदतमम्।। आदिपर्व – (५६/५२)

जब इन्होंने धर्म का ह्रास होते देखा तो इन्होंने वेद का व्यास अर्थात विभाग कर दिया और वेदव्यास कहलाये। वेदों का विभाग कर उन्होंने अपने शिष्य सुमन्तु, जैमिनी, पैल और वैशम्पायन तथा पुत्र शुकदेव को उनका अध्ययन कराया तथा महाभारत का उपदेश दिया। आपकी इस अलौकिक प्रतिभा के कारण आपको भगवान का अवतार माना जाता है।

संस्कृत साहित्य में वाल्मीकि के बाद व्यास ही सर्वश्रेष्ठ कवि हुए हैं। इनके लिखे काव्य ‘आर्ष काव्य’ के नाम से विख्यात हैं। व्यास जी का उद्देश्य महाभारत लिख कर युद्ध का वर्णन करना नहीं, बल्कि इस भौतिक जीवन की नि:सारता को दिखाना है। उनका कथन है कि भले ही कोई पुरुष वेदांग तथा उपनिषदों को जान ले, लेकिन वह कभी विचक्षण नहीं हो सकता क्योंकि यह महाभारत एक ही साथ अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र तथा कामशास्त्र है।

१. यो विध्याच्चतुरो वेदान् सांगोपनिषदो द्विज:। न चाख्यातमिदं विद्य्यानैव स स्यादिचक्षण:।। २. अर्थशास्त्रमिदं प्रोक्तं धर्मशास्त्रमिदं महत्। कामाशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेना मितु बुद्धिना।। महा. आदि अ. २: २८-८३

सभी 18 पुराणों के नाम 

1 – ब्रह्मा पुराण

2- पद्मा पुराण

3 – विष्णु पुराण

4- शिव पुराण

5- देवी पुराण

6- नारदिया पुराण

7- मार्कंडेय पुराण

8- अज्ञेय पुराण

9- भविष्य पुराण

10- ब्रह्मवैवर्त पुराण

11- लिंग पुराण

12- वराह पुराण

13- स्कंद पुराण

14- वामन पुराण

15- कुर्मा पुराण

16- मत्स्य पुराण

17- गरुड़ पुराण

18 ब्रह्माण्ड पुराण

व्यास और कौरवों का संबंध

महाभारत की कहानी से हम सभी परिचित हैं, धृतराष्ट्र का विवाह गांधारी से हुआ था. गांधारी को सौ पुत्रों की प्राप्ति का वरदान प्राप्त था लेकिन उसके गर्भ में बहुत समय लग रहा था. इसीलिए दो साल की गर्भावस्था के बाद, गांधारी ने अपने विकासशील भ्रूण का गर्भपात करा दिया, जिससे लोहे के गोले जैसा दिखने वाला एक कठोर द्रव्यमान का जन्म हुआ था।

जिसके बाद इस समस्या के समाधान के लिए महर्षि व्यास को बुलाया गया, जिन्होंने इस द्रव्यमान को 100 टुकड़ों में विभाजित करके ऊष्मायन के लिए बर्तनों में डाल दिया, एक साल बाद सौ पुत्रों का जन्म हुआ, जिन्हें हम महाभारत में कौरवों के नाम से जानते हैं।

नियोग और विचित्रवीर्य के पुत्रों का जन्म

आगे चलकर सत्यवती का विवाह शांतनु से हुआ था, शांतनु और सत्यवती के दो पुत्र हुए, चित्रांगदा और विचित्रवीर्य. उनके दोनों पुत्रो की मृत्यु बिना किसी वारिस के हो गई थी।

उनके एक पुत्र विचित्रवीर्य की दो पत्नियां थीं – अंबिका और अंबालिका। विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद सत्यवती ने अपने सौतेले बेटे भीष्म से दोनों रानियों से विवाह करने का अनुरोध किया, लेकिन भीष्म ने ब्रह्मचर्य की अपनी प्रतिज्ञा के कारण विवाह से इनकार कर दिया।

सत्यवती ने अपने गुप्त अतीत का खुलासा किया और उनसे नियोग नामक परंपरा के तहत विधवाओं को गर्भवती का उपाय बताया।

नियोग एक प्राचीन हिंदू प्रथा थी। इस प्रथा में, एक महिला (जिसका पति या बच्चें पैदा करने असमर्थ हो या मर गया हो) एक सम्मानित पुरुष को एक बच्चे को जन्म देने में मदद करने के लिए अनुरोध करेगी और नियुक्त करेगी।

नियोग के नियम

  • एक महिला केवल बच्चे के अधिकार के लिए सहमत होगी ना कि यौन सुख के लिए।
  • नियोग प्रक्रिया से जन्मा बच्चा पति-पत्नी की संतान माना जाएगा न कि नियुक्त व्यक्ति की।
  • नियुक्त व्यक्ति भविष्य में इस बच्चे से कोई पैतृक संबंध या लगाव नहीं रखेगा।
  • एक व्यक्ति को उसके जीवनकाल में अधिकतम तीन बार नियोग के लिए नियुक्त किया जा सकता है, ताकि इसका दुरुपयोग ना हो।
  • कार्य करते समय नियुक्त व्यक्ति और पत्नी के मन में कोई जुनून या वासना नहीं होनी चाहिए।
  • नियोग को धर्म के रूप में देखा जाएगा और ऐसा करते समय पुरुष और पत्नी के मन में केवल धर्म होना चाहिए।
  • पुरुष ईश्वर के नाम पर स्त्री की सहायता के रूप में करेगा, जबकि स्त्री केवल अपने लिए और अपने पति के लिए बच्चे के लिए करेगी।
  • अपर बॉडी से किसी भी तरह का कोई संपर्क नहीं होगा। इसके अलावा नर और मादा दोनों के शरीर पर घी लगाया जाता है।
  • नर और मादा के बीच एक पर्दा होता है ताकि कोई एक दूसरे का चेहरा न देख सके ताकि उनके मन में वासना और जुनून न आ सके।
  • केवल मादा के पैर खुले रखे जाते हैं। नर मादा के अंदर प्रवेश करता है और स्खलन करता है और प्रक्रिया पूरी हो जाती है।
  • सत्यवती ने अंबिका को नियोग की प्रक्रिया के लिए ऋषि व्यास के पास भेजा, व्यास वन में महीनों के ध्यान के कारण निर्लिप्त थे। इसलिए उंन्हे देखते ही, अंबिका ने अपनी आँखें बंद कर लीं, जिसके परिणामस्वरूप उनका बच्चा धृतराष्ट्र अंधा पैदा हुआ था।
  • दूसरी रानी अंबालिका की मुलाकात व्यास से हुई, जिसके परिणामस्वरूप पांडु का जन्म हुआ। चिंतित, सत्यवती ने अनुरोध किया कि व्यास अंबिका के साथ फिर से मिलें और उसे एक और पुत्र प्रदान करें।
  • इसके बाद अंबिका ने स्वयं जाने के बजाय अपनी दासी को व्यास से मिलने के लिए भेजा, जिसके परिणामस्वरूप विदुर का जन्म हुआ था।

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