ऋषि मुद्गल कौन थे – Story Rishi Mugdala Kahani जो वरदान मिलने के बाद भी स्वर्ग नहीं गए

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ऋषि मुद्गल , हिंदू धर्म के राजर्षियों में से एक हैं  । वे एक  क्षत्रिय  राजा थे, लेकिन अपनी घोर तपस्या के कारण उन्होंने महान शक्तियाँ प्राप्त कीं और एक प्रसिद्ध ऋषि बन गए। उन्होंने मुद्गल पुराण की रचना की । अपने पुराण में, वह  भगवान गणेश के बारे में और भगवान गणपति की पूजा और होम करने के तरीके की  प्रशंसा करता है । उनमें बहुत धैर्य था और उन्होंने कभी दूसरों से घृणा नहीं की, और कभी भी दूसरों को शाप नहीं दिया, भले ही किसी ने उन्हें नुकसान पहुँचाया हो। वे एक धर्मपरायण संत थे। एक बार ऋषि मुद्गल पंजाब के राजा थे। उन्हें महान ऋषि विश्वामित्र के समान राजऋषि के रूप में जाना जाता है। उनके नाम का उल्लेख कई प्राचीन पुराणों और पवित्र हिंदू ग्रंथों में किया गया है। उनके पुत्र राजपुरोहितों के रूप में रहते थे (राजा के मुख्य पुजारी)। उनकी पत्नी एक धर्मपरायण और नेक महिला नालयानी थीं, जिन्होंने एक कर्तव्यपरायण पत्नी के रूप में उनकी सेवा की और अपना पूरा ध्यान उन पर दिखाया और वह दूसरों के लिए एक उदाहरण के रूप में काम करती हैं। अपने अगले जन्म में, उन्होंने द्रौपदी के रूप में जन्म लिया और पांडवों से विवाह किया। और वह माता पार्वती का अवतार भी हैं और उनके विभिन्न मंदिर पूरे भारत में स्थित हैं।

मुदगल
देवनागरी मुद्गल
संबंधन हिन्दू धर्म
अनुयायियों वैष्णव
ग्रंथों मुद्गल उपनिषद , मुद्गल पुराण और गणेश पुराण
लिंग नर
व्यक्तिगत जानकारी
अभिभावक भाम्यरस्व (पिता)।
बातचीत करना नालयानी इंद्रसेना
बच्चे वध्र्यस्व (जो राजा बने), दिवोदास, अहिल्या
राजवंश पांचाल

मुद्गल उपनाम को कुछ क्षेत्रों में मुदगिल, मोदगिल, मौदगिल भी कहा जाता है। उत्तर भारत में मुद्गल गोत्र गौर/गौड़ ब्राह्मणों, सारस्वत ब्राह्मणों और गौर/गौड़ त्यागी ब्राह्मणों द्वारा साझा किया जाता है। ऋषि मुद्गल ने मुद्गल उपनिषद नाम के 108 उपनिषदों में से 1 उपनिषद लिखा । मुद्गल उपनिषद एक बहुत ही विशेष प्रकार का है और अब तक लिखे गए सभी उपनिषदों में अद्वितीय है। यह वैष्णववाद की नींव है , जिसमें कहा गया है कि विष्णु पुरुष या मौलिक इकाई हैं ।  महान ऋषि सरल जीवन, उच्च विचार में दृढ़ता से विश्वास करते थे और अन्य ऋषियों के बीच उच्च स्तर का धैर्य रखते थे।

इतिहास

ऋषि मुद्गल पांचाल राज्य के चंद्रवंशी / नागवंशी क्षत्रिय राजा भाम्यरस्व के पुत्र थे , जो वर्तमान में भारत का पंजाब राज्य है । उन्हें विश्वामित्र के बाद हिंदू धर्म में राजर्षियों में से एक माना जाता है । ऋषि मुद्गल एक जंगल में रहते थे और अपने राज्य पर शासन करते थे और साथ ही उन्होंने एक गुरुकुल में कुलगुरु के रूप में पढ़ाया ।भगवद गीता के अनुसार , मुद्गल के 50 पुत्र थे। ऋषि मुद्गल ब्राह्मण बने रहे और अन्य ऋषि मुद्गल के वंश के ब्राह्मण राजा के रूप में जाने गए।ऋषि मुद्गल का विवाह निषाद के राजा नल और रानी दमयंती की बेटी नलयानी इंद्रसेन से हुआ था । मुद्गल और इंद्रसेन ने वध्र्यस्व, दिवोदास और अहल्या को जन्म दिया । जब मुद्गल कुष्ठ रोग से पीड़ित थे तब भी नलयानी ने मुद्गल की पूरे मन से सेवा की। उसकी सेवा से प्रसन्न होकर मुद्गल ने नलयानी को वरदान दिया। नलयानी उनके बंधन को ठीक से निभाना चाहती थीं और मुद्गल ने पांच रूपों में उनकी इच्छा पूरी की। जब ऋषि मुद्गल ने मोक्ष प्राप्त किया , तो उन्होंने नश्वर जीवन छोड़ दिया, लेकिन नालयानी ने अपने अगले जन्म में, जब उन्हें कोई उपयुक्त वर नहीं मिला, तो उन्होंने भगवान शिव के लिए तपस्या की । जब भगवान शिवउसे वरदान देने के लिए प्रकट हुई उसने अपनी उत्सुकता में पांच बार पति मांगा तो शिव ने उसे कुछ अपवादों के साथ पांच पतियों का वरदान दिया। यही महाभारत में द्रौपदी के जन्म और पांडवों से विवाह करने का रहस्य है, जो यम , वायु , इंद्र और अश्विनी देवता के अवतार थे, जो पृथ्वी पर धर्म की बहाली के लिए पृथ्वी पर आए थे।सुमेर की एक मुहर , ( मुद्गला की ,  एडिन के भगवान , उरुआस के मंत्री  ) अजू ​​शब्द को दर्शाता है, जिसका अर्थ जल-विभाजन (शाब्दिक जल ज्ञाता) और इसके अतिरिक्त, चिकित्सक है।  भगवान मुद्गला उरुअस द खड के पुत्र थे ,  जो चौथी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के सुमेरिया (वाया फेनिशिया ) के पहले राजवंश थे ।

कहा जाता है कि राजस्थान के जोधपुर के मौदगिल ब्राह्मण, मंदोदरी से रावण के विवाह के समय लंका से आए थे। इन्हें रावण का वंशज माना जाता है।

वंशावली

मुद्गल अजमीध वंश का वंशज था, जिसने महाभारत के सबसे प्रमुख उत्तरी पंचाल वंश का निर्माण किया। अजमीधा से उनकी वंशावली इस प्रकार है:

  1. नीला
  2. सुसंती
  3. पुरुजानु
  4. रक्सा
  5. भृम्यस्व
  6. मुद्गल
  7. वाध्र्यस्व
  8. दिवोदास
  9. मित्रयु
  10. मैत्रेय सोम
  11. सृंजया
  12. च्यवन पंचजन
  13. सुदास सोमदत्त
  14. सहदेव
  15. सोमका
  16. जंतु
  17. पृशता
  18. द्रुपद

यह वंश महाभारत के युद्ध पात्र द्रुपद तक आया, जो पांडवों की ओर से लड़े थे।

भागवत पुराण में उल्लेख

भागवत पुराण में भी ऋषि मुद्गल की वंशावली का उल्लेख है । श्लोक जाता है:

शांति का पुत्र सुशांति था, सुशांति का पुत्र पुरुजा था, और पुरुजा का पुत्र अर्क था। अर्का से भार्याश्व, और भार्याश्व से पाँच पुत्र उत्पन्न हुए – मुद्गल , यवीनार, बृहद्विश्व, काम्पिल और संजय। भार्याश्व ने अपने पुत्रों से प्रार्थना की, “हे मेरे पुत्रों, कृपया मेरे पाँच राज्यों को अपने अधिकार में ले लें, क्योंकि आप ऐसा करने में सक्षम हैं।” इस प्रकार उसके पांच पुत्र पांचाल कहलाए। मुद्गल से ब्राह्मणों का एक वंश आया जिसे मौद्गल्य के नाम से जाना जाता है।

यह इन पांचालों से है कि पंचायत प्रणाली , सबसे पुरानी प्रचलित राजनीतिक व्यवस्था में से एक, भारत और नेपाल में शुरू की गई थी। भागवत पुराण में, सूत गोस्वामी वेदों के विभाजन का वर्णन करते हैं भगवान ब्रह्मा के हृदय से सूक्ष्म दिव्य दिव्य स्पंदन आया और इस ध्वनि से शक्तिशाली शब्दांश निकला । इस ओंकार का उपयोग करते हुए , भगवान ब्रह्मा ने मूल वेदों का निर्माण किया और उन्हें अपने पुत्रों, मारीचि और अन्य लोगों को पढ़ाया , जो सभी ब्राह्मणवादी संत थे।समाज। वैदिक ज्ञान के इस शरीर को द्वापर-युग के अंत तक आध्यात्मिक गुरुओं के शिष्य उत्तराधिकार के माध्यम से सौंप दिया गया था , जब भगवान व्यासदेव ने इसे चार भागों में विभाजित किया और इन चार संहिताओं में ऋषियों के विभिन्न विद्यालयों को निर्देश दिया सर्ग 12, अध्याय 6, श्लोक 57 में, ऋषि मुद्गल को फिर से व्यासदेव के शिष्य के शिष्य के रूप में वर्णित किया गया है, जो एक संग्रह की रक्षा के लिए योग्य और जिम्मेदार निर्धारित किया गया था ।

माण्डुकेय के पुत्र, शाकल्य ने अपने स्वयं के संग्रह को पाँच में विभाजित किया, प्रत्येक को वात्स्य, मुद्गल , शालिया, गोखल्य और शिशिर को एक उपखंड सौंपा।

इसी पुराण में मुद्गल को मोक्ष की प्राप्ति का उल्लेख है :

हरिश्चन्द्र, रन्तिदेव, उच्चवृत्ति मुद्गल , सिबी, बाली, प्रसिद्ध शिकारी और कबूतर, और कई अन्य लोगों ने अनित्य के माध्यम से स्थायी को प्राप्त किया है।

उन्हें यहाँ उच्चवृत्ति इसलिए कहा जाता है क्योंकि मुद्गल फसल कटने के बाद खेतों में छोड़े गए अनाज को इकट्ठा करके अपना जीवनयापन करते थे।

एक प्रेरक प्रसंग

मुद्गल नामक ऋषि कुरुक्षेत्र में रहते थे । ये बड़े धर्मात्मा, जितेन्द्रिय, भगवद्भक्त एवं सत्यवक्ता थे । किसी की भी निन्दा नहीं करते थे । ये शिलोंछवृत्ति से अपना जीवन निर्वाह करते थे। पंद्रह दिनों में एक द्रोण धान्य, जो करीब 34 सेर के बराबर होता है, इकट्ठा  कर लेते थे । उसी से इष्टीकृत नामक यज्ञ करते और प्रत्येक पंद्रहवें दिन अमावस्या एवं पूर्णिमा को दर्श-पौर्णमास यज्ञ किया करते थे । यज्ञों में देवता और अतिथियों को देने से जो अन्न बचता, उसी से परिवार सहित निर्वाह किया करते थे । जैसे धर्मात्मा ब्राह्मण स्वयं थे, वैसे ही उनकी धर्मपत्नी और संतान भी थीं । मुद्गल ऋषि सपरिवार महीने में केवल दो ही बार — अमावस्या एवं पूर्णिमा के दिन ही भोजन किया करते, सो भी अतिथि अभ्यागतों को भोजन कराने के बाद । कहते हैं कि उनका प्रभाव ऐसा था कि प्रत्येक पर्व के दिन साक्षात् देवराज इन्द्र देवताओं सहित उनके यज्ञ में आकर अपना भाग लेते थे । इस प्रकार मुनि वृत्ति से रहना और प्रसन्न-चित्त से अतिथियों को अन्न देना यही उनके जीवन का व्रत था ।

मुनि के इस व्रत की ख्याति बहुत दूर तक फैल चुकी थी । एक दिन उनकी कीर्ति कथा दुर्वासा मुनि के कानों में पड़ी । उनके मन में उनकी परीक्षा करने की आ गयी । दुर्वासा ऋषि जहाँ-तहाँ व्रतशील उत्तम पुरुषों को व्रत में पक्का करने के लिए ही क्रोधित वेश में घूमा करते थे । वे एक दिन नंग-धड़ंग पागलों का सा वेश बनाये, मूँड़ मुँड़ाये, कटु बचन कहते हुए वहाँ आ पहुँचे । आते ही बोले — ‘विप्रवर ! आपको मालूम होना चाहिए कि मैं भोजन की इच्छा से यहाँ आया हूँ ।’ उस दिन पूर्णिमा का दिवस था । मुद्गल ने आदर सत्कार के साथ ऋषि की अभ्यर्थना करके उन्हें भोजन कराने बैठाया । उन्होंने अपने भूखे अतिथि को बड़ी श्रद्धा से भोजन परोस कर खिलाया । मुनि भूखे तो थे ही, श्रद्धा से प्राप्त हुआ वह अन्न उन्हें बड़ा सरस भी लगा । वे बात की बात में रसोई में बना हुआ सब कुछ जीम गये, बचा-खुचा शरीर पर चुपड़ लिया । जूँठा अन्न शरीर पर लपेट कर वे जिधर से आये थे, उधर ही निकल गये ।

मुद्गल सपरिवार भूखे रहे । यों प्रत्येक पर्व पर दुर्वासा ऋषि आते और भोजन करके चले जाते । मुनि को परिवार सहित भूखे रह जाना पड़ता । पंद्रह दिनों तक कटे हुए खेतों में बिखरे दानों को वे बीनते और स्वयं निराहार रहकर प्रत्येक पंद्रहवें दिन वे उसे दुर्वासा ऋषि को अर्पण कर देते । स्त्री-पुत्र ने भी उनका साथ दिया । भूख से उनके मन में तनिक भी विकार या खेद उत्पन्न नहीं हुआ । श्री दुर्वासा ऋषि ने हर बार उनके चित्त को शान्त और निर्मल ही पाया ।

दुर्वासा ऋषि इनके धैर्य को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए । उन्होंने मुनि मुद्गल से कहा  — ‘मुने ! इस संसार में तुम्हारे समान दाता कोई भी नहीं है । ईर्ष्या तो तुमको छू तक नहीं गयी है । भूख बड़े-बड़े लोगों के धार्मिक विचारों को डिगा देती है और धैर्य को हर लेती है । जीभ तो रसना ही ठहरी, वह सदा रस का स्वाद लेने वाली है । मन तो इतना चंचल है कि इसको वश में करना अत्यंत कठिन जान पड़ता है । मन और इन्द्रियों को काबू में रखकर भूख का कष्ट उठाते हुए परिश्रम से प्राप्त किये हुए धन को शुद्ध हृदय से दान करना अत्यंत कठिन है । देवता भी तुम्हारे दान की महिमा गा-गाकर उसकी सर्वत्र घोषणा करेंगे ।’

पूर्वाग्रह – एक प्रसंग

महर्षि दुर्वासा यों कह ही रहे थे कि देवदूत विमान लेकर मुद्गल के पास आया । देवदूत ने कहा  — ‘देव ! आप महान पुण्यवान् हैं, सशरीर स्वर्ग पधारें।’ देवदूत की बात सुनकर महर्षि ने उससे कहा — देवदूत ! सत्पुरुषों में सात पग एक साथ चलने से ही मित्रता हो जाती है ; अतः मैं आपसे जो कुछ पूछूँ, उसके उत्तर में जो सत्य और हितकर हो, वही बतलाएँ । मैं आपकी बात सुनकर ही अपना कर्तव्य निश्चित करूँगा । देवदूत ! मेरा प्रश्न यह है कि स्वर्ग में क्या सुख है और क्या दुःख है? ‘

देवदूत ने महर्षि मुद्गल के उत्तर में स्वर्गलोक एवं उससे भी ऊपर के भोगमय लोकों के सुखों  का वर्णन किया । तत्पश्चात् वहाँ का सबसे बड़ा दोष यही बताया कि ‘वहाँ से एक न एक दिन पतन हो ही जाता है । ब्रह्मलोक पर्यन्त सभी लोकों में पतन का भय जीव को सदा बना रहता है ।’ वे कहने लगे कि —- ‘सुखद ऐश्वर्य का उपभोग करके उससे निम्न स्थानों में गिरने वाले प्राणियों को जो असन्तोष और वेदना होती है, उसका वर्णन करना बहुत कठिन है ।’
यह सुनकर महर्षि मुद्गल ने देवदूत को विधिपूर्वक नमस्कार किया तथा उन्हें अत्यंत प्रेम से यह कहकर लौटा दिया –

यत्र गत्वा न शोचन्ति
व्यथन्ति चरन्ति वा।
तदहं    स्थानमत्यन्तं
मार्गयिष्यामि केवलम्।।

‘हे देवदूत  ! मैं तो उस विनाशरहित परमधाम को ही प्राप्त करूँगा, जिसे प्राप्त कर लेने पर शोक, व्यथा, दुखों की आत्यान्तिक निवृत्ति और परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है ।’ देवदूत उनसे यह उत्तर पाकर उनकी बुद्धिमत्ता की प्रशंसा करता हुआ लौट गया एवं तत्पश्चात् मुनि मुद्गल स्तुति-निन्दा तथा मिट्टी में समभाव रखते हुए ज्ञान-वैराग्य तथा भगवद्भक्ति के साधन से अविनाशी भगवद्धाम को प्राप्त हुए ।

कैसे ली मुनि दुर्वासा ने महर्षि मुद्गल की परीक्षा

कुरुक्षेत्र में मुद्गल नामक एक धर्मात्मा, जितेंद्रिय और सत्यनिष्ठ ऋषि थे। ईर्ष्या और क्रोध का उनमें नाम भी नहीं था। जब किसान खेतों से अन्न काट लेते और गिरा हुआ अन्न भी चुन लेते, तब उन खेतों में जो दाने बचे रहते उन्हें मुद्गलजी एकत्र कर लेते।

कुरुक्षेत्र में मुद्गल नामक एक धर्मात्मा, जितेंद्रिय और सत्यनिष्ठ ऋषि थे। ईर्ष्या और क्रोध का उनमें नाम भी नहीं था। जब किसान खेतों से अन्न काट लेते और गिरा हुआ अन्न भी चुन लेते, तब उन खेतों में जो दाने बचे रहते उन्हें मुद्गलजी एकत्र कर लेते। कबूतर के समान वह थोड़ा ही अन्न एकत्र करते थे और उसी से अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। आए हुए अतिथि का उसी अन्न से वह सत्कार भी करते थे। पूर्णिमा और अमावस्या के श्राद्ध तथा इष्टीकृत हवन भी वह संपन्न करते थे। महात्मा मुद्गल एक पक्ष में एक द्रोण भर अन्न एकत्र कर लाते थे। उतने से देवता, पितर और अतिथि आदि की पूजा-सेवा करने के बाद जो कुछ बचता था उससे अपना तथा परिवार का काम चलाते थे।

महर्षि मुद्गल के दान की महिमा सुनकर मुनि दुर्वासा ने उनकी परीक्षा करने का निश्चय किया। वह कठोर वचन कहते महर्षि मुद्गल के आश्रम में पहुंच कर भोजन मांगने लगे। महर्षि मुद्गल ने बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ दुर्वासा जी का स्वागत किया। अर्घ्य, पाद्य आदि देकर उनकी पूजा की और फिर उन्हें भोजन कराया। दुर्वासाजी ने महर्षि मुद्गल के पास जितना अन्न था, वह सब खा लिया तथा बचा हुआ जूठा अन्न अपने शरीर में पोत लिया। फिर वह वहां से चले गए। महर्षि मुद्गल के पास अन्न नहीं रहा। पूरे एक पक्ष में उन्होंने फिर द्रोण भर अन्न एकत्र किया। देवता तथा पितरों का भाग देकर वह जैसे ही निवृत्त हुए, मुनि दुर्वासा पहले के समान फिर आ गए और फिर सब अन्न खाकर चल दिए। महर्षि मुद्गल फिर परिवार सहित भूखे रह गए।

एक-दो बार नहीं, पूरे छ: पक्ष तक इसी प्रकार दुर्वासा जी आते रहे। प्रत्येक बार उन्होंने महर्षि मुद्गल का सारा अन्न खा लिया। महर्षि मुद्गल भी उन्हें भोजन कराकर फिर अन्न के दाने चुनने में लग जाते थे। उनके मन में क्रोध, घबराहट आदि का स्पर्श भी नहीं हुआ। मुनि दुर्वासा के प्रति भी उनका पहले के ही समान आदर-भाव बना रहा।
मुनि दुर्वासा अंत में प्रसन्न होकर बोले, ‘‘महर्षि! संसार में तुम्हारे समान ईर्ष्या-रहित अतिथि की सेवा करने वाला कोई नहीं है। क्षुधा इतनी बुरी होती है कि वह मनुष्य के धर्म-ज्ञान तथा धैर्य को नष्ट कर देती है किंतु तुम पर वह अपना प्रभाव नहीं दिखा सकी। इंद्रिय निग्रह, धैर्य, दान, सत्य, शम, दम, दया आदि धर्म तुममें पूर्ण प्रतिष्ठित हैं। विप्रश्रेष्ठ! तुम अपने इसी शरीर से स्वर्ग जाओ। ’’ मुनि दुर्वासा के इतना कहते ही देवदूत स्वर्ग से विमान लेकर वहां आए और उन्होंने महर्षि मुद्गल से उसमें बैठने की प्रार्थना की।

महर्षि मुद्गल ने देवदूतों से स्वर्ग के गुण तथा दोष पूछे और उनकी बातें सुनकर बोले, ‘‘जहां परस्पर स्पर्धा है, जहां पूर्ण तृप्ति नहीं और जहां असुरों के आक्रमण तथा पुण्य क्षीण होने से पतन का भय सदा लगा ही रहता है उस स्वर्ग में मैं नहीं जाना चाहता।’’ देवदूतों को विमान लेकर लौट जाना पड़ा। महर्षि मुद्गल ने कुछ ही दिनों में अपने त्यागमय जीवन तथा भगवद-भजन के प्रभाव से भगवद-धाम प्राप्त किया।

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